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(Birsa Munda)
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बिरसा मुण्डा (Birsa Munda)ने आदिवासियों को अंएकजुट किया

भारत की आजादी की लड़ाई में देशवासियों ने कई तरह से योगदान दिया है. कोई गांधी जी के बताए रास्ते पर चला तो किसी ने अंग्रेजों से जुल्म के खिलाफ हथियार उठाए तो किसी ने आजादी के सिपाहियों की मदद की. आजादी के दीवानों का नेतृत्व करने की क्षमता में एक नाम जो बहुत कम याद किया जाता है वह है बिरसा मुण्डा (Birsa Munda) का बिरसा मुण्डा ने अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के लड़ाई में उनका नेतृत्व किया था. उनका योगदान इतना ऊंचा था कि आदिवासी आज भी उन्हें भगवान ही मानते हैं. 9 जून को उनकी पुण्यतिथि है. बिरसा मुण्डा के योगदान केवल आजादी के लिए ही नहीं था बल्कि वे आदिवासियों की आवाज बन गए थे.

आज हर देशवासी खास तौर से देश के बच्चों को बिरसा मुण्डा के बारे में जानना बहुत जरूरी है. 123 साल पहले अंग्रेजों ने बिरसा मुण्डा जहर देकर उनका शरीर तो खत्म कर दिया था. लेकिन हर आदीवासी के दिल में अमर होने से नहीं रोक सके थे. उन्होंने वनवासियों को ना केवल अंग्रेजो के खिलाफ लड़ना सिखाया बल्कि आत्मसम्मान की राह भी दिखाई.

गरीबी में बीता बचपन
बिरसा मुण्डा जन्म 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रेसिडेंसी के रांची जिले के उलीहातू गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम सुगना मुण्डा और माता का नाम कर्मी हातू था. उनका बचपन गरीबी में बीता था. उन्हें बांसुरी बजाने का बहुत शौक था. उनकी शुरुआती शिक्षा सलगा में हुई थी. लेकिन जल्दी ही उनका सम्पर्क क्रिश्चियन मिशनरी से हुआ जो उनके गांव में लोगों को ईसाई बना रहे थे.

ईसाई धर्म और उससे विमुखता
बिरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे. इसलिए सलगा के स्कूल में ही उन्हें जर्मन मिशन स्कूल भेज दिया गया, जहां वे ईसाई बन कर बिरसा डेविड हो गए. कुछ सालों तक पढ़ाई के बाद बिरसा को मिशनरियों का खेल समझ में आ गया और उन्होंने इनका विरोध करना शुरू कर दिय और वह स्कूल भी छोड़ दिया. इसके बाद वे लंबे समय तक चाईबासा में रहे और 1890 में उनका पूरा परिवार ईसाईयत छोड़ अपने आदिवासी धर्म परंपरा में लौट आया.

जनआंदोलन की ओर
यह वह दौर था जब उनके आदिवासी क्षेत्र में सरदार आंदोलन चल रहा था. भूमिज-मुंडा सरदारों के नेतृत्व में लड़ा जा रहा था. बिरसा ने वनवासियों को उनके ही जंगल से वंचित किए जाने के विरोध में इस आंदोलन में शामिल होने का फैसला किया. इसी बीच 1893 -94 में गावों की बहुत सारी जमीन को सरकार ने संरक्षित जंगल के अधीन लाने कलिए इंडियन फॉरेस्ट एक्ट 1882 लागू कर दिया. 1894 में सरदारी लड़ाई मजबूत नेतृत्व की कमी के कारण सफल नहीं हुआ.
आदिवासियों के लिए एक संत
लेकिन यहीं से बिरसा मुण्डा का उदय होने लगा. उन्होंने वनवासियों को अपने आदिवासी धर्म की ओर लौटने को प्रेरित किया और लोगों के बीच उनकी एक संत के जैसी छवि बनने लगी. उन्होंने लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया, जिसमें अंग्रेज परंपरागत आदिवासी किसानी की जगह अपना खुद का जमींदारी तंत्र थोपना चाहते थे.
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धरती बाबा के रूप में
बिरसा मुण्डा ने लोगों से ईसाई धर्म छोड़ कर एक ही भगवान को मानने को कहा,उन्होंने खुद को मसीहा बताते हुए ऐलान किया कि वे अपने लोगों को राज्य को वापस दिलाने के लिए आए हैं. उन्होंने कहा कि अब विक्टोरिया रानी का राज खत्म हो गया है और मुण्डा राज शुरू हो गया है. मुण्डा उन्हें धरती बाबा कहने लगे थे. इसी बीच दो साल के लिए बिरसा मुण्डा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया.

1898 में जेल से छूटने के बाद बिरसा गुपचुप लोगों से मिलते रहे और उन्हें एकजुट करने का काम करते रहे और जगह जगह ब्रिटिशों के खिलाफ हमला करते करते रहे. धीरे धीरे यह अंग्रेजों और मुण्डा आदिवासियों के बीच सीधी लड़ाई होती गई. उनके सिर पर 500 रुपयों का इनाम रखा गया. 3 फरवरी 1900 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उनपर और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया. लेकिन 9 जून 1900 को उनक मृत्यु हो गई. बताया जाता है कि उन्हें अंग्रेजों ने जहर दे दिया था. उनके बाद आंदोलन तो दब गया, लेकिन 1908 में कानून बन गया कि आदिवासियों से जमीन नहीं ली जाएगी..