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घृतकुमारी की खेती से करें लाखों की कमाई

नई दिल्ली: एलोवेरा या घृतकुमारी का इस्तेमाल कॉस्मेटिक्स प्रोडक्ट बनाने में बहुतायत में होता है. आपने देखा होगा कि हर घर की बालकनी में एलोवीरा का पौधा किसी गमले में लगा दिख जाएगा. यह बढ़िया फेस मसाज होता और बालों को चमकाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है. इसी वजह से इसकी बाजार में काफी डिमांड भी है. बढ़ती मांग को देखते हुए इसकी खेती मुनाफे का सौदा साबित हो रही है.

कई कंपनियां तो इसकी कॉन्ट्रैक्ट में खेती भी कराती हैं, यदि इसकी व्यवसायिक तरीके से खेती की जाए तो सालाना 8-10 लाख रुपए तक कमाई हो सकती है. इस आर्टिकल में अपने किसान भाइयों से एलोवेरा की खेती के बारे में बताएंगे.

खेती करने से पहले यह जान लीजिए कि यह कैसा होता है. घृत कुमारी या एलो वेरा/एलोवेरा, जिसे क्वारगंदल, या ग्वारपाठा के नाम से भी जाना जाता है. यह एक औषधीय पौधे के रूप में पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. एलोवेरा का पौधा बिना तने का या बहुत ही छोटे तने का एक गूदेदार और रसीला पौधा होता है. इसकी लम्बाई 60-100 सेंटीमीटर तक होती है. इसका फैलाव नीचे से निकलती शाखाओं द्वारा होता है. इसकी पत्तियां भालाकार, मोटी और मांसल होती हैं जिनका रंग, हरा, हरा-स्लेटी होने के साथ कुछ किस्मों में पत्ती के ऊपरी और निचली सतह पर सफेद धब्बे होते हैं. पत्ती के किनारों पर की सफेद छोटे कांटे होते हैं. गर्मी के मौसम में पीले रंग के फूल लगते हैं.

एलोवेरा की किस्मों का पता लगाने के लिए वर्षों शोध चले. इसके बाद पता चला कि एलोवेरा 300 प्रकार के होते हैं. इसमें 284 किस्म के एलोवेरा में 0 से 15 प्रतिशत औषधीय गुण होते हैं. 11 प्रकार के पौधे जहरीले होते हैं, बाकी बचे 5 विशेष प्रकार में से एक पौधा है जिसका नाम एलो बारबाडेन्सिस मिलर है. इसमें 100 प्रतिशत औषधि व दवाई दोनों के गुण पाए गए हैं. वहीं इसकी मुसब्बर प्रजाति जिसमें लाभकारी औषधीय और उपचार गुण होते हैं और विशेष रूप से जलने को शांत करने के लिए उपयोग किया जाता है. इसके अलावा इसकी एक और किस्म जिसे मुसब्बर कहते हैं, इसे इसे असली चिता या मुसब्बर मैकुलता के रूप में जाना जाता है. इसका प्रयोग सभी प्रकार की त्वचा की स्थिति के इलाज के लिए उपयोग किया जाता है.

एलोवेरा की खेती के लिए उष्ण जलवायु उपयुक्त मानी जाती है. इसकी खेती आमतौर पर शुष्क क्षेत्र में न्यूनतम वर्षा और गर्म आर्द्र क्षेत्र में सफलतापूर्वक की जाती है. यानी धूसर मिट्टी में यह अच्छी पैदावार देता है. इसके उलट एलोवेरा का पौधा अत्यधिक ठंड की स्थिति में संवेदनशील होता है. इस दौरान खेती नहीं करना चाहिए. इसके लिए मिट्टी या भूमि के लिए रेतीली से लेकर दोमट मिट्टी तक विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है. रेतीली मिट्टी इसके लिए सबसे अच्छी होती है. इसके अलावा अच्छी काली मिट्टी में भी इसकी खेती की जा सकती है. एलोवेरा की खेती के लिए जमीनी स्तर थोड़ी ऊंचाई पर हो और खेत में जल निकासी की समुचित व्यवस्था होा. पानी का भराव न हो. इसकी मिट्टी का पीएच मान 8.5 होना चाहिएय.

अच्छी पैदावार के लिए एलोवेरा के पौधे जुलाई-अगस्त में लगाना उचित रहता है. वैसे इसकी खेती सर्दियों के महीनों को छोडक़र पूरे वर्ष की जा सकती है.

खेती के लिए सबसे पहले जमीन की जुताई करना चाहिए. मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने को अंतिम जुताई के दौरान लगभग 15 से 20 टन सड़े गोबर की खाद डालनी चाहिए. यह जितना डालेंगे पैदावार उतनी अच्छी होगी.

एलोवेरा की पौध तैयार करने के लिए बिजाई 6-8 के पौध द्वारा किया जाना चाहिए. इसकी बिजाई 3-4 महीने पुराने चार-पांच पत्तों वाले कंदों के द्वारा की जाती है. एक एकड़ भूमि के लिए करीब 5000 से 10000 कदों/सकर्स की जरूरत होती है. पौध की संख्या भूमि की उर्वरता और पौध से पौध की दूरी एवं कतार से कतार की दूरी पर निर्भर करता है.

एलोईन और जेल उत्पादन की दृष्टि से नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लान्ट जेनेटिक सोर्सेस द्वारा एलोवेरा की कई किस्में विकसित की गई हैं. सीमैप, लखनऊ ने भी उन्नत प्रजाति (अंकचा/एएल-1) विकसित की है, वाणिज्यिक खेती के लिए जिन किसानों ने पूर्व में एलोवेरा की खेती की हो और जूस/जेल आदि का उत्पादन में पत्तियों का व्यवहार कर रहे हों, तो वे नई किस्म के लिए संपर्क कर सकते हैं.

एलोवेरा की रोपण के लिए खेत में खूड़ (रिजेज एंड फरोज) बनाए जाते हैं. एक मीटर में इसकी दो लाइने लगती हैं और फिर एक मीटर जगह खाली छोड़कर पुन: एक मीटर में दो लाइनें लगानी चाहिए. पुराने पौधे के पास से छोटे पौधे निकालने के बाद पौधे के चारों तरफ जमीन को अच्छी तरह दबा देना चाहिए, खेत में पुराने पौधों से वर्षा ऋतु में कुछ छोटे पौधे निकलने लगते है इनकों जड़ सहित निकालकर खेत में पौधारोपण के लिए काम में लिया जा सकता है. इसकी रोपाई करते समय इसकी नाली और डोली पर 40 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए. छोटा पौधा 40 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाया जाना चाहिए. इसका रोपण घनत्व 50 हजार प्रति हेक्टेयर होना चाहिए और दूरी 40 गुणा 45 सेंटीमीटर होनी चाहिए.

बिजाई के तुरंत बाद एक सिंचाई करनी चाहिए.इसके बाद में आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए. समय-समय पर सिंचाई से पत्तों में जेल की मात्रा बढ़ती है. खरपतवार हटाना जरूरी है यानी निंदाई करना चाहिए.

इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चर रिसर्च (आईसीएआर) के मुताबिक एक हेक्टेयर में प्लांटेशन का खर्च लगभग 27,500 रुपए आता है. जबकि, मजदूरी, खेत तैयारी, खाद आदि जोड़ें तो पहले साल यह खर्च 50,000 रुपए पहुंच जाता है.

सालभर अगर अच्छे से ध्यान देकर एलोवेरा की खेती की जाए तो एक हेक्टेयर में खेती से लगभग 40 से 45 टन मोटी पत्तियां प्राप्त होती हैं. इन पत्तों से मुसब्बर अथवा एलोवासर बनाकर भी बेचा जा सकता है. इसकी मोटी पत्तियों की देश की विभिन्न मंडियों में कीमत लगभग 15,000 से 25,000 रुपए प्रति टन होती है. इस हिसाब से यदि आप अपनी फसल को बेचते हैं तो आप आराम से 8 से 10 लाख रुपए कमा सकते हैं. इसके अलावा दूसरे और तीसरे साल में पत्तियां 60 टन तक हो जाती हैं. जबकि, चौथे और पांचवें साल में प्रोडक्टशन में लगभग 20 से 25 फीसदी की गिरावट आ जाती है. इस खेती पर आधारित एलुवा बनाने, जैल बनाने व सूखा पाउडर बनाने वाले उद्योगों की स्थापना की जा सकती है.

एलोवेरा को कम पानी की जरूरत होती है. इसलिए ये आसानी से उग जाते हैं. एलोवेरा के पौधों में ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है. अधिक पानी से इसकी जड़ें सड़ जाती है और पौधा मर जाता है. इसकी सिंचाई में इस बात का ध्यान रखें जब तक सतह से लगभग दो इंच नीचे तक मिट्टी सूख न जाए तब तक पानी न दें. सामान्य मौसम में सप्ताह में एक बार और सर्दियों में इससे कम पानी देना इसके लिए अच्छा रहता है.

बेकार और बंजर भूमि पर एलोवेरा की खेती की जा सकती है. इसकी खेती के लिए खाद, कीटनाशक व सिंचाई की कोई विशेष आवश्यकता भी नहीं होती है. इसे कोई जानवर इसको नहीं खाता है. अत: इसकी रखवाली की विशेष आवश्यकता नहीं होती है. यह फसल हर वर्ष पर्याप्त आमदनी देती है.

एलोवेरा की खेती के लिए भी ट्रेनिंग मिलती है. अगर आप एलोवेरा की प्रोसेसिंग यूनिट लगाना चाहते हैं तो केंद्रीय औषधीय एवं सगंध पौधा संस्थान (सीमैप) कुछ महीनों पर ट्रेनिंग करता है. इसका रजिस्ट्रेशन ऑनलाइन होता है और निर्धारित फीस के बाद ये ट्रेनिंग ली जा सकती है.