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जो औरों की तकलीफ बयां करता रहा ता उम्र, उसकी तकलीफ पर खामोश क्यूं रहा ज़माना ? – संजय सक्सेना

* किसी और ने भी कहा हो सकता है, पर मुझे तो गांधी जी वाला याद है, कि “अगर तुम्हे अपनी परेशानी दुःख मुसीबत ज्यादा लग रही हो तो, तुम किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करो जिसकी परेशानी तुम से बड़ी हो। तब तुम्हे अपनी दिक्कत छोटी लगने लगेगी और तुम निराशा हताशा के बोझ से उबर जाओगे और दूसरों की चिंता निवारण में जुट जाओगे।”परहित सरिस धर्म नही भाई…” परमार्थ और सत्य के नेत्रों से ही धर्म की साधना संभव है।
पत्रकारिता सार्वजनिक जीवन की आधारशिला है। राजनीति की प्रशिक्षक और नियंत्रक भी है। सरकार की आंख और कान है। वहीं प्रशासन की दिशा निर्देशक और स्वस्थ समालोचक है। न्यायपालिका के न्यायिक विवेक के लिए मशाल भी है और अन्याय पर प्रहारक जन आवाज भी है। साहित्य अध्यात्म के समाज हितैषी कृतित्व की प्रोत्साहक भी है और प्रयासों की उन्मुक्त सराहना से उसकी गति को विस्तार देने वाली भी है, वही किसी के भी न्याय हित/जनहित/समाज हित/धर्महित/राष्ट्र हित विरोधी दुष्प्रयास दुष्कृत्य की प्रथम आलोचक आंदोलन कारी जनआवाज़ है जो लोकतंत्र में जनता का पहला विश्वास है।

यह अलग बात है कि लालच और स्वार्थ के वशीभूत धन पिपासुओं ने राष्ट्र समाज सेवा के पवित्र संकल्प को ताक पर रख कर खुद को भोंडी व्यवसायिकता के दलदल में झोंक दिया है और पवित्र उद्देश्यों के लिए जीवन दांव पर लगाने वाले जुझारू कलम के सिपाहियों को किंकर्तव्ययविमूड हालत में ला कर खड़ा किया है, उन्हे अपने पथ से विचलित होने या पथभ्रष्ट होने को या बुराई के समक्ष समर्पण को मजबूर किया है ।और अनीति की कमाई वाले समाज विरोधियों के समक्ष विज्ञापन और अनैतिक सुविधाओं के लिए हाथ फैलाने, और अनैतिक लुटेरी राजनीति के सामने दुम हिलाने को मजबूर किया है । मगर फिर भी वास्तविक पत्रकारिता में ही कलम के जां बाज बहादुर सिपाहियों के त्याग और बलिदान का ही नतीजा है, कि पत्रकारिता आज भी लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में भी सर्वाधिक विश्वसनीय बनी हुई है।सोशल मीडिया की अनियंत्रित अराजकता और पथभ्रष्ट और पत्र करिता से अज्ञान कुछ चेनेलों ने विश्वसनीयता को बड़ा आघात पहुंचाया है। वरना प्रेस जमात की विश्वसनीयता की यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं विश्व भर के लोकतांत्रिक देशों (चाइना और पाकिस्तान छोड़कर)में है। कोई भी कही भी सत्य को स्वीकारना नही चाहता है, सवाल करने वाले दुश्मन नज़र आते हैं उन्हे। सबको पत्रकार नही केवल चाटुकार ही चाहिए। झूठी प्रशंसा से अपने कंधे उचकाने की मंशा रखने वाले लोग अगर सफल हो जाते ,तो सत्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता। अंग्रेजों से लड़ते हुए देश में केवल पत्रकारिता ही थी जो भूखे पेट रहकर जेल जाकर, बाहर आकर फिर अखबार निकाल निकाल कर जनता को जगा रही थी। कौन सा ऐसा नेता था जो पत्रकार नही था, वकील नही था? आज़ादी के बाद भी ब्लिट्ज जनसत्ता इंडियन एक्सप्रेस की विश्वसनीयता क्यों थी। इमरजेंसी में धुरंधर पत्रकार जेल में क्यों थे? चौटाला का महम कांड किसे याद नही है? मुलायम का हल्ला बोल न्यायपालिका और प्रेस के ही खिलाफ क्यों था? राजनीति जहां ” न मैं कहूं तेरी और न तू कहे मेरी ” का खेल खेल कर जनता को भरमाने के लिए फर्जी लड़ाई का नाटक कर रही थी ,वहीं पत्रकारिता जनता के लिए पक्ष और विपक्ष दौनो को कटघरे में खड़ा कर रही थी। अशिक्षा की शिकार जनता का बड़ा वर्ग भ्रमित और पद दलित था वहीं बड़े बड़े पढ़े लिखों में अधिकतम वर्ग अपने ज्ञान को दूसरों के शोषण का हथियार बनाकर ऐन कैन प्रकारेंण दुहथ्था लूट में जुटा था तो उसका विरोध भी केवल पत्रकारिता ही कर रही थी और जनता को सचेत करते हुए तलवार की धार पर चलकर मोर्चा सम्हाले हुए थी। साधनहीनता के दौर में भी पत्रकारिता भूखे पेट रहकर भी देश के लिए जो तपस्या कर रही थी, उसने देश को डूबने और समाज को लुटने से बचाने में बड़ा योगदान किया। बाद में जबसे बड़े पूंजीपतियो ने अपने व्यवसायिक हितों की रक्षा के लिए पत्रकारिता क्षेत्र में कदम रखा और जिला स्तर तक साम्राज्यवादी विस्तारवाद का प्रसार हुआ तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। जिस संपादक के ज्ञान तेवर और चारित्रिक निष्ठा की तूती बोलती थी , वो संपादक केवल यस सर वाला मुलाजिम बन कर कॉरपोरेट संस्कृति के गलियारों में दयनीय प्राणी के रूप में अपने शाब्दिक हुनर की पहचान खो बैठा। निर्लज्ज मुनाफाखोर, शोषक और अनैतिक व्यभिचारी ऑल मालिक जमात के लोग उस संपादक की कुर्सी पर विराजमान होकर असली संपादक पर हुकुम जमाने लगे। तो इन हालातों में अब कौन संपादकीय लिखने का हौसला जीवित रखे? कौन सरकार को लताड़ लगाए? कौन साहब बहादुरों की फिजूलखर्ची, आराम तलबी, कर्मचारियों से लूट वसूली और अमानवीय अपमान की बखिया उधेड़ने की जहमत उठाए। और कौन सफेदपोश अपराधियों के रूप में नेताओं की कतार में खड़े वीभत्स चेहरों का एक्सरे करने की हिम्मत जुटाए? कौन मिलावट खोरों, अत्यधिक मुनाफा खोरों , भयानक स्तर तक के कमीशन खोरों के दुष्प्रभावों से देश और समाज को आगाह करे,? कौन आंदोलन करे और करवाए ? शायद इसीलिए कोई भी अखबार उठा कर देख लीजिए शायद ही किसी में कभी संपादकीय पढ़ने का मन करे या ये लगे कि यह सचमुच संपादकीय ही है। संपादक पद का अवमूल्यन करके पूंजीशाहों ने पत्रकारिता को समाज के बजाए अपना निजी चाकर बनाने की रणनीति अपनाई। अखबार विज्ञापन मात्र के पत्र बन कर रह गए जिसमे खबर गायब और प्रचार तथा बहुरूपिए चोरों का महिमा मंडन ही परोसा जाता रहा । जिन विज्ञापन पत्रों को फ्री में बांटना चाहिए वे मंहगी कीमत पर जनता खरीद कर अपनी बेबसी का सुबूत देती रही । कॉरपोरेट जगत के लोगों ने किसी भी जिले में किसी पत्रकार को संवाददाता या ब्यूरो प्रमुख नही बनाया, किसी भी विज्ञापन क्लर्क को जिले की कमान सौंप कर पत्रकारों पर लाद दिया। सरकार और श्रम न्यायालय जेब में। जिन नौसिखियों को कमान सौंपी और वहां के प्रशिक्षित पत्रकारों पर लाद दिया वे कलेक्टर एसपी की तरह खुद को समझने लगे। जो शब्द की समझ न रखता हो पत्रकारिता का ककहरा न जानता हो। सूचना नीतियों की फिक्र जिस न हो, प्रेस परिषद के दिशा निर्देशों की समझ भी जिसे न हो ऐसे लोग भी मान्यता प्राप्त पत्रकार की श्रेणी में आ गए हैं , क्या मजाक है? अखबार भी अब रंग बिरंगे जरूर हुए हैं, किंतु विषय वस्तु ज्ञानवर्धक समाज हितैषी न रहकर बाजारू हो गई, अश्लीलता और श्लीलता का अंतर नजर आना बंद हो गया, खबरों की इज्जत घट गई। चोर भ्रष्ट अधिकारी भी अब डरता नहीं है क्योंकि वह चांदी के जूते से अखबार मालिक के किसी चमचे की सेवा करके पत्रकार को हटवाने का हुनर जानता है। सरकारों और प्रेस परिषद की लापरवाही और चुप्पी से अनापेक्षित अवांछनीय अमर्यादित और अनाचारी लोग पत्रकारिता के पवित्र पेशे में घुस कर रिश्वत और व्यभिचार की दम पर विज्ञापन वसूल कर पत्रकारिता को बदनाम कर रहे हैं, जो सरकारों की नाकामी का खुला सुबूत है और जनता के संवैधानिक अधिकारों की हत्या समान ही है। किसी भी बुराई या झूठ को अपने माथे पर चिपका कर उसका झंडा उठाने वाले लोग भी पत्रकार कहलाने लगे। डकैतों लुटेरों व्यभिचार पोष्कों वोट लुटेरों ने अपने चाटुकारों की फौज पत्रकारिता में प्रवेश करा दी और अपना गुण गान कराने लगे। चारण भाटों की तरह महिमागान प्रशस्तिगान करने वाले शब्द के अनर्थ कारी व्यापारियों ने भी खुद को पत्रकार समझना शुरू कर दिया। जनता की नज़र में ऐसे आरती उतारू लिखिया मुंशियों की इज्ज़त कभी बन ही नहीं पाई। मगर वे आर्थिक तौर पर खासे समृद्ध जरूर हो गए। इनाम इकराम भी मिल गया। सरकारी बंगले भी मिल गए। देशी विदेशी यात्राओं का जुगाड भी हो गया। मगर अनीति की राह पर अनीति के धन से उत्पन्न व्याधियों ने उनकी मति तो हर ही ली,पारिवारिक संस्कार भी नष्ट कर दिए। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा को भी तार तार कर दिया। जबकि ज़मीनी कलमकार का सम्मान और प्रतिष्ठा बेहाली में भी बदस्तूर कायम रहा। ईमान ज़मीर और चरित्र पर भी आंच नही आई। मगर यह केवल जनता के भरोसे पर भूखे पेट रहकर ही संभव हो पाया। सरकारें न्यायपालिका और समाज पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदार भूमिका निभाने में लगभग असफल रहे जिसकी कीमत वह सब आज तक चुका रहे हैं।
प्रिय संजय सक्सेना ने संकेतों में बड़ी गहरी बात कही है, वो जो सबकी खबर रखता है लिखता है, उसकी खबर कौन लिखता है, लिखे भी तो कहां लिखी जाएगी ? सबसे ज्यादा दयनीय हालत में पहुंचा दी गई है पत्रकारिता, ताकि सच्चाई दम तोड दे, जनता की आवाज कोई उठा न सके। बुराई पर प्रहार करने की हिम्मत किसी की न हो।
आज सबसे ज्यादा दयनीय हालत है उसकी,” जिसके बारे में लिखा जा सकता है और मंचों पर विमर्श जारी रखा जा सकता है कि ( कितना मुश्किल है किसी कलमकार की बीवी होना)। याद रखिए पत्रकारिता ज़िंदा रहेगी तो ही लोकतंत्र का अस्तित्व रहेगा ।
यह भी याद रखिए कि पत्रकारिता Thankless job है। किसी से उम्मीद मत पालिए। अपना धर्म निभाइए। शोषक जमात का भयानक हश्र भी देखते जाइए। लाल झंडे की पूंछ थामे संगठनों की हालत भी सबने देख ही ली। पालेकर अवार्ड, बछावत आयोग, किसे लाभ मिला? तहसील स्तर तक मान्यता क्यों नहीं आ पाई? सुविधाओं के हकदार केवल वे हैं जो राज्यों के मुख्यालयों पर पत्रकारिता की आड में वो सब कर रहे हैं जो नैतिक और कानूनी रूप से उन्हे किसी कीमत पर नहीं करना चाहिए।
पत्रकार अखबार के मुलाजिम की चिंता से जन जन को रूबरू कराने के लिए संजय सक्सेना जी को पुनः बधाई।
समाज में जो खुद को सचेतन, ज़िंदा और राष्ट्र हितैषी मानते होंगे वे ही इस बहस की तह तक पहुंच पाएंगे और आगे बढ़ाएंगे।
चिंता यह भी कीजिए कि पत्रकारिता का असल स्वरूप पुनः कैसे पुनर्स्थापित हो जो समाज की चिंता कर सके, समाज के लिए लड़ सके, समाज को बचा सके बुराई पर प्रहार के लिए समाज को जगा सके। सत्यम शिवम सुंदरम की रक्षा तभी संभव है ।जय हिंद जय भारत।