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राम मंदिर, दूसरा पक्ष

5 अगस्त को राम मंदिर का शिलान्यास हो रहा है। उत्सव का माहौल है। होना भी चाहिए। प्रतिदिन समाचार आ रहे हैं तैयारियों के। कितने दीपक, कैसे फूल, कौन मेहमान वगैरा। शिलान्यास भले ही अयोध्या में हो, समूचे देश को आह्वान होगा और उत्सव मनाया जाएगा। यह उत्सव 5 अगस्त को प्रारम्भ होकर उसी दिन समाप्त नहीं होगा। हम रोज देखेंगे अयोध्या कैसी सजी, क्या बोला गया, क्या बनने वाला है। वर्षों तक इस उत्सव का वातावरण रहेगा, रखा जाएगा। सोशल मीडिया इसे जिन्दा रखेगा। रखना भी चाहिए, यह उनकी उपलब्धि है जो राजनीति में उन्हें आगे तक ले जायेगी। देश की धर्मप्राण जनता का एक वर्ग क्यों उत्सव नहीं मनाये? पूरे आन्दोलन में वह शामिल रही, शिलापूजन से लगा कर हर घटना में उसका भी योगदान था। तब अपनी जीत का उत्सव क्यों नहीं मनाये? योगी जी ने अपने लेख में कहा 500 वर्षों के संघर्ष की परिणीति है। इस पर तो बहस हो सकती है, पर इस पीढ़ी ने 1986 -87 से तो इसे देखा ही है। कांग्रेस और शेष सारा विपक्ष भ्रम में है। क्या करना है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने एक स्पष्ट निर्णय लिया गया। हम 4 अगस्त को उत्सव मनाएंगे। आदेश जारी हुए हैं कि सभी को अपने घरों में उत्सव मनाना है। पता नहीं छोटे से छोटे निर्णय केंद्रीय स्तर पर लेने वाले दल क्या अब फेडरल पार्टी हो गया है जहां हर राज्य इकाई अपनी नीति निर्धारित करेगी।मैं सोच रहा हूं कि यह किसकी जीत है। कौन उत्सव मनाएं, जिन्होंने श्रेय लिया, लाभ लिया वे तो अग्रिम पंक्ति में हैं पर वे जिनने ताला खोला, गैर-विवादित भूमि पर शिलान्यास किया वे कहां हैं। उन्होंने तो कहा था न्यायालय के फैसले को हम मानेंगे? वही तो हुआ। जो न्यायालय को नहीं मान रहे थे और उसकी प्रतीक्षा नहीं करना चाहते थे उन्होंने भी प्रतीक्षा ही तो की। फिर सेक्युलर विचारधारा यह कह क्यों नहीं पाई। क्यों नहीं समझा पाए कि जीत तो उन शक्तियों की है जो संविधान के रास्ते से समस्या का हल ढूंढ रहे थे।जो निर्णय राजनीति नहीं कर सके उसे न्यायपालिका को सौंप रहे थे। यदि अब अयोध्या तो झांकी है, काशी मथुरा बाकी है, जैसे नारे सुनाई नहीं देते तो क्या यह इस तथ्य की स्वीकृति नहीं है कि ऐसे संघर्ष की यह सोच ही गलत थी, मंदिर नहीं लक्ष्य केवल सत्ता प्राप्त करना था? सत्ता मिल गई तो शेष छोड़ दिया। यदि एक वर्ग सोचता था कि राम के रास्ते पर चल कर, जिस पर गांधी चले, बगैर हिंसा के मंदिर बनाना चाहिए तो गलत क्या था? क्या कीमत चुकाई देश ने? गोधरा में कारसेवक, अहमदाबाद और बड़ौदा और समूचे गुजरात में अल्पसंख्यक और पता नहीं कौन-कौन शहीद हुए।

लोगों को जिन्दा जलाया। समाज की ऐसी वीभत्सता के बाद भी किसी का मन नहीं हिला। इसे अवसर बना लिया। इसे भारत-पाक के सीमायुद्ध में बदल दिया। मरने वालों का भावनात्मक शोषण हुआ, वह शहीद कहलाए। मरने वाले का परिवार भी इस शहादत पर खुश था। पार्टीशन के बाद जो वातावरण था, वही बना पर एक बड़ा फर्क था। जब सब लड़ रहे थे, और नेता आजादी का उत्सव मना रहे थे तब इन सबसे दूर नौआखाली में गांधी सत्याग्रह कर रहे थे, अनशन पर थे। उस बूढ़ी आत्मा की इतनी ताकत थी कि दोनों पक्ष आये, क्षमा मांगी, प्रेम से रहने का वचन दिया और हिंसा समाप्त हुई। इस बार हमारे पास कोई गांधी नहीं था। देश की उदार विचारधारा के लोग पता नहीं कहां खो गए थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया। वह निर्णय शायद न्यायिक मापदंडों पर खरा नहीं उतरता पर समाज को एक अवसर देना था, सद्भाव का परन्तु कट्टरपंथियों के अहंकार ने विवाद को जीवित रखा। उदारपंथियों की कमजोरी ने उसे खोया। फिर जब सुप्रीम कोर्ट ने अवसर दिया कि दोनों पक्ष आपस में सुलझा लें, मैंने लिखा था सेक्युलरिज्म ने अवसर खो दिया। बहुसंख्यक पक्ष तो उनके हाथ में था ही जो संघर्ष चाहते थे, दूसरे पक्ष का नेतृत्व भी वही लोग कर रहे थे जिनका भविष्य सामाजिक दूरियों में था। तीसरे पक्ष ने कोशिश ही नहीं की। देश ध्रुवीकरण के रास्ते आगे बढ़ गया। मुझे भारतीय जनता पार्टी और हिन्दू संगठनों के नेताओं से कोई शिकायत नहीं। अंग्रेजी में कहावत है। नथिंग सक्सीड्स लाइक सक्सेस। सफलता जैसी कोई चीज नहीं। वे जिस रास्ते चले थे उन्होंने अपने को सही साबित कर लिया। लक्ष्य प्राप्त कर लिया। शिकायत उनसे है जिनको सामाजिक सद्भाव विरासत में मिला था। विभाजन से पैदा हुई कटुता और हिंसा से बंटे समाज को जोड़ पाने का इतिहास मिला था। उन्हें जवाबदारी मिली थी सत्ता रहे न रहे यह जज्बा रहना चाहिए। उन्होंने चुनौती स्वीकार ही नहीं की। उन्हें क्यों स्वीकार नहीं करना चाहिए कि जिस तरह भाजपा का लक्ष्य राम मंदिर के नाम पर सत्ता हासिल करना था, सेक्युलर नेताओं को भी वही समझाया गया। ताला खोलने और शिलान्यास से वही हासिल करने की सोच में गलती थी। यदि यह सही था तो दूसरे पक्ष से बात कर लेते, उसे विश्वास में लेने का प्रयास हो सकता था। 1989 का चुनाव हारते ही हम क्यों भूल गए? क्या भाजपा की तरह हमारी प्रतिबद्धता भी मात्र चुनाव हो गई थी।

फर्क यह था कि आडवाणी जी ने इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सैद्धांतिक दुशाला ओढ़ाया? हम भूल गए सामाजिक सद्भाव भाजपा के धु्रवीकरण की तरह चुनावी अस्त्र नहीं हमारी जवाबदारी है। जो नेतृत्व पहले धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कुछ वर्गों को साधकर चुनावी अंक गणित बैठाता रहा वही नेतृत्व अब सॉफ्ट हिंदुत्व के नाम पर वही लक्ष्य साध रहा था। भाजपा के तुष्टिकरण के आरोप को विश्वसनीय बनाने में सेक्युलर नेतृत्व के इस वर्ग का आचरण का भी अपना योगदान भी कम नहीं था। सरयू में कितना पानी बह चुका है, इसका उन्हें अंदाजा नहीं है।चुनावी हार के साथ इस वर्ग ने अपना आत्मविश्वास खोया, छोटे लक्ष्य साधे, अपने हितों को ऊपर रखा, नए रास्ते ढूंढे। कीमत वे निर्देशक सिद्धांत चुका रहे हैं जिन्हें संविधान में हमारे ही पूर्वजों ने स्थान दिया था। उन्होंने साध्य को साधनों से अधिक महत्वपूर्ण बना लिया। साध्य के चक्कर में हमने सब खो दिया सत्ता भी और वह शानदार विरासत भी।योगी जी ने 500 वर्षों के संघर्ष का उल्लेख किया है। असली लक्ष्य अगले 50 वर्ष है। प्रश्न इस बात का नहीं कौन सत्ता में रहता है। पर भविष्य के लिए देश का राजनैतिक अजेंडा निर्धारित हो रहा है। वह दिशा तय कर रहा है जिसमें आने वाले वर्षों में देश बढऩे वाला है। मुझे समझ नहीं आ रहा टकराव के इस रास्ते पर चलते देश में तब सॉफ्ट हिंदुत्व के रास्ते जाने वाला विपक्ष कहां होगा और क्या कर रहा होगा? जब साधारण कार्यकर्ता को विचारधारा से हटा कर राजनैतिक हितों से जोड़ेंगे तब उसे शहद कहां दिखेगा। ट्रेलर तो हम इन दिनों देख ही रहे हैं। आम आदमी हिंदुत्व की भी टीम को क्यों पसंद करे। तब इस टकराव से पीडि़त लोग क्या करेंगे। क्या यह केवल एक वर्ग तक ही रुकेगा जिसका अनुमान मेरे बिना कहे सब लगा लेंगे या साम्प्रदायिकता और विस्तार करेगी जैसा पाकिस्तान जैसे दूसरे साम्प्रदायिक देशों में हुआ।

मंदिर बनना तय है। मस्जिद की जमीन भी मिल गई। वह भी बन ही जायेगी, क्या मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अजान में कोई सुर बैठेगा? क्या राम मंदिर में होने वाली आरती का संगीत यह बताएगा कि राम को क्यों मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया। क्या देश की राजनीति उन मर्यादाओं से सबक लेगी। क्या दोनों पक्ष अपनी गलतियों का आकलन करेंगे। क्या दोनों पक्ष जान देने वाले लोगों की मौत को शहादत नहीं बताते हुए , मानेंगे कि वे ही उन मौतों के लिए जवाबदार है? क्या वे स्वीकार करेंगे कि यह सामाजिक कट्टरपंथ ही है जिसने गोधरा और अहमदाबाद करवा दिए। क्या देश यहां से पीछे लौटेगा? क्या देश मानेगा कि गांधी, नेहरू को भूल भी जाए तो हमारे समय में अटलजी का कश्मीर में दिये नारे इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत में केवल कश्मीरियत के स्थान पर हिन्दुस्तानियत लिख कर ही देश आगे चल सकेगा। जो उनकी बात को काश्मीर में नहीं मान रहे, क्या वे देश के लिए मानेंगे।मर्यादा पुरुषोत्तम तो अपनी पत्नी के अनैतिक अपहरण को छुड़ाने की लड़ाई में भी साध्य से अधिक साधनों को महत्व दे रहे थे। उनकी तो पत्नी थी जिसने उनके लिए सबकुछ त्यागा था। वे सत्ता की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। उन्होंने तो मूल्यों के लिए सत्ता त्यागी थी। अब सत्ता के लिए मूल्य क्यों त्याग रहे हैं। हम कुर्सी के लिए तो साधनों की पवित्रता को स्वीकार कर सकेंगे? क्या देश समझेगा कि मंदिर की लड़ाई किसी मुकाम पर पहुंच गई है पर देश की मन्जिल तो बहुत दूर है। क्या हम समझेंगे कि गरीबी के साथ-साथ चीन और पाकिस्तान जैसे देशों के सामूहिक खतरे का सामना केवल आर्थिक रूप से मजबूत मुल्क ही कर सकता है। इसके लिए आवश्यक होगा कि हम दिशा सही रखें। मुद्दे सही रखे। दिल और दिमाग के विभाजन से चुनाव जीते जा सकते हैं, देश को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। हम समझें कि सत्ता में आते रहना ही राजनैतिक दलों का लक्ष्य नहीं हो सकता है।नेहरू को कितना भी खलनायक बनाएं, समझें कि गांधी के बाद जनता को मुद्दे और विकास की सही अवधारणा को समझाने का काम उन्होंने किया। देश को सही दिशा दी। अब फिर उसी जनता को समझाने का काम कौन करेगा कि उसे भी अपनी प्राथममिकताएं बदलनी होगी। उसे भी समझाना होगा कि हमने आजादी भी मिल कर ली थी और आर्थिक शक्ति भी मिलकर ही बन पाएंगे। उस अहंकार और नफरत से नहीं जो पिछले वर्षों दोनों सम्प्रदाय पालते रहे हैं। राजनीति अपना आचरण सही करे यह जवाबदारी जनता की ही है। राम मंदिर लक्ष्य नहीं पड़ाव है, अंतिम मंजिल तो वह राम राज्य ही है जहां वसुधैव कुटुंबकम और सर्वे भवन्तु सुखिन: की कल्पना साकार होती हो।