Breaking News

तरकश के लिए नए तीर की तलाश में विपक्ष !!

उत्तराखंड में चुनावी गतिविधियां जोर पकड़ रही हैं। सत्ताधारी दल व प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस अपनी-अपनी चुनावी रणनीति को अंतिम रूप देने में जुटे हैं। राज्य के चुनावी मैदान में आम आदमी पार्टी (आप) के नए चुनावी खिलाड़ी भी अपनी जगह बनाने को सक्रिय हैं। इस राजनीतिक समर में सत्ताधारी दल भाजपा, चुनाव से पहले ही विपक्ष के निशस्त्रीकरण की नीति पर चल रही है। यही वजह है कि एक माह पहले नितांत आक्रामक मुद्रा में दिख रही कांग्रेस अब मुद्दों की तलाश व उनके प्रभाव का आकलन कर रही है। विपक्ष के तरकश में मौजूद कृषि कानून, देवस्थानम बोर्ड, विकास, कर्मचारी यूनियनें जैसे तीर या तो खो गए हैं या फिर मारक क्षमता खोते दिख रहे हैं। कांग्रेसी व आप के रणनीतिकार चुनावी समर से ठीक पहले भाजपा की निशस्त्रीकरण की नीति की काट खोज रहे हैं। साथ ही चुनाव मैदान में उतरने से पहले तरकश में नए तीर रखने का प्रयास कर रहे हैं।

प्रदेश कांग्रेस को केंद्र के तीन कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे किसानों के आंदोलन पर काफी भरोसा था। हालांकि प्रदेश में ज्यादातर जिलों में काश्तकारों को इस आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर के किसान इस आंदोलन में काफी हद तक सक्रिय थे और इस पर कांग्रेस तथा आप के रणनीतिकारों को इसकी चुनावी परिणति पर काफी भरोसा भी था। एक अनुमान के अनुसार विपक्ष इस बूते इन जिलों की करीब 16 विधानसभा सीटें साधने के मंसूबे संजो रहा था। ऊधमसिंह नगर में तो उसे सिख वोट भी इस बार अपने खाते में आते दिख रहे थे। आम आदमी पार्टी भी किसानों की केंद्र की भाजपा सरकार से नाराजगी के उत्तराखंड में कुछ अच्छे परिणाम मिलने की उम्मीद लगाए हुए थी। केंद्र द्वारा तीनों कानूनों की वापसी के बाद इस मुद्दे की मारक क्षमता विपक्षी कैंप में भी संदिग्ध हो गई है। हालांकि मुद्दे को जिंदा रखने के प्रयासों के तहत किसान प्रभाव वाले क्षेत्रों में विपक्षी दलों की अब भी सक्रियता देखी जा सकती है, लेकिन इस तरह की कोशिशें कोई परिणाम देंगी, इस पर विपक्ष के रणनीतिकारों को भी भरोसा नहीं है।                                                                                    इसके अतिरिक्त देवस्थानम बोर्ड के गठन को लेकर चारधाम के पंडा-पुरोहितों के आंदोलन से भी विपक्ष काफी उम्मीदें लगाए बैठा था। पंडा-पुरोहित समाज के असंतोष को पहाड़ के ब्राह्मणों के असंतोष के रूप में परिभाषित व स्थापित करने की कोशिशें भी विपक्ष के शिविरों से की गई। प्रदेश सरकार ने कैबिनेट की बैठक में बोर्ड को समाप्त करने का निर्णय ले लिया है। नौ दिसंबर को शुरू होने जा रहे सत्र में इसकी विधिवत वापसी हो जाएगी। विपक्ष के तरकश में पूरी शक्ति के साथ रखे गए इस तीर को भी भाजपा यूं ही निकालने में सफल हो गई है। प्रशासनिक नजरिये से इस निर्णय पर दो राय हो सकती है, लेकिन राजनीतिक धरातल पर भाजपा का विपक्ष पर दमदार रणनीतिक वार ही समझा जा रहा है। विपक्ष भले इसका श्रेय उनके द्वारा सरकार पर बनाए गए दबाव को दे रहा है, लेकिन आगामी चुनाव में यह मुद्दा नहीं रहेगा इस बात से वे निराश भी हैं। विकास हर बार चुनाव में बड़ा मुद्दा रहता है।         

                                         प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की देहरादून में चार दिन पहले ही हुई रैली में विकास को लेकर विपक्ष को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। भाजपा की केंद्र और प्रदेश सरकार के विकास कार्यो को तथ्यों व आंकड़ों के साथ जनता के सामने रखा। इतना ही नहीं, उन्होंने कांग्रेस के शासनकाल में हुए विकास कार्यो का तुलनात्मक आंकड़ा रखते हुए विपक्ष का ललकारा। उन्होंने 18 हजार करोड़ की परियोजनाओं का शिलान्यास व लोकार्पण कर विपक्ष के सामने लंबी रेखा खींच दी। साथ ही स्पष्ट किया कि वर्ष 2004 से 2014 तक केंद्र में रही कांग्रेस की सरकार ने उत्तराखंड में केवल 288 किमी नेशनल हाईवे बनाए, जबकि वर्ष 2014 में केंद्र में बनी भाजपा की सरकार ने सात साल में ही दो हजार किमी नेशनल हाईवे का निर्माण कर दिया। पूर्ववर्ती सरकार ने सात साल में प्रदेश में सड़कों पर छह सौ करोड़ रुपये खर्च किए, जबकि भाजपा सरकार ने 12 हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए। अब इस तरह की तुलना के बाद विकास के मुद्दे पर भाजपा सरकार पर हमला करना जोखिम भरा लग रहा है। मोदी की रैली से उत्साहित भाजपाइयों का मानना है कि पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री ने जो घोषणाएं की थीं, उनके परिणाम जनता ने धरातल पर देखे हैं। इसलिए इस बार की जा रही घोषणाओं पर भी जनता पूर्ण विश्वास करेगी।                                                                                                                                                         चुनाव से ठीक पहले उत्तराखंड में विभिन्न कर्मचारी संघों द्वारा आंदोलन कर अपनी मांग मनवाने के लिए दबाव बनाने की परंपरा रही है। इस बार भी कई यूनियनों के बैनर तले इस तरह के धरने, प्रदर्शन, रैलियां देखी गईं। इन आंदोलनों में कांग्रेस प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से हिस्सा लेती रही है। ऐन चुनाव के समय राज्य में सबसे बड़े दबाव समूह का आंदोलित होना विपक्ष को खूब सुहाया, जबकि सत्ताधारी दल को डराता रहा। इस बीच सरकार ने विभिन्न संगठनों से संवाद का रास्ता अपनाया है। कई मांगों पर सकारात्मक निर्णय ले लिया गया और कई पर सहमति बनती दिख रही है। भाजपा सरकार का यह रवैया भी विपक्ष के लिए एक चुनौती ही बन रहा है। कांग्रेस अब अपने चुनावी मुद्दों का अभी से सार्वजनिक प्रदर्शन करने के बजाय उपयुक्त स्थान व समय पर उपयुक्त अस्त्र का उपयोग करने की रणनीति पर चल रही है। स्थान व समय के अनुकूल बन रही रणनीति से पार पाना भाजपा के लिए भी कड़ी चुनौती बनने जा रही है।