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टैगोर बनने का रास्ता भी गांधी मार्ग से ही गुजरेगा

सोशल मीडिया ने सभी को एक लोकतांत्रिक मंच प्रदान किया है जो इतना विशाल और खुला है कि दुनिया भर के घटनाक्रम, विचार और व्यक्तित्व विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त हो रहे हैं। इसमें स्वस्थ आलोचना है तो फूहड़पन भी, प्रेम है तो नफरत भी और गांभीर्य है तो हास-परिहास भी। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी की भी सोशल मीडिया पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह की अनेकानेक छवियां हैं। चूंकि उनकी छवि और कद के निर्माण में परम्परागत मीडिया के साथ सोशल मीडिया का भी भरपूर योगदान है, अकसर वे विविध रूपों में और विविध विषयों को लेकर सोशल मीडिया में बने रहते हैं। उन पर लेखों, टिप्पणियों और उनके विचारों व कृत्यों को लेकर मोदी समर्थक और विरोधी अपने-अपने तरीके से उनकी छवि बनाने या बिगाडऩे में लगे रहते हैं।

मीम, फोटोशॉप या डॉक्टर्ड वीडियो जैसे तरीके इस युद्ध को और भी विस्तृत तथा विद्रूप बना रहे हैं। फिर भी, इन्हीं विचारों के बीच अनेक ऐसे वैचारिक बिन्दु भी मिलते हैं जो मोदी के माध्यम से देश की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों के साथ सांस्कृतिक मसलों पर भी वाद-विवाद के अवसर प्रदान करते हैं। इस श्रृंखला में ताजा उदाहरण है लॉकडाउन के दौरान मोदीजी की बढ़ी हुई दाढ़ी-मूंछों के कारण लोगों ने यह शिगूफा छोड़ दिया है कि वे 2021 के प्रारंभिक महीनों में (संभवतरू मार्च-अप्रैल) पश्चिम बंगाल विधानसभा के होने जा रहे चुनावों के मद्देनजर नोबल पुरस्कार विजेता एवं कविवर कहलाए जाने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर की तरह स्वयं को प्रस्तुत करने जा रहे हैं।

यह कल्पना अपने आप में बेहद हास्यास्पद तो है, लेकिन यह एक ऐसा अवसर है जब हम इन दोनों महानुभावों के बीच सादृश्यता और विलोम के मुद्दों पर चर्चा कर सकें। यह सच है कि 2013 में प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में उनका उद्भव होने से लेकर अब तक अनेकानेक छोटे-बड़े व्यक्तियों के साथ उनकी तुलना करने वाले विचार और रेखांकन प्रस्तुत हुए हैं, जिनकी लम्बी सूची हैय परंतु टैगोर के समकक्ष उन्हें बिठाने का मजाकिया लहजा पहली बार ही जनता की ओर से पेश हुआ है। इसलिए कुछ मुद्दों को लेकर मोदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार कर लेना समीचीन होगा। संक्षेप में, अगर बढ़ती दाढ़ी-मूंछों के कारण और फोटोशॉप तकनीक के सहारे के कारण उनका आंशिक रूप अगर कविवर की तरह का दिखने लगा है तो यही एकमात्र समानता आप दोनों के बीच पाएंगे।

महात्मा गांधी के प्रति दोनों के विचार और रवैये शायद मोदी और टैगोर के बीच की तुलना का सबसे बड़ा बिन्दु होगा। अनेक आलोचनाओं के बाद भी टैगोर और गांधी के संबंध एक-दूसरे के प्रति बेहद सम्मानजनक और आत्मीय थे, जबकि मोदी के विचार गांधी को लेकर चाहे उच्चारित तो सकारात्मक हुए हों परंतु यह खुला सत्य है कि उनकी सम्पूर्ण विचार-प्रक्रिया और कृतित्व गांधी मूल्यों के सर्वथा विपरीत है। वे जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह गांधी के प्रति तीव्र घृणा और निषेध के स्तम्भों पर ही टिका है, जो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद से मजबूती प्राप्त कर रहा है। इसकी पुष्टि सोशल मीडिया के किसी भी वॉल पर जाकर हो रही राजनैतिक-सामाजिक बहसों से की जा सकती है। टैगोर जहां एक ओर बंगाल की आत्मा थे तो वे समग्र भारत की समृद्ध वैचारिक परम्परा, आधुनिकता-बोध, मेधा और चेतना के सशक्त प्रतिनिधि थे। भारत की उदार संस्कृति के संवाहक टैगोर सच्चे मायनों में विश्व नागरिक थे।

उनके मुकाबले में मजाक में ही सही, जिन मोदी को लोग खड़ा कर रहे हैं वे उतने ही मेधा शून्य, चेतनाहीन और संकीर्ण हैं। विश्व नागरिकता का दर्शन ही टैगोर को गांधी का मुरीद बनाता है, तो वहीं मोदी की वैचारिक संकीर्णता और जड़ता उन्हें विश्व से काटकर कभी कुनबापरस्ती तो कभी सम्प्रदायवाद कभी प्रांतीयता तो कभी जातियता के चौखटे में विचार व विचरण करने और संकुचित राजनीति में व्यस्त रखती है। अगर टैगोर और गांधी के अंतर्संबंधों पर विचार करें तो बेहद आश्चर्य होता है कि वे गांधी के असहयोग, सविनय अवज्ञा, चरखा, विदेशी वस्त्रों की होली जैसे आंदोलनों के खिलाफ थे और बाकायदे इनके विरूद्ध वे लिखा करते थे। अपने समाचार पत्र श्यंग इंडियाश् के जरिए गांधी जी गुरुदेव के आरोपों का प्रत्युत्तर देते थे। इसके बावजूद गांधी ने शांति निकेतन में उनसे दो बार मुलाकातें की। एक बार तो जब वे गंभीर बीमार पड़ थे तो गांधी जी उन्हें देखने गए थे। रवीन्द्रनाथ हर 10 मार्च को शांति निकेतन में गांधी दिवस मनाते थे क्योंकि उसी दौरान पहली बार 1915 में (5 मार्च को) गांधीजी वहां पधारे थे। शांति निकेतन के छात्र-छात्राएं हर 2 अक्टूबर को गांधीजी का जन्मदिन भी गुरुदेव के मार्गदर्शन में मनाया करते थे। गांधीजी को भारत बुलाने के लिए रवीन्द्रनाथ और गोपालकृष्ण गोखले ने कांग्रेस नेता जेएफ एन्ड्रूज को दक्षिण अफ्रीका भेजा था। बापू को महात्मा का विशेषण भी उन्हीं का दिया हुआ है।

आलोचना के उच्चतम स्तर के बाद भी दोनों के बीच गहन आत्मीयता और सम्मान का मंजर बेहद सुखद था जो भारत की राजनैतिक परम्परा में उन्हीं की देन है लेकिन मोदी केकार्यकाल में उसकी पराकाष्ठा विपक्षविहीन भारत की कल्पना में जाकर होती है, जो उतना ही दुखद है। जिन गुणों को लेकर टैगोर जैसा व्यक्ति गांधी की रूहानी व नैतिक शरण में चला जाता है उनमें प्रमुख है, गांधी का मानवीय दृष्टिकोण। श्महात्मा गांधीश् शीर्षक से प्रकाशित प्रसिद्ध निबंध में रवीन्द्रनाथ लिखते हैं- श्राजनीति में अनेक पाप और दोष होते हैं लेकिन उनमें से सबसे बड़ा दोष है स्वार्थपरकता। हो सकता है कि राष्ट्रीय स्वार्थ व्यक्तिगत स्वार्थ से बहुत बड़ा हो, फिर भी है तो वह भी स्वार्थ। इसलिए वह भी कीचड़ से अलिप्त नहीं है। पॉलिटिशियन लोगों की एक अलग जाति होती है। उनका आदर्श मानव के महान आदर्श से मेल नहीं खाता। वे बड़े से बड़ा झूठ बोल सकते हैं। वे इतने निष्ठुर होते हैं कि अपने देश को स्वातंत्र्र्य दिलाने के बहाने से दूसरे देशों पर अधिकार जमाने का लोभ उनसे छोड़ा नहीं जाता। गुरुदेव ने यह भी लिखा है- श्हमारे बीच भी असत्य का पदार्पण हुआ है।

पॉलिटिशियन लोगों ने गुटबन्दी का विष फैलाया है। इस पॉलिटिक्स से निकला हुआ दलबन्दी का विष छात्रों में भी प्रवेश कर चुका है। पॉलिटिशियन लोग अत्यन्त व्यावहारिक होते हैं। वे सोचते हैं कि अपना कार्य सम्पन्न करने के लिए मिथ्या का अवलंबन करना जरूरी है। पॉलिटिशियन लोगों की चतुराई के लिए हम उनकी प्रशंसा कर सकते हैं, लेकिन भक्ति नहीं कर सकते। भक्ति तो हम कर सकते हैं महात्मा गांधी की, जिनकी साधना सत्य की साधना है। मिथ्या के साथ समझौता करके उन्होंने सत्य की सार्वभौम धर्मनीति को अस्वीकार नहीं किया। भारत की युग साधना के लिए यह परम सौभाग्य का विषय है। वे आगे लिखते हैं-महात्मा जी ने नम्र अहिंसा-नीति ग्रहण की है और चारों ओर उसकी विजय हो रही है। उन्होंने अपने समस्त जीवन द्वारा जिस नीति को प्रमाणित किया है उसे हमें स्वीकार करना ही होगा, चाहे हम उस पर पूरी तरह न चल सकें।

गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद देश के स्वतंत्रता आंदोलन का एक नया दौर तो प्रारंभ हुआ ही था, इस आजादी की लड़ाई ने भारत के सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन की दिशा भी निर्धारित कर दी थी। 1915 से 1920 तक गांधी जी ने भारत की तासीर और आवश्यकताओं का समग्र ज्ञान प्राप्त करने के बाद देश की स्वतंत्रता के साथ परवर्ती विकास की योजना को साकार करने की तैयारियां भी अपने विविध उपक्रमों से प्रारंभ कर दी थीं। उन्होंने सिर्फ एक महाद्वीपीय उपखंड को आजादी दिलाने के सीमित लक्ष्य से बाहर निकलकर समग्र मानव की मुक्ति की बात कही थी। उनमें और टैगोर में जहां विश्व बिरादरी का एक सामान्य नागरिक बनकर रहने की आकांक्षा थी, वहीं मोदी विश्व विजय की हसरतें पालते हैं। गांधी के विश्व में शांति व सुख है, आत्मनिर्भरता व सौहाद्र्र है, सादगी व विनम्रता हैय तो मोदी का रास्ता अशांति तथा अधिकांश के लिए कष्टप्रद, परावलम्बन व टकराव और चकाचौंध व धौंसबाजी से होकर गुजरता है। मोदी के टैगोर बनने की इच्छा को (अगर वाकई है तो) एकदम से इसलिये खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि स्वयं पीएम अलग-अलग परिस्थितियों और अवसरों पर भिन्न-भिन्न अवतार लेते रहते हैं। सो, हम आश्चर्य नहीं कर सकते कि वे रवींद्रनाथ टैगोर भी बनना चाहते हैं। देश को राष्ट्रगान देने वाला भारत का सबसे बड़ा मानवधर्मी साहित्यकार भी अपनी रचनाधर्मिता व मनुष्यता की सम्पूर्णता गांधी में ही प्राप्त करता है। मोदी को भी टैगोर बनने के लिये वही मार्ग अपनाना होगा।