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अखिलेश - मायावती
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नीतीश की चाल को PM मोदी जैसा दांव क्यों कहा जा रहा ,अलर्ट रहें अखिलेश – मायावती

2014 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले जब नरेंद्र मोदी के लिए उत्तर प्रदेश में राजनैतिक जमीन देखी जा रही थी, तो कयास लगाए जा रहे थे कि मोदी आखिर चुनाव कहां से लड़ेंगे। चर्चाएं लखनऊ, अयोध्या, कानपुर, काशी और मथुरा की भी थीं। मोदी ने जब बनारस को अपना चुनाव क्षेत्र चुना, तो सिर्फ बनारस ही नहीं बल्कि पूर्वांचल के तमाम जिलों के साथ बिहार का बड़ा इलाका राजनैतिक रूप से सध गया। ठीक आठ साल बाद मोदी के पैटर्न पर ही नीतीश कुमार के लिए उत्तर प्रदेश में जमीन तलाशी जा रही है। जातिगत समीकरणों के आधार पर कई लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की चर्चाएं शुरू हो रही हैं। राजनीतिक गलियारों में नीतीश कुमार के लिए तलाशी जा रही जमीन को “मोदी दांव” कहां जा रहा है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अखिलेश यादव और नीतीश कुमार की जुगलबंदी पर सपा सुप्रीमो को मायावती के साथ हुए चुनावी गठबंधन के परिणामों की नसीहत हर चुनावी फैसले पर अलर्ट करती रहेगी।

जेडीयू भी बिहार से लगते हुए जिलों की राजनीति में एंट्री करके उत्तर प्रदेश को साधने की कोशिश कर रहा

दरअसल, नीतीश कुमार के उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने और राजनीतिक जमीन तलाशने की चर्चा पिछले सप्ताह से तब सबसे ज्यादा चर्चा में आई, जब लखनऊ की सड़कों पर नीतीश कुमार और अखिलेश यादव के संयुक्त पोस्टर और होर्डिंग लग गए। राजनीतिक विश्लेषक जीडी शुक्ला कहते हैं कि यह दोनों पार्टियों और दोनों नेताओं की सहमति से था या नहीं, यह तो राजनीतिक पार्टियां ही बता पाएंगे, लेकिन इन पोस्टरों के साथ राजनीतिक समीकरण जरूर साधे जाने लगे। शुक्ला कहते हैं कि दरअसल दरअसल जातिगत समीकरणों के आधार पर इस बार नीतीश कुमार और अखिलेश यादव की पार्टी को साथ लाने का यह एक प्रयास दिख रहा है।

शुक्ला कहते हैं कि दरअसल जिस तरीके से 2014 में नरेंद्र मोदी के लिए तलाशी जाने वाली जमीन से बड़ा राजनैतिक समीकरण साधा था, ठीक उसी तरीके से जेडीयू भी बिहार से लगते हुए जिलों की राजनीति में एंट्री करके उत्तर प्रदेश को साधने की कोशिश कर रहा है। जानकारों का मानना है कि जातिगत समीकरणों के लिहाज से यह कुछ हद तक राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहतर हो सकता है, लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं है, जितना बताया जा रहा है। एक तरीके से इसको राजनैतिक समीकरणों के लिहाज से नीतीश कुमार का “मोदी दांव” ने कहा जा सकता है।

राजनीतिक विश्लेषक ओपी मिश्रा कहते हैं कि जिस फूलपुर लोकसभा सीट पर नीतीश कुमार की दावेदारी की बात की जा रही है, दरअसल वह लोकसभा सीट ऐसी रही है, जिस पर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बजाय बहुत लंबे समय तक किसी अधिपत्य में नहीं रही। इस सीट समय आसपास की सीटों पर पर कांग्रेस, जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, और समाजवादी पार्टी समेत सभी पार्टियों का प्रतिनिधित्व भी रहा है।

मायावती
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इस सीट पर किसी का स्थाई रूप से अधिपत्य नहीं रहा – ओपी मिश्रा

ओपी मिश्रा कहते हैं कि दरअसल इस सीट पर किसी का स्थाई रूप से अधिपत्य नहीं रहा, इसलिए नए समीकरण में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को सेट करने की एक कोशिश की जा रही है। मिश्रा कहते हैं कि जातिगत समीकरणों के लिहाज से अगर आप फूलपुर को देखेंगे, तो इसी पर सबसे बड़ी आबादी दलितों की है। तकरीबन 19 फीसदी दलित इस क्षेत्र में वोटर है।

उसके बाद दूसरे नंबर पर कुर्मी वोटर हैं। तकरीबन साढे 13 फीसदी वोट बैंक के साथ उनका दूसरा नंबर आता है। करीब 13 फीसदी मुस्लिम वोटर भी फूलपुर लोकसभा संसद क्षेत्र में आते हैं। जबकि इसी लोकसभा क्षेत्र में तकरीबन साढ़े ग्यारह फीसदी ब्राम्हण वोटर है। वैश्य कायस्थ राजपूत और भूमिहार को मिलाकर इस लोकसभा सीट पर तकरीबन 15 फीसदी वोट बैंक इन जातियों का भी है।

राजनीतिक विश्लेषक और पूर्वांचल की राजनीति को करीब से समझने वाले चंद्रदेव सिंह कहते हैं कि अगर अखिलेश यादव के साथ नितीश कुमार का चुनावी गठबंधन होता है तो जातिगत समीकरणों के लिहाज से सिर्फ फूलपुर के माध्यम से पूर्वांचल का एक बड़ा तबका साधा जा सकता है। जो कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिहाज से महत्वपूर्ण हो सकता है। हालांकि, किस राजनीतिक दल का किसके साथ गठबंधन होगा, यह आने वाले दिनों में ही पता चल पाएगा।

इस पूरे मामले में जेडीयू से जुड़े एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि संभावना तो निश्चित तौर पर उत्तर प्रदेश से तलाशी जा रही हैं। इसकी वजह बताते हुए उक्त जदयू के वरिष्ठ नेता कहते हैं कि जब नरेंद्र मोदी के बनारस में चुनाव लड़ने से बिहार तक का चुनावी गणित साधा जा सकता है तो नीतीश कुमार के उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ कर ऐसा संभव क्यों नहीं हो सकता है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि जातिगत समीकरण और बिहार से लगते हुए उत्तर प्रदेश के इलाके में जेडीयू बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। हालांकि इसके लिए उनको उत्तर प्रदेश की बड़ी राजनीतिक पार्टी के साथ गठबंधन तो करना ही पड़ेगा।

भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों के जीतने के कहीं आसार नजर नहीं आते थे

जटाशंकर कहते हैं कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के वोट बैंक को जब जोड़ा जाता था, तो भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसी पार्टियों के जीतने के कहीं आसार नजर नहीं आते थे, लेकिन जब परिणाम आए तो पता चला कि देश की राजनीति में सबसे बड़े जातिगत समीकरणों को साधने वाले चुनावी समझौते का बहुत बुरा हश्र हुआ था। इसीलिए राजनीतिक गलियारों में अखिलेश यादव और नीतीश कुमार यादव को साथ लेकर चलने वाले राजनैतिक गठबंधन को महज एक कयास ही कहा जा सकता है,

जब तक कि दोनों राजनीतिक दल पूरी तरीके से आपसी सामंजस्य के साथ चुनावी साझेदारी की घोषणा नहीं करते। हालांकि, इस तमाम राजनैतिक गुणा गणित कुछ अन्य राजनीतिक विश्लेषकों का अपना अलग मत है। राजनीतिक विश्लेषक जटाशंकर सिंह कहते हैं कि अखिलेश यादव के साथ नीतीश कुमार की चुनावी यात्रा थोड़ी मुश्किल है। इसकी वजह बताते हुए सिंह का कहना है कि पिछले लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने बसपा के साथ गठबंधन किया था और उसके जो परिणाम आए थे उनके लिए एक सीख जैसा ही है।