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(Japan )
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जापान (Japan )ने अमेरिका का पर्ल हार्बर तबाह कर दिया था.

आज अमेरिका का पूरी दुनिया पर असर कम नहीं है. शीतयुद्ध खत्म होने के बाद से दुनिया में अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा है, लेकिन पिछले 30 सालों में अमेरिका अपनी सुरक्षा को लेकर उतना ही संवेदनशील दिखाई देता है जितना कि वह शीत युद्ध के दौरान दिखाई देता था. चाहे आतंकवाद को लेकर खाड़ी युद्ध से लेकर अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की उपस्थिति की मामला हो या फिर रूस यूक्रेन युद्ध में नाटो की भूमिका, हर बार अमेरिका के रवैए में उसकी कुछ ज्यादा ही संवेदनशीलता दिखाई दी है. इसकी शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 7 दिसंबर 1941 को जापान (Japan ) के पर्ल हार्बर हमले से हुई थी.

पहले नहीं थी अमेरिका की ऐसी संवेदनशीलता
इस हमले से पहले दोनों ही विश्व युद्ध में अमेरिका अपनी ओर से दुनिया के मामलों में कम ही दखल देता दिखाई देता था. वह भी अन्य देशों की तरह अपनी समस्याओं की बेहतर करने में लगा रहता था और उसकी अपनी आंतरिक राजनीति में भी विदेश नीति का इतना दखल नहीं था जितना की आज है. 7 दिसंबर 1941 को द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो चुके दो साल हो चुके थे. तब तक अमेरिका तटस्थ संधियों से बंधा था और अमेरिका की सरकार और लोगों तक इस बात पर एक मत नहीं बन पा रहा था कि अमेरिका को इस युद्ध में शामिल होना चाहिए या नहीं.

जापान और सहयोगियों की बढ़ती ताकत
इस युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान मिलकर युद्ध लड़ रहे थे और यूरोप और एशिया के बाकी देश उनके खिलाफ थे. एशिया में तो जापान ने भारत तक पहुंचने का प्रयास कर चीन पूर्वी, दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों पर कब्जा करने शुरू कर दिया था. जर्मनी यूरोप के अधिकांश देशों पर कब्जा जमा चुका था. ब्रिटेन और रूस जर्मनी से जूझ रहे थे. लेकिन इस बीच जापान ने एक बड़ी गलती कर दी जिससे युद्ध और इतिहास तक का रुख पलट गया.

क्या थी वह गलती
7 दिसंबर 1941 को जापान ने अमेरिका के हवाई द्वीपों में से एक होनोलुलू द्वीप पर स्थित पर्ल बंदरगाह पर हमला कर उसे बरबाद कर बड़ी गलती कर दी. हालाकि इसका मकसद अमेरिका अमेरिका की पूर्वी एशिया में गतिविधियों को रोकना था जिससे अमेरिका ब्रिटेन, नीदरलैंड के उपनिवेशों में मदद ना मिल सके, लेकिन इससे अमेरिका को प्रत्यक्ष रूप से युद्ध में उतरना पड़ा था जो युद्ध के लिए बाद में निर्णायक होने में एक प्रमुख कारक बना.
हमले के असर
इस हमले में अमेरिका के आठ युद्ध पोतों में से चार डूब गए और चार को भारी नुकसान हुआ. इसके अलावा 188 अमेरिकी वायुयान तबाह हुए और 2400 से ज्यादा अमेरिकी मारे गए. अमेरिका के युद्ध में शामिल होने से ब्रिटेन को बहुत मदद मिली और वह जर्मनी के मुकाबले बेहतर होता गया. लेकिन इस हमले ने अमेरिका को अपनी सुरक्षा के प्रति बहुत ही ज्यादा संवेदनशील बना दिया. यहां तक कि कई विशेषज्ञ आज भी मानते हैं कि अगर यह हमला ना हुआ होता तो शायद जापान पर 4 साल बाद परमाणु बम ना गिरे होते.

बदलने लगा संतुलन
इस युद्ध में पूरे संसार का संतुलन ही बदलने लगा. इस युद्ध के अंत में एक तरफ ब्रिटेन बहुत कमजोर हो गया और अमेरिका उससे ज्यादा शक्तिशाली देश बना, तो वहीं दूसरी तरफ सोवियत संघ की विस्तारित होती शक्ति पर भी लगाम लग गई. युद्ध के खत्म होने के बाद सोवियत संघ और अमेरिका के बीच वर्चस्व की प्रतिद्वंदता शुरू हो गई और इसके साथ ही शीत युद्ध का लंबा दौर चल निकला.
शीत युद्ध में अमरिका और रूस के बीच एक दूसरे से आगे निकलने का एक छद्मयुद्ध शुरू हो गया. इस दौर में जासूसी, अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा, जैसी कई नई बातें देखने को मिली जिससे दुनिया को में अमेरिका का एक अलग ही रूप देखने को मिला. लेकिन 1989 में सोवियत संघ के विघटन शुरू होने के बाद हालात कुछ अजीब हो गए. शीतयुद्ध तो खत्म हो गया, लेकिन अमेरिका की संवेदनशीलता या कहें शीतयुद्ध की मानसिकता में जिस तरह की कमी आनी चाहिए थी वह नहीं दिखी.

नाटो खत्म होने की जगह उसका विस्तार
शीतयुद्ध में सोवियत संघ को को रोकने के लिए नाटो की स्थापना की थी. जिसमें वह यूरोप के देशों के अपने धड़े मे मिलाने का प्रयास कर रहा था. शीत युद्ध के दौरान अधिकांश पश्चिमी यूरोप के देश नाटो के सदस्य थे. लेकिन शीत युद्ध के खत्म होने के बाद नाटो का विस्तार हुआ. अमेरिका का दुनिया में दखल तो बढ़ा ही उसकी सैन्य उपस्थिति भी पूरी दुनिया के कोने कोने में फैलने लगी.

अब शीत युद्ध की समाप्ति के 30 साल बाद जब रूस यूक्रेन युद्ध चल रहा है तो कई अमेरिकी विशेषज्ञ भी मान रहे हैं कि गलती पूरी तरह से रूस की नहीं है. झगड़े की जड़ रूस का यूक्रेन का नाटो से जुड़ने का फैसला है. लेकिन यह सब कुछ इस एक वाक्य के जितना सरल नहीं है. इसमें नाटो की विस्तारवादी नीति, अमेरिका की रूस के पड़ोस यूक्रेन तक पहुंच, रूस का अपने आसपास अपना दबदबा कायम रखने की जिद, कई कारक हैं. लेकिन इस परिदृश्य में अमेरिका को ही देखा जाए तो पर्ल हार्बर के हमले केबाद से शुरू हुई संवेदनशीलता अब भी कायम ही है. लेकिन इसके साथ ही अमेरिका की विश्व में जिम्मेदारियां भी बढ़ी हैं जो इसमें एक संतुलन पैदा करने का प्रयास करती दिखती हैं.