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कांग्रेस का रवैय्या इंडिया गठबंधन के ख़िलाफ़ !

नई दिल्ली – कांग्रेस के कई लीडरान के घमंड और इलाकाई पार्टियों पर हावी होने की आदत की वजह से इण्डिया गठबंधन उतना मजबूत नहीं हो पा रहा है जितना अब तक हो जाना चाहिए था। यह गठबंद्दन नितीश कुमार और ममता बनर्जी के दिमाग की उपज है, इसके बावजूद कांग्रेस ने बड़ा दिल दिखाते हुए खबर लिखे जाने तक एक बार भी नितीश कुमार को गठबंधन का कन्वीनर बनाए जाने की पेशकश नहीं की। तब भी नहीं जब दिल्ली की मीटिंग में ममता बनर्जी ने कांग्रेस सदर मल्लिकार्जुन खड़गे को अगले वजीर-ए-आजम के तौर पर प्रोजेक्ट करने की बात कही और दिल्ली के चीफ मिनिस्टर अरविन्द केजरीवाल ने उनकी तजवीज की हिमायत की इंडिया गठबंधन की अब तक चार मीटिंगे हो चुकी है पटना में हुई पहली मीटिंग के बाद बाकी तीनों मीटिंगों को कांग्रेस लीडरान ने जैसे हाईजैक ही कर लिया।

मीटिंग हो या उसके बाद होने वाली प्रेस कान्फ्रेंस कांग्रेस के ही चार पांच लीडर पेश पेश दिखते है नितीश, ममता, लालू यादव, शरद पवार, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे किसी को अहमियत नहीं दी जाती इंतेहा यह कि कांग्रेस के एक बाबू टाइप जनरल सेक्रेटरी के.सी. वेणुगोपाल तक को इन तमाम लीडरान पर तरजीह दी जाती है। कांग्रेस के इस रवैय्ये से इलाकाई पार्टियों को अपनी तौहीन किए जाने का एहसास होता है खबर लिखे जाने तक पता चला था कि कांग्रेस के सीनियर लीडरान ने नितीश कुमार और ममता बनर्जी से फोन पर बात की थी शायद नितीश को कन्वीनर बनाने की भी बात हुई है।

इंडिया गठबंधन बनाने की तजवीज पेश करने और इसे आगे बढ़ाने वाले जनता दल यूनाइडेट के सदर व बिहार के वजीर-ए-आला नितीश कुमार कांग्रेस के रवैय्ये से किस हद तक मायूस और नाराज है इसका अंदाजा गुजिश्ता दिनों दिल्ली में हुए उनकी पार्टी के कौमी एजलास में उनकी तकरीर से लगा। राहुल गाँधी या किसी दूसरे कांग्रेस लीडर का नाम लिए बगैर उन्होंने कहा कि वह कितने घमंड में चूर है कि हमारी बिहार सरकार में कांग्रेस के शामिल होने के बावजूद जब सरकारों के अच्छे कामों का जिक्र वह करते हैं तो बिहार सरकार का नाम तक नहीं लेते कभी यह नहीं कहते कि बिहार में तरक्कियाती काम किस बड़े पैमाने पर हुए हैं और हो रहे हैं |

आखिर हम भी अपोजीशन गठबंधन का ही हिस्सा हैं फिर हमारी सरकार के कामों का जिक्र क्यों नहीं? उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने जात की बुनियाद पर सर्वे कराया और देश को बता दिया कि बिहार में किस तबके की कितनी आबादी है उसी हिसाब से रिजर्वेशन भी होना चाहिए कांग्रेस ने जात की बुनियाद पर सर्वे या मर्दुमशुमारी कराने के मुद्दे को तो अपना लिया लेकिन एक बार भी यह नहीं कहा कि बिहार सरकार ने यह काम सबसे पहले कर दिखाया है।

समाजवादी पार्टी के सदर अखिलेश यादव और नीतीश कुमार वगैरह को कांग्रेस से यह भी शिकायत है राहुल गांधी ने बैकवर्ड और जात की बुनियाद पर सर्वे के मुद्दे को क्यों अपना लिया, इन मुद्दों पर तो हम लोग काम कर ही रहे है राहुल गांधी और कांग्रेस को तो सवर्ण तबकों को गठबंधन के साथ लाने का काम करना चाहिए था वह कर नहीं रहे है फिर गठबंधन को मजबूत बनाने में आखिर कांग्रेस का क्या रोल है? इन लोगों का कहना है कि सवर्ण वोट तो कांग्रेस का हुआ करता था जो अब बीजेपी में चला गया है। अगर कांग्रेस उसे वापस लाने की कोशिश नहीं करेगी तो बीजेपी को कैसे हराएंगे। बंगाल हो, बिहार, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु या महाराष्ट्र इलाकाई पार्टियां तो अपना काम मजबूती के साथ कर ही रही है। वोट बैंक भी संभाले हुए हैं, लेकिन कांग्रेस क्या कर रही है। वह तो रोज नई-नई कमेटियां बना रही हैं और उनकी मीटिंग हो रही है, सिर्फ मीटिंगों से तो काम नहीं चलने वाला है।

जहां तक सीटों के बंटवारे का सवाल है, अपोजीशन गठबंधन में कांग्रेस का सारा जोर और दबाव उन रियासतों की ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने का है जहां गठबंधन में शामिल इलाकाई पार्टियां पहले से ही ताकतवर है। जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखण्ड, बंगाल और तमिलनाडु इन रियासतों में कांग्रेस अपनी सियासी जमीन खो चुकी है फिर भी इनमें ज्यादा सीटें चाहती है। वजह शायद यह है कि कांग्रेस लीडरान अपनी ताकत के बजाए शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, लालू यादव, हेमंत सोरेन, ममता बनर्जी और एम.के. स्टालिन के सहारे अपनी सीटों में इजाफा करना चाहती है।

राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, छत्तीसगढ़, गुजरात, उड़ीसा और त्रिपुरा जैसी रियासतों में इलाकाई पार्टियों के दावे बड़े नहीं है बल्कि तकरीबन नहीं के बराबर है इन रियासतो में ज्यादा सीटें जीतने के लिए कांग्रेस के पास कोई हिकमते अमली (रणनीति) नहीं दिखती है। इस तरह गठबंधन कैसे चल सकता है। बीजेपी के साथ असल मुकाबला तो इन्हीं रियासतों में हैं, इसलिए कांग्रेस को इन्हीं रियासतों में अपनी पूरी ताकत झोंक देना चाहिए। इस साल होने वाले लोकसभा एलक्शन में कांग्रेस के लिए कर्नाटक, तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में सियासी सूरतेहाल मुवाफिक है। इन रियासतों की ज्यादा से ज्यादा सीटें पार्टी जीत सकती है।

कांग्रेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि पार्टी सदर मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांद्दी तो गठबंद्दन में शामिल पार्टी लीडरान के साथ बेहतर ताल्लुकात चाहते है और जिन रियासतों में इलाकाई पार्टियां मजबूत हैं उनके लीडरान की मर्जी मुताबिक सीटें भी लेने को तैयार है लेकिन इन दोनो के इर्द गिर्द पार्टी के छुटभैया लीडरान की जो भीड़ है व इन्हें मुनासिब फैसला नहीं लेने देती है। उनके जेहन में आज भी यही घूम रहा है कि कांग्रेस बड़ी और पुरानी पार्टी है, मुल्क की हर रियासत में इसकी मौजूदगी है इसलिए गठबंद्दन में भी पार्टी का रोल बड़े भाई का रहना चाहिए। उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि भले पार्टी की मौजूदगी पूरे मुल्क में है लेकिन सियासी ताकत तो कहीं नहीं है तीन रियासतों कर्नाटक, तेलंगाना और हिमाचल में पार्टी की सरकारे हैं उन्हीं में कांग्रेस की कुछ सियासी ताकत भी बची है बाकी पूरे मुल्क में नहीं है।