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50 साल से बॉलीवुड पर राज कर रहें हैं अमिताभ बच्चन, उनकी पहली फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’

बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन को दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। इसी साल अमिताभ बच्चन ने हिंदी सिनेमा में 50 साल भी पूरे किए हैं। अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म नाम ‘सात हिन्दुस्तानी’ है। हालांकि जब उस समय के जाने-माने लेखक, फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास ने यह फिल्म बनायी थी तब उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि उनकी यह फिल्म इतिहास में अमर हो जायेगी। न ही इस फिल्म के सात प्रमुख कलाकारों में से एक अमिताभ बच्चन ने कभी सोचा था कि यह फिल्म भविष्य में सिर्फ उनके कारण ही बार-बार याद की जायेगी।

अमिताभ बच्चन को यह फिल्म कैसे मिली और उसके बाद उनकी अभिनय यात्रा में क्या-क्या उतार चढ़ाव आए इसकी बात तो हम करेंगे ही लेकिन उससे पहले यह जान लें कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म आखिर क्या थी। अमिताभ के अलावा और कौन-कौन कलाकार इस फिल्म में थे। ख्वाजा अहमद अब्बास ‘सात हिन्दुस्तानी’ के निर्माता, निर्देशक ही नहीं लेखक और पटकथा लेखक भी थे। यह फिल्म गोवा को पुर्तगाली शासन से आजाद कराने की कहानी पर बनी थी। पुर्तगालियों से इस मुश्किल और खतरनाक लड़ाई को लड़ने के लिए अब्बास ने ‘सात हिन्दुस्तानी’ की अपनी जिस फौज की रचना की थी उसमें देश के अलग-अलग हिस्सों और विभिन्न धर्मों के लोगों को पात्र बनाया था।

दिलचस्प बात यह थी कि अब्बास ने किसी भी कलाकार को उसके राज्य या धर्म के अनुसार भूमिका न देकर उसके विपरीत भूमिका दी थी। जैसे हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि और लेखक हरिवंश राय बच्चन के उत्तर प्रदेश मूल के अमिताभ बच्चन को बिहार के मुस्लिम उर्दू शायर अनवर अली अनवर की भूमिका मिली। जिसमें दिखाया गया था कि अमिताभ को हिंदी लिखनी नहीं आती। अमिताभ का एक यह संवाद भी था कि हमको हिंदी की अरन्तु-परन्तु समझ नहीं आती। ऐसे ही बंगाल के सुप्रसिद्ध अभिनेता उत्पल दत्त को एक पंजाबी जोगिन्दर नाथ की, मलयालम के मशहूर अभिनेता मधु को बंगाली शुबोध सान्याल की, इरशाद अली को दक्षिण भारतीय माधवन की, जलाल आगा को महाराष्ट्रियन सखाराम शिंदे की, मशहूर हास्य अभिनेता महमूद के भाई अनवर अली को हिन्दू राम भगत शर्मा की और अभिनेत्री शहनाज को ईसाई मारिया की भूमिकाएं देकर सभी कलाकारों को चुनौती दी गई थी।

लेकिन लगभग सभी कलाकार इस चुनौती में सफल हुए। देश के विभिन्न क्षेत्रों के पात्रों को लेकर बनी इस फिल्म ने देश प्रेम को लेकर विभिन्नता में एकता का संदेश दिया। इसी कारण ‘सात हिन्दुस्तानी’ को उस वर्ष राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। साथ ही इस फिल्म के ‘आंधी आए कि तूफान कोई गम नहीं’ और ‘एक मंजिल पर सबकी निगाहें रहें’ जैसे गीतों के लिए गीतकार कैफी आजमी को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। हालांकि अमिताभ बच्चन ने भी कुछ बरस पहले बताया था कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ के लिए उन्हें भी सर्वश्रेष्ठ नए अभिनेता के रूप में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। लेकिन राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों के रिकॉर्ड में न जाने उनके इस पहले पुरस्कार का कोई उल्लेख क्यों नहीं है। जब यह बात मैंने अमिताभ जी को बताई तो वह बोले- “मुझे पता नहीं उनके रिकॉर्ड में यह दर्ज क्यों नहीं है। मेरे पास उस अवार्ड की ट्रॉफी है, आप चाहें तो मेरे घर आकर देख लें।”

‘सात हिन्दुस्तानी’ में कई अच्छे संवाद भी थे। जिनमें फिल्म में अमिताभ का बोला एक संवाद -‘हम हिन्दुस्तानियों को रेंगना नहीं आता’ तो काफी पसंद किया गया। लेकिन यह फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल नहीं हो पायी थी। उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि तब रंगीन फिल्मों का युग तेज़ी से आगे बढ़ रहा था। दर्शकों की दिलचस्पी रंगीन फिल्मों को देखने में ज्यादा रहती थी। लेकिन ‘सात हिन्दुस्तानी’ ब्लैक एंड व्हाइट थी। अमिताभ के करियर में सिर्फ यही एक फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट है। फिर भी अपनी ऐसी कई विशेषताओं के लिए यह फिल्म आज भी खास है। लेकिन हम सभी इस फिल्म को इस दौरान बार-बार और आज 50 साल बाद भी यदि शिद्दत से याद कर रहे हैं तो इसलिए कि यह फिल्म अमिताभ बच्चन की पहली फिल्म थी।

हालांकि यह दुखद है कि ‘सात हिन्दुस्तानी’ के प्रदर्शन के इस स्वर्ण जयंती वर्ष में फिल्म की पूरी टीम में से आज अधिकांश लोग इस दुनिया में नहीं हैं। अमिताभ बच्चन को ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म मिलने की कहानी भी काफी दिलचस्प है। यह फिल्म अमिताभ को कैसे मिली इस बारे में अमिताभ बच्चन की माँ तेजी बच्चन जी और बाबूजी डॉ हरिवंश राय बच्चन ने स्वयं मुझे सन 1978 में बताया था। उन दिनों वे दिल्ली के 13 विलिंग्डन क्रिसेंट बंगले में रहते थे। असल में अमिताभ बच्चन को नाटकों में भाग लेने का शौक बचपन से था। नैनीताल में अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान शेरवुड कॉलेज में भी वह नाटक करते थे और बाद में दिल्ली में अपने ग्रेजुएशन के दौरान किरोड़ीमल कॉलेज में भी नाटकों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे।

शेरवुड में तो अपने एक नाटक के मंचन से ठीक पहले एक बार अमिताभ इस कद्र बीमार पड़ गए थे कि वह नाटक में भाग नहीं ले सके। जिस कारण अमिताभ का दिल टूट गया। तब उनके बाबूजी ने अमिताभ के पास शेरवुड जाकर उन्हें हिम्मत देने के साथ यह सीख भी दी कि -‘मन सा हो तो अच्छा और मन सा ना हो तो और भी अच्छा।’ लेकिन अमिताभ नाटकों के साथ फिल्मों में काम करने की इच्छा भी मन ही मन बना रहे थे, इस बात से माँ और बाबूजी अनभिज्ञ थे। लेकिन किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाई के दौरान अमिताभ के मन में फिल्मों में काम करने की इच्छा काफी मजबूत हो चुकी थी।

यहाँ तक एक बार किसी ‘फिल्म स्टार हंट’ के विज्ञापन को देखकर अमिताभ ने अपनी फोटो आदि प्रतियोगिता में मुंबई भेज दिए। जब इस बात का माँ जी और बाबूजी को पता लगा तो वह चिंतित हो उठे। तेजी जी ने मुझे बताया था-“हमने मुन्ना (तेजी जी अमिताभ को इसी नाम से पुकारती थीं) को कहा कि हर माँ-बाप का सपना होता है कि उनका बेटा उनके बुढ़ापे का सहारा बने। वह उनके रहते हुए सैटल हो जाए। लेकिन यह क्या तुमको फिल्मों में काम करने का शौक पड़ गया, जहाँ सफलता की दूर-दूर तक कोई गारंटी नहीं है। लेकिन अमिताभ द्वारा टेलेंट हंट को भेजे उन फोटो का कोई जवाब नहीं आया, तो हम लोगों को राहत मिली।”

बाबूजी ने मुझे बताया था -अजिताभ भी चाहते थे कि उनके भाई का फिल्मों में आने का सपना पूरा हो। इसलिए अजिताभ अपने भाई की विभिन्न मुद्राओं में फोटो खींचते रहते थे। लेकिन तब तक अमिताभ बच्चन कोलकाता में ‘बर्ड एंड कंपनी’ में सेल्स एग्ज़िक्यूटिव के पद पर लग गए थे। जहाँ उस समय 1400 रुपये महीने का आकर्षक वेतन था। हम लोग ख़ुश थे कि आखिरकार अमित को एक अच्छी नौकरी मिल गयी है।

उन्हीं दिनों अजिताभ ट्रेन से दिल्ली से मुंबई जा रहे थे कि उन्हें ट्रेन में उनकी एक मित्र मिली जिसने बताया कि ख्वाजा अहमद अब्बास अपनी नयी फिल्म ‘सात हिन्दुस्तानी’ के लिए नए कलाकारों की तलाश कर रहे हैं। तो अजिताभ ने भाई अमिताभ के फोटो उस मित्र को देते हुए अब्बास से बात करने को कहा। जब वे फोटो अब्बास ने देखे तो उन्होंने कहा फोटो से क्या होगा, लड़के को बुलाओ। तब अजिताभ ने अमिताभ को कोलकाता से तुरंत मुंबई आने को कहा। अमिताभ बच्चन जब मुंबई में अब्बास साहब के पास पहुंचे तो उन्होंने सर नेम बच्चन देखकर पूछा कि तुम क्या बच्चन के बेटे हो, घर से भागकर आये हो। तब अमिताभ ने कहा भागकर नहीं आया उन्हें पता है। लेकिन अपनी तसल्ली के लिए ख्वाजा अहमद अब्बास ने बच्चन जी को तार भेजकर पूछा कि तुम क्या इस बात से सहमत हो कि अमिताभ फिल्मों में काम करे।

तब बच्चन जी ने अब्बास को जवाब दिया कि यदि तुमको लगता है कि अमिताभ में कुछ योग्यता है तो हमारी सहमति है लेकिन लगता है ऐसी कोई योग्यता नहीं है तो उसे समझाकर वापस कोलकाता भेज दो। लेकिन अब्बास को जब लगा कि वह यह सब कर सकता है तो माँ जी और बाबूजी ने भी अमिताभ को फिल्मों में काम करने की सहमति दे दी। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि अमिताभ बच्चन को ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म में अनवर अली की जिस भूमिका के लिए लिया, पहले वह भूमिका टीनू आनंद करने वाले थे। लेकिन टीनू को तभी सत्यजीत रे से उनके साथ सहायक निर्देशक बनने का मौका मिला तो उन्होंने अभिनय की जगह निर्देशन क्षेत्र को प्राथमिकता दी और वह कोलकाता चले गए। बताते हैं अमिताभ को ‘सात हिन्दुस्तानी’ में अभिनय के लिए कुल 5 हजार रुपये मिलने थे। चाहे फिल्म को बनने में कितना भी समय लगे।

अमिताभ बच्चन का ‘सात हिन्दुस्तानी’ फिल्म से फिल्मों में आगमन का सपना तो पूरा हो गया लेकिन उनका संघर्ष इस फिल्म से पहले भी था और इस फिल्म के बाद भी काफी समय तक संघर्ष बरक़रार रहा।इस फिल्म से पहले अमिताभ ने ऑल इंडिया रेडियो में उद्घोषक बनने के लिए भी अपनी क़िस्मत आजमाई थी और कुछ अन्य नौकरियों के लिए भी। इसके लिए अमिताभ ने ऑल इंडिया रेडियो में ऑडिशन दिया लेकिन रेडियो की चयन समिति ने अमिताभ की आवाज को रेडियो के लिए अयोग्य बताकर रिजेक्ट कर दिया था।

रेडियो की इस गलती का अफसोस गोवा में 28 नवम्बर 2017 को तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री स्मृति ईरानी ने भी किया। गोवा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के दौरान अमिताभ बच्चन को ‘इंडियन सिनेमा की पर्सनेलिटी ऑफ़ द इयर’ का 10 लाख रुपये और प्रमाण पत्र वाला बड़ा सम्मान देते हुए स्मृति ईरानी ने कहा था- “जीवन में एक ऐसा हादसा हुआ कि ऑल इंडिया रेडियो में अमित जी ऑडिशन करने गए और अमित जी को ऑल इंडिया रेडियो पर रिजेक्ट कर दिया गया था। तो आज यह विधि का विधान है और हमारा सौभाग्य कि आज इस मंच पर उसी मंत्रालय द्वारा और भारत सरकार की ओर से हम अमित जी को पारितोषिक दे रहे हैं, यह हमारा अभिमान है।”

यूँ आज यह सुन आश्चर्य होता है कि शेरवुड में पढ़े और दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक होने के बाद उस दौर में भी अमिताभ बच्चन को नौकरी पाने के लिए कई धक्के खाने पड़े। यहाँ तक रेडियो में वह उद्घोषक तक नहीं बन सके। जबकि बच्चन परिवार तब नेहरु-गांधी परिवार के बेहद करीब था। इंदिरा गांधी तो उस दौर में पहले सूचना प्रसारण मंत्री और फिर प्रधानमन्त्री थीं। इंदिरा गांधी से तेजी जी के इतने मधुर और घनिष्ठ सम्बन्ध थे कि सन 1968 के करीब इसी दौर में राजीव गांधी के विवाह के समय सोनिया गांधी का कन्यादान भी बच्चन जी और तेजी जी ने किया था। लेकिन बच्चन जी ने सत्ता के इतने करीब रहते हुए भी अमिताभ के लिए कोई सिफ़ारिश नहीं की, वरना अमिताभ रेडियो क्या कहीं भी आसानी से कोई नौकरी पा लेते।

इधर यह भी दिलचस्प है कि अमिताभ बच्चन की आवाज को चाहे रेडियो द्वारा रिजेक्ट कर दिया गया। लेकिन इसके कुछ दिन बाद मृणाल सेन सरीखे फिल्मकार ने उनकी इसी प्रतिभा को देखते हुए अपनी फिल्म ‘भुवन सोम’ में सूत्रधार के रूप में अमिताभ की ही आवाज ली। हालांकि फिल्म की क्रेडिट लाइन में अमिताभ बच्चन की जगह सिर्फ अमिताभ दिया गया और उन्हें तब इसके लिए 300 रुपये का मेहनताना मिला था।

‘सात हिन्दुस्तानी’ के बाद अमिताभ बच्चन को फिल्मकारों ने नोटिस तो किया और इसके बाद उन्हें फिल्में लगातार मिलने लगीं। लेकिन उनकी फिल्मों को अपेक्षित सफलता न मिलने से फिल्म इंडस्ट्री में अमिताभ के ऊपर एक फ्लॉप अभिनेता का ऐसा दाग़ लग गया जो उनकी अगली फ्लॉप के बाद और भी गहराता गया। फ्लॉप का यह दाग़ साफ होने में करीब 4 बरस का लम्बा समय लग गया। लेकिन इस दौरान अमिताभ को कई तरह के कड़वे-मीठे अनुभव भी हो गए। संघर्ष की इस भट्टी में तपकर एक ऐसा अमिताभ चमका जिसकी आभा आज भी कायम है। अमिताभ को ‘सात हिन्दुस्तानी’ के बाद सुनील दत्त ने ‘रेशमा और शेरा’ में लिया जिसमें अमिताभ की फिल्म के नायक शेरा (सुनील दत्त) के गूंगे भाई छोटू की एक छोटी सी भूमिका थी। फिल्म में अमिताभ का कोई संवाद भी नहीं था। यह फिल्म देश-विदेश में काफी पसंद की गयी। लेकिन फिल्म का अधिकतर श्रेय सुनील दत्त, वहीदा रहमान और विनोद खन्ना को मिला।

हाँ इस दौरान हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘आनंद’ से अमिताभ को अच्छी लोकप्रियता मिली। इस फिल्म में नायक तो राजेश खन्ना थे लेकिन अमिताभ ने अपनी बाबू मोशाय की भूमिका को इतना ख़ूबसूरत और अहम बना दिया कि इसके लिए उन्हें पहली बार सर्वोत्तम सहायक अभिनेता का फिल्म फ़ेयर पुरस्कार भी मिला। सही मायने में अमिताभ पहली बार ‘आनंद’ फिल्म से दर्शकों के घरों में चर्चा का विषय बने। लेकिन इस सबके बावजूद अमिताभ बच्चन के करियर ने रफ़्तार नहीं पकड़ी। असल में इस दौरान अमिताभ की ‘परवाना’ और ‘संजोग’ फिल्में बुरी तरह फ्लॉप हो गयीं। उसके बाद ‘बंसी बिरजू’, ‘एक नजर’, ‘रास्ते का पत्थर’ और ‘बंधे हाथ’ जैसी अमिताभ की और फिल्में भी कतार से औंधे मुंह गिरती चली गयीं। इतनी फिल्मों में जिस एक फिल्म को थोड़ी बहुत सफलता मिली वह थी- ‘बॉम्बे टू गोवा’।

जिसमें अरुणा इरानी उनकी नायिका थीं। ‘सात हिन्दुस्तानी’ में उनके साथ रहे अभिनेता अनवर अली और उनके भाई महमूद भी इस फिल्म में अमिताभ के साथ थे। देखा जाए महमूद और अनवर दो ऐसे नाम हैं जिन्होंने अमिताभ के शुरुआती दौर के संघर्ष में उनकी काफी मदद की। महमूद ने तो ‘सात हिन्दुस्तानी’ देखते ही अमिताभ बच्चन की प्रतिभा को पहचानकर, अपनी तीन फिल्मों के लिए साइन कर लिया था। यह बात अलग है कि महमूद उनके साथ ये फिल्में बना नहीं सके। लेकिन कई निर्माताओं से उन्हें मिलवाने, कुछ समय अपने घर में साथ रखने और उन्हें कई तरह से मदद करने में भी महमूद का योगदान रहा।