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नियन्त्रण रेखा पर ‘नियन्त्रण

भारत-चीन के बीच खिंची नियन्त्रण रेखा को चीन जिस तरह बदलने की कोशिश कर रहा है उसका भारत ने कड़ा विरोध किया है। विदेश मन्त्रालय ने इस बारे में स्पष्टता के साथ कहा है कि चीन इकतरफा कार्रवाई करके ऐसा कदापि नहीं कर सकता। वास्तव में लद्दाख के क्षेत्र में चीन ने विगत 2 मई के बाद से जिस तरह की परिस्थितियां बनाई हुई हैं उससे हर भारतवासी चिन्तित है और चाहता है कि जल्दी से जल्दी से जल्दी चीनी सेनाएं पूरी नियन्त्रण रेखा से वहीं तक पीछे जायें जहां वे 2 मई के दिन थी। मगर चीन है कि मानता ही नहीं और वह पूरी नियन्त्रण रेखा के संवेदनशील क्षेत्रों में आगे बढ़ चुका है जिसकी वजह से सीमा पर भारी तनाव का वातावरण बना हुआ है। विदेश मन्त्रालय के वक्तव्य से साफ है कि चीनी सेनाएं भारतीय क्षेत्र में घुसी हुई हैं जिन्हें पीछे धकेलने के लिए भारत की वीर सेनाएं सक्षम हैं। चीन की हठधर्मिता की वजह से ही विगत 15 जून को लद्दाख की गलवान घाटी में 20 भारतीय सैनिकों ने अपने प्राण गवांये थे और उनकी शहादत पुकार-पुकार कर कह रही है कि चीन को इसकी कीमत चुकानी होगी।

सैनिकों का बलिदान व्यर्थ न जाये इसका ध्यान हमें हमेशा वार्ताओं की मेज पर रखना होगा। युद्ध क्षेत्र में भारत के रणबांकुरे जवान हमेशा जान हथेली पर रख कर भारत की एक-एक इंच जमीन की रक्षा के लिए अपना बलिदान देते रहे हैं और दुश्मन फौजों के दांत खट्टे करते रहे हैं, परन्तु चीन के मामले में भारत को अत्यन्त सावधानी के साथ कूटनीति और रणनीति अपनानी होगी और किसी तीसरी शक्ति के झांसे में नहीं होना होगा क्योंकि चीन के साथ अपनी चार तरफ से लगती सीमाओं को देखते हुए हमें इस पड़ोसी के साथ बराबरी के आधार पर ऐसे सम्बन्ध बनाने होंगे जिससे युद्ध की आशंका कभी भी पैदा न हो। इस सन्दर्भ में हमें अमेरिका व चीन के बीच चल रहे शीत युद्ध का विशेष संज्ञान लेना होगा और राष्ट्रहितों को सर्वोपरि रखते हुए अपनी राह बनानी होगी। क्योंकि चीन और अमेरिका के बीच से चुनाव करते हुए हमें सोचना होगा कि हमारे दीर्घकालीन हित किस प्रकार सुरक्षित रहेंगे। आंख मींच कर अमेरिका के साथ खड़े हो जाना भारत के पक्ष में किसी कीमत पर नहीं कहा जा सकता क्योंकि अमेरिका का पिछला इतिहास प्रत्येक संकटकाल में भारत के विरुद्ध ही रहा है। खास कर पाकिस्तान के सन्दर्भ में अमेरिका ने हमेशा भारत विरोधी रुख ही अख्तियार किया है।

चाहे वह 1965 का युद्ध हो अथवा 1971 की बंगलादेश लड़ाई। यदि हाल के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो पाकिस्तान की पीठ पर हमेशा अमेरिका का हाथ रहा और उसी के दिये गये सैनिक साजो-सामान के बूते पर पाकिस्तान भारत को आंखें दिखाता रहा। आज भी पाकिस्तान की मदद करने से अमेरिका पीछे नहीं हटा है। अफगानिस्तान में रूस का विरोध करने के लिए तालिबान पैदा करने वाले अमेरिका की मेहरबानी इस कदर रही कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में आतंकवाद फैलाने का मुख्य स्रोत पाकिस्तान बन गया। लेकिन चीन से अपने आर्थिक हितों पर खतरा देखते हुए जिस तरह अमेरिका हिन्द महासागर क्षेत्र से लेकर प्रशान्त सागर क्षेत्र में सैनिक प्रतियोगिता कड़ी कर रहा है उससे भारत को बहुत सावधान होने की जरूरत है। पश्चिम एशिया और अरब सागर क्षेत्र में पहले से ही चीन व अमेरिका के जंगी जहाजी बेड़े डटे हुए हैं।

हिन्द महासागर में चीन व अमेरिका की जंगी हरकतों से भारत को बचने की जरूरत होगी क्योंकि महासागर के अशान्त हो जाने का सबसे ज्यादा विपरीत असर भारत पर ही पड़ेगा। गौर से देखा जाये तो चीन व अमेरिका दोनों को अपने झगड़े निपटाने के लिए भारत की जरूरत है न कि भारत को अमेरिका की। अमेरिकी पैरवी से भारत को कोई लाभ नहीं होने वाला अत: कूटनीति कहती है कि हर हालत में हिन्द महासागर क्षेत्र शान्ति क्षेत्र बना रहे। वैसे पूर्व में भारत की चिन्ता यह रही है क्योंकि स्व. इन्दिरा गांधी हमेशा हिन्द महासागर को शान्ति क्षेत्र घोषित करने की मांग करती रही और इस क्षेत्र में अमेरिका द्वारा ‘दियेगो गार्शिया में परमाणु अस्त्रों का अड्डा बनाये जाने का उन्होंने पुरजोर विरोध किया था। बेशक इन्दिरा काल से लेकर अब तक विश्व परिस्थितियों में राजनीतिक परिवर्तन आ चुका है, परन्तु बदले हुए हालात में राष्ट्रहित की चिन्ता स्थिर भाव है।

इसे देखते हुए चीन के हित में भी यही है कि वह भारत के साथ किसी नये विवाद को जन्म न दे। नियन्त्रण रेखा पर उसकी कार्रवाई केवल विस्तारवादी मानसिकता का परिचायक ही है। पेंगोंग झील से लेकर दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में देपसंग पठार के क्षेत्र में अपनी घुसपैठ बढ़ा कर वह भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पंक्ति को कमजोर करना चाहता है, जिससे काराकोरम इलाके से शुरू होने वाली उसकी ‘सी पैकÓ परियोजना का मार्ग जुड़ सके। ऐसा वह हरगिज नहीं कर सकता क्योंकि सर्वप्रथम काराकोरम भारतीय जम्मू-कश्मीर का वह इलाका है जिस पर पाकिस्तान ने अतिक्रमण कर रखा है। डा. मनमोहन सिंह के शासनकाल में ही भारत ने एशियाई विकास बैंक में इस बाबत कड़ी आपत्ति दर्ज कराई थी क्योंकि यह परियोजना इस बैंक की मदद से चल रही है। भारत ने तब कहा था कि चीन पाकिस्तान के साथ मिल कर ऐसे स्थान पर विकास कार्य नहीं कर सकता जिस पर भारत का हक हो। अत: चीन के हक में भी है कि वह नियन्त्रण रेखा को ही अपने नियन्त्रण में लेने का प्रयास न करे। इस बारे में तनाव कम करने के लिए दोनों देशों के बीच जो वार्ताओं के दौर चल रहे हैं उनका प्रतिफल वही निकलना चाहिए जिससे 2 मई की स्थिति बहाल हो सके। चीन का यह धोखा भी अब तक समाप्त हो चुका होगा कि आज 1962 नहीं चल रहा है !