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नयी शिक्षा नीति-कुछ सवाल

केंद्र सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए नयी शिक्षा नीति तैयार की है। साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय का नाम फिर से बदलकर शिक्षा मंत्रालय किया गया है। 1985 से पहले शिक्षा मंत्रालय ही हुआ करता था, लेकिन राजीव गांधी के शासनकाल में इसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय बना दिया गया, जिसमें शिक्षा के साथ-साथ संस्कृति, श्रम आदि मानव विकास के कई पहलू समाहित थे। बाद में आई सरकारों ने धीरे-धीरे इस मंत्रालय के ही कुछ विभागों को कम करते हुए उनके अलग मंत्रालय बना दिए। इस तरह मानव संसाधन नाम का ही रह गया और शिक्षा ही इस मंत्रालय का मुख्य कार्य बना रहा तो इस लिहाज से इसे शिक्षा मंत्रालय नाम देना सही फैसला है। 1985 में ही शिक्षा नीति भी तैयार हुई थी, जिसमें 1992 में कुछ फेरबदल किए गए थे, उसके बाद मामूली घट-बढ़ होती रही, लेकिन शिक्षा नीति में बड़े पैमाने पर कोई बदलाव नहीं हुआ। अब तीन दशकों बाद देश को नयी शिक्षा नीति मिली है। इन बरसों में दुनिया जिस तेजी से बदली है, उसमें हम अपनी पुरानी नीति के अनुसार बच्चों को शिक्षित करते रहें, यह व्यावहारिक तौर पर ठीक नहीं है। इसलिए बदलाव जरूरी था, देखने वाली बात ये है कि जो बदलाव किए गए, उनसे बच्चों को भविष्य के लिए कितना तैयार किया जा रहा है और शिक्षा का उद्देश्य कितना पूरा हो रहा है। शिक्षा नीति में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं। अब स्कूल के पहले पांच साल में प्री-प्राइमरी स्कूल के तीन साल और कक्षा एक और कक्षा 2 सहित फाउंडेशन स्टेज शामिल होंगे। इन पांच सालों की पढ़ाई के लिए एक नया पाठ्यक्रम तैयार होगा।

इंसान के भावी जीवन के लिए ये पांच साल नींव का काम करते हैं। इसलिए इसे मजबूत बनाने की कोशिश नये पाठ्यक्रम में होनी चाहिए। नई शिक्षा नीति में छठी कक्षा से ही बच्चे को प्रोफेशनल और स्किल की शिक्षा दी जाएगी। स्थानीय स्तर पर इंटर्नशिप भी कराई जाएगी। कक्षा 9 से 12वीं तक के 4 सालों में छात्रों को विषय चुनने की आजादी रहेगी। खास बात यह कि साइंस या गणित के साथ फैशन डिजाइनिंग भी पढऩे की आजादी होगी। बोर्ड परीक्षा का तनाव कम करने पर सरकार ने विचार किया है और इनमें मुख्य जोर ज्ञान के परीक्षण पर होगा ताकि छात्रों में रटने की प्रवृत्ति खत्म हो। एक अहम फैसला ये लिया गया है कि पांचवीं तक और जहां तक संभव हो सके आठवीं तक मातृभाषा में ही शिक्षा उपलब्ध कराई जाएगी। कालेज में मल्टीपल एंट्री और एग्जिट (बहु स्तरीय प्रवेश एवं निकासी) व्यवस्था लागू होगी। यानी पढ़ाई बीच में किसी कारण से छूट भी जाती है तो सर्टिफिकेट या डिप्लोमा मिल ही जाएगा। शोध और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए सभी तरह के वैज्ञानिक एवं सामाजिक अनुसंधानों को नेशनल रिसर्च फाउंडेशन बनाकर नियंत्रित किया जाएगा। नई शिक्षा नीति में एक खास बात ये है कि भाजपा ने अपने रुख को बदलते हुए विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजा खोल दिए हैं। दुनिया के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अब देश में अपने कैम्पस खोल सकेंगे। यूपीए-2 सरकार में विदेशी शिक्षण संस्थानों पर रेगुलेशन ऑफ एंट्री एंड ऑपरेशन बिल 2010 लाया गया था, तब भाजपा ने इसका विरोध किया किया था, लेकिन अब केंद्र सरकार इसके लिए तैयार दिख रही है। इसके पीछे तर्क है कि हर साल सैकड़ों विद्यार्थी हजारों डालर खर्च कर विदेश जाते हैं, लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत आने से प्रतिभा पलायन भी रुकेगा और धन भी बाहर नहीं जाएगा। मोदी सरकार एक अरसे से देश की शिक्षा प्रणाली को बदलना चाहती थी। उसकी इस कोशिश के पीछे संघ की सोच काम कर रही थी और ऐसा लगता था कि नयी नीति में यही सोच हावी दिखेगी। इसकी ड्राफ्टिंग की प्रक्रिया में आरएसएस से जुड़े कई लोग भी शामिल थे, लेकिन शिक्षा नीति देखकर यही समझ आता है कि सरकार ने राजनैतिक मध्यममार्ग अपनाया है।

लेकिन अभी कई सवाल हैं, जिनके बारे में नयी शिक्षा नीति मौन है। जैसे उच्च शिक्षा के लिए एक सिंगल रेगुलेटर उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) का गठन किया जाएगा, लेकिन इसमें लॉ और मेडिकल शिक्षा शामिल नहीं होंगे। ऐसा क्यों किया गया, इसके बारे में सरकार को विस्तार से बताना चाहिए। क्या मेडिकल, इंजीनियरिंग, लॉ आदि के लिए कोचिंग सेंटर्स का जो गहरा जाल सशक्त शिक्षा माफिया ने बुन रखा है, क्या उस जाल को यह सिंगल रेगुलेटर काटने में सक्षम होगा। कोटा, बंगलुरु, पुणे जैसे एजुकेशन हब बन गए शहरों का भविष्य इस नयी शिक्षा नीति में किस तरह का है। बच्चों को मातृभाषा में पढ़ाना सही विचार है, लेकिन क्या इसकी कीमत उन्हें अंग्रेजी के ज्ञान से वंचित रहकर चुकानी पड़ेगी, और क्या इससे निजी और सरकारी स्कूलों में पढऩे वाले बच्चों के बीच की खाई और नहीं बढ़ेगी, क्या इससे भविष्य में अच्छा रोजगार पाने की संभावनाओं पर असर नहीं पड़ेगा। नेशनल रिसर्च फाउंडेशन बनाने से क्या रिसर्च लायक माहौल भी बन जाएगा। क्योंकि बीते कई सालों में वैज्ञानिक नजरिए का घोर अभाव देश में देखा गया, युवा पीढ़ी को भी दिगभ्रमित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई, इसे कैसे सुधारा जाएगा।

शिक्षा का निजीकरण सरकार कैसे रोकेगी, प्राइवेट स्कूल फीस न बढ़ाएं, केवल यहां आकर सरकार की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती बल्कि सरकार की जिम्मेदारी तो हरेक बच्चे को बिना किसी भेदभाव के एक जैसी अच्छी शिक्षा व्यवस्था देना है। लेकिन सरकारी स्कूलों और सैवन स्टार निजी स्कूलों में अंतरिक्ष और पाताल जैसा अंतर है। इस खाई को कैसे पाटा जाएगा? नई शिक्षा नीति में 2030 तक हर जिले में या उसके पास कम से कम एक बड़ा मल्टी सब्जेक्ट हाई इंस्टिट्यूशन बनाना, 2040 तक सभी उच्च शिक्षा संस्थानों को मल्टी सब्जेक्ट इंस्टिट्यूशन बनाना और 2050 तक स्कूल और उच्च शिक्षा प्रणाली के माध्यम से कम से कम 50 फीसदी शिक्षार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा में शामिल करने जैसी लंबी दूरी की बातें सोची गई हैं। लेकिन शिक्षा नीति कोई मिसाइल तो है नहीं जो एक बार में लंबी दूरी पर सटीक निशाना लगा ले।आज से 20-30 साल बाद क्या होगा, यह बताने से पहले सरकार को आज के हालात में बच्चों के लिए बेहतर क्या हो सकता है, इस पर विचार करना चाहिए। क्योंकि 2020 में तो आलम ये है कि स्वास्थ्य मुसीबत के कारण हो रही आनलाइन शिक्षा और परीक्षा में हजारों विद्यार्थियों को पढ़ाई से वंचित होने का डर सता रहा है। सरकार इन बच्चों का वर्तमान सुधारेगी तो भविष्य सुधरने में देर नहीं लगेगी।