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सिद्धू क्यों कांग्रेस में पड़े अलग-थलग?

चंडीगढ़:पंजाब में कांग्रेस लाख दावा करे कि पार्टी में सबकुछ ठीक है लेकिन स्थिति सामन्य नहीं है। कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की लड़ाई तो जगजाहिर थी ही, अब राज्य के नए नवेले मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के साथ सिद्धू की तल्खी भी कई मौकों पर खुलकर सामने आ चुकी है। एक बात तो साफ है कि इन दोनों प्रकरणों से सिद्धू ने पंजाब की राजनीति में अपनी एक जगह बना ली है। आप उनसे प्यार कर सकते हैं, नफरत कर सकते हैं, लेकिन इजरअंदाज नहीं।

क्रिकेटर से नेता बने नवजोत सिंह सिद्धू को पिछले साल पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी (पीपीसीसी) के प्रमुख की जिम्मेदारी आलाकमान ने सौंपी थी। इसके बाद सरकार में भी बदलाव आया। अनुभवी कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सितंबर में इस्तीफा दे दिया। इसके बाद चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य का पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया गया।
जब सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, तब पार्टी के अधिकांश नेता विरोधियों का डटकर मुकाबला करने की उनकी क्षमता से सावधान थे। सिद्धू न तो कांग्रेस के दिग्गज हैं और न ही उनके पास व्यापक जनाधार है। फिर भी उन्हें पार्टी इकाई का नेतृत्व करने के लिए चुना गया, जिसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से अमरिंदर शासन की सत्ता-विरोधी लहर को नरम करने का प्रयास करना था।
सिद्धू लगातार विभिन्न मुद्दों पर अमरिंदर सरकार पर हमले करते रहे। वह चन्नी के साथ भी सहज नहीं रहे हैं और नई सरकार के मुखर आलोचक के रूप में उभरे हैं। सिद्धू महाधिवक्ता ए.पी.एस. देओल के साथ पिछले साल नवंबर में डीएस पटवालिया और दिसंबर में राज्य के डीजीपी आईपीएस अधिकारी सिद्धार्थ चट्टोपाध्याय सहोता की नियुक्ति को लेकर मुखर हुए। पंजाब और कांग्रेस के सियासी हलकों में यह चर्चा आम है कि सिद्धू मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं।
सिद्धू के दबाव में कांग्रेस ने अब तक चन्नी को आगामी चुनाव में पार्टी के सीएम चेहरे के रूप में पेश करने से परहेज किया है। पार्टी का कहना है कि चुनाव सामूहिक नेतृत्व में लड़ा जाएगा। फिर भी सिद्धू आलाकमान पर उन्हें सीएम उम्मीदवार घोषित करने का दबाव बना रहे हैं। हालांकि, कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का मानना ​​है कि सिद्धू की किसी भी तरह की पदोन्नति दलितों और उच्च जाति हिंदुओं दोनों के बीच पार्टी की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकती है।

पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री चन्नी अपने ही जाति आधार (रविदासी/रामदासी/आदि धर्मी) को कांग्रेस की ओर लामबंद करते रहे हैं। वह अन्य दलित उपजातियों के साथ समीकरण बनाने की भी कोशिश कर रहे हैं। इस बीच कांग्रेस नेता चिंतित हैं कि पार्टी का सवर्ण हिंदू आधार भाजपा और आम आदमी पार्टी (आप) में स्थानांतरित हो रहा है। कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अगर शिरोमणि अकाली दल (शिअद) जाट सिख वोट के साथ चलने में कामयाब होता है तो यह मालवा बेल्ट में आप से ज्यादा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगा। अमरिंदर के कांग्रेस छोड़ने के बाद से ग्रामीण पंथिक मतदाताओं के भी अकाली दल की ओर जाने की आशंका है। राज्य कांग्रेस के भीतर बनी दरार से काफी नुकसान हो रहा है।

दिल्ली में चिंतित कांग्रेस नेताओं ने पंजाब इकाई को एकजुट मोर्चा बनाने और एक-दूसरे को निशाना बनाने से परहेज करने का निर्देश दिया है। फरमान काम नहीं कर रहा है। ताजा घटना शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम सिंह मजीठिया को ड्रग्स मामले में गिरफ्तार नहीं किए जाने को लेकर है। इस मामले में सिद्धू की गृह मंत्री सुखजिंदर रंधावा से अनबन हो गई।

सिद्धू जैसे जाट सिख रंधावा ने इस मुद्दे पर इस्तीफे की पेशकश की है। सिद्धू और रंधावा दोनों का पंजाब के ऊपरी माझा क्षेत्र में दबदबा है, जिसका प्रतिनिधित्व राजिंदर बाजवा, सुखबिंदर सरकारिया, ओम प्रकाश सोनी और राज्यसभा सांसद प्रताप सिंह बाजवा जैसे नेता भी करते हैं। सिद्धू का अपने-अपने इलाकों में रैलियां करना इन नेताओं को रास नहीं आ रहा है।

कांग्रेस ने एआईसीसी महासचिव अजय माकन के नेतृत्व में एक स्क्रीनिंग कमेटी का गठन किया है। दिसंबर के अंत में दो विधायक, फतेहजंग बाजवा (कादियान) और उनके पूर्व शिष्य बलविंदर लड्डी (श्री हरगोबिंदपुर) भाजपा में शामिल हो गए। यह उनके निर्वाचन क्षेत्रों में सिद्धू की रैलियों के एक सप्ताह बाद हुआ। चन्नी अंततः लड्डी को कांग्रेस में वापस आने के लिए मनाने में कामयाब रहे।

चन्नी खेमा सिद्धू के राज्यसभा सांसद शमशेर सिंह डुल्लो के समर्थन को मुख्यमंत्री पर अप्रत्यक्ष हमले के रूप में देखता है। सिद्धू ने दिसंबर के अंतिम सप्ताह में डुल्लो से मुलाकात की थी, जहां दलित छात्रों के लिए छात्रवृत्ति और राज्य में जहरीली शराब त्रासदी से संबंधित कथित घोटालों पर चन्नी की चुप्पी को उठाया गया था। दुल्लो और चन्नी एक दूसरे से आंख मिला कर नहीं देखते। पीपीसीसी प्रमुख के रूप में दुल्लो ने 2007 में चन्नी को चमकौर साहिब से टिकट देने से इनकार कर दिया था।

इस बीच सिद्धू पंजाब के लिए अपना खुद का विकास मॉडल लोगों के सामने पेश कर रहे हैं। प्रताप बाजवा के नेतृत्व वाली घोषणापत्र समिति अभी भी मसौदे पर काम कर रही है। जहां तक ​​चुनाव की बात है तो सिद्धू को अपने ही निर्वाचन क्षेत्र अमृतसर पूर्व में कड़ी मेहनत करनी पड़ सकती है। जाहिर तौर पर ज्यादातर कांग्रेस नेता चाहते हैं कि वह वहां की लड़ाई हार जाएं। अमृतसर पूर्व के निवासी अक्सर उनकी अनुपलब्धता की शिकायत करते हैं। इससे पहले सिद्धू की पत्नी यहीं से विधायक थीं।

एक और योजना पर काम चल रहा है कि सिद्धू को उनके पैतृक शहर पटियाला से मैदान में उतारा जाए और वहां अमरिंदर को चुनौती दी जाए। लेकिन पटियाला में भाजपा द्वारा अमरिंदर का समर्थन करने से यह आसान नहीं होने वाला है।

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