हिंदू धर्म के अनुसार अनेक परंपराएं ऐसी हैं। जिनको अधिकांश धर्म मानने वाले फॉलो करते हैं, लेकिन इनका सही कारण नहीं जानते। आइए आज हम आपको बताते हैं कुछ ऐसी ही परंपराओं और उनसे जुड़े असली कारणों के बारे में…
1. चतुर्थी पर चंद्रमा की पूजा क्यों की जाती है?
चतुर्थी स्त्रियों के लिए बड़ा ही महत्वपूर्ण पर्व व अवसर होता है। पत्नियों की ऐसी दृढ़ मान्यता है कि चंद्रमा की पूजा करने और कृपा प्राप्त करने से उनके पति की उम्र व सुख-समृद्धि में इजाफा होता है, लेकिन इस परंपरा को बनाए जाने के पीछे वैज्ञानिक कारण क्या है ये बहुत कम लोग जानते हैं। दरअसल, चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक होने के कारण, पृथ्वीवासियों को बड़ी गहराई से प्रभावित करता है।
कहते हैं चंद्रमा से निकलने वाली सूक्ष्म विकिरण इंसान को शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर असर डालती हैं।चौथ या महीने की अन्य चतुर्थी के दिन चंद्रमा की कलाओं का प्रभाव विशेष असर दिखाता है। इसलिए चतुर्थी के दिन की पूजा से विशेष लाभ होता है।चंद्रमा को जल चढ़ाते समय, चंद्रमा की किरणें पानी से परावर्तित होकर साधक को आश्चर्यजनक मनोबल प्रदान करती हैं। ज्योतिष के अनुसार चंद्र की पूजा जरूर करना चाहिए, क्योंकि चंद्रमा को मन का कारक या देवता होने के कारण मन को सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास से भर देता है।
2. आरती के बाद चरणामृत क्यों लेना चाहिए?
हिंदू धर्म में आरती के बाद भगवान का चरणामृत दिया जाता है। इस शब्द का अर्थ है भगवान के चरणों से प्राप्त अमृत। इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है व मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन किया जाता है। इसे अमृत के समान माना गया है। कहते हैं भगवान श्रीराम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया, बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया। चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है। चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को खत्म करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है। उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है। इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है, जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है। ऐसा माना जाता है कि चरणामृत मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।
3. मंदिर में दर्शन करने के बाद परिक्रमा करना जरूरी क्यों?
भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। परिक्रमा करने का व्यवहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है।
मंदिर में भगवान की प्रतिमा के चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा का घेरा होता है, यह मंत्रों के उच्चारण, शंख, घंटाल आदि की ध्वनियों से निर्मित होता है। हम भगवान कि प्रतिमा की परिक्रमा इसलिए करते हैं ताकि हम भी थोड़ी देर के लिए इस सकारात्मक ऊर्जा के बीच रहें और यह हम पर अपना असर डाले।इसका एक महत्व यह भी है कि भगवान में ही सारी सृष्टि समाई है, उनसे ही सब पैदा हुए हैं, हम उनकी परिक्रमा लगाकर यह मान सकते हैं कि हमने सारी सृष्टि की परिक्रमा कर ली है।
4. हल्दी का उपयोग शुभ माना जाता है क्योंकि…
हल्दी की छोटी सी गांठ में बड़े गुण होते हैं। शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां हल्दी का उपयोग न होता हो। पूजा-अर्चना से लेकर पारिवारिक संबंधों की पवित्रता तक में हल्दी का उपयोग होता है। इसका सबसे ज्यादा उपयोग घर के दैनिक भोजन में होता है। स्वास्थ्य के लिए ये रामबाण है। हल्दी का उपयोग शरीर में खून को साफ करता है। इसके उपयोग से कई असाध्य बीमारियों में फायदा होता है।
इसका उपयोग भोजन के स्वाद को बढ़ा देता है।तंत्रशास्त्र के अनुसार, बगुलामुखी पीतिमा की देवी हैं। उनके मंत्र का जप पीले वस्त्रों में व हल्दी की माला से होता है। धर्म दर्शन में भी हल्दी को पवित्र माना जाता है। ब्राह्मणों में पहना जाने वाला जनेऊ तो बिना हल्दी के रंगे पहना ही नहीं जाता है।जब भी जनेऊ बदला जाता है तो हल्दी से रंगे जनेऊ को ही पहनने की प्रथा है। इसमें सब प्रकार के कल्याण की भावना निहित होती है। सौंदर्य को निखारने में भी हल्दी की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज भी गांवों में नहाने से पहले शरीर पर हल्दी का उबटन लगाने का चलन है। कहते हैं इससे शरीर की कांति बढ़ती है और मांसपेशियों में कसावट आती है। हल्दी को शुभता का संदेश देने वाला भी माना गया है।
आज भी जब कागज पर विवाह का निमंत्रण छपवाकर भेजा जाता है, तब निमंत्रण पत्र के किनारों को हल्दी के रंग से स्पर्श करा दिया जाता है। कहते हैं कि इससे रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है।वैवाहिक कार्यक्रमों में भी हल्दी का उपयोग होता है। दूल्हे व दुल्हन को शादी से पहले हल्दी का उबटन लगाकर वैवाहिक कार्यक्रम पूरे करवाए जाते हैं। इतने गुणों के कारण ही हल्दी को पवित्र माना जाता है।
5. पूर्व दिशा की ओर मुंह करके ही पूजा क्यों करनी चाहिए?
जब भी कोई बड़ा पूजन पाठ करवाया जाता है तो पंडितजी पूर्व की ओर मुंह करके बैठने को कहते हैं। दरअसल, केवल विशेष पूजा-पाठ के समय ही नहीं, बल्कि हमेशा पूजा करते समय पूर्व दिशा की ओर ही मुंह रखना चाहिए, क्योंकि किसी भी घर के वास्तु में ईशान्य कोण यानी उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा का बड़ा महत्व है।
वास्तु के अनुसार ईशान्य कोण स्वर्ग दरवाजा कहलाता है। माना जाता है कि ईशान्य कोण में बैठकर पूर्व दिशा की और मुंह करके पूजन करने से स्वर्ग में स्थान मिलता है, क्योंकि उसी दिशा से सारी ऊर्जाएं घर में बरसती है। ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है। वास्तु पुरुष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है। साथ ही, पूर्व दिशा को गुरु की दिशा माना जाता है।
ज्योतिष के अनुसार गुरु को धर्म व आध्यात्म का कारक माना जाता है। ईशान्य कोण का अधिपति शिव को माना गया है। मान्यता है कि इस दिशा की ओर मुंह करके पूजा करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का निवास होता है। बाद में, ये ऊर्जाएं पूरे घर में फैल जाती हैं।
6. गणेशजी को मोदक का भोग क्यों लगाना चाहिए?
श्रीगणेशजी को मोदकप्रिय कहा जाता है। वे अपने एक हाथ में मोदक से भरा पात्र रखते है। मोदक को महाबुद्धि का प्रतीक बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया।मोदक देखकर दोनों बालक (स्कन्द व गणेश) माता से मांगने लगे। तब माता ने मोदक के प्रभावों का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आएगा, उसी को मैं यह मोदक दूंगी।
माता की ऐसी बात सुनकर स्कन्द ने मयूर पर बैठकर कुछ ही क्षणों में सब तीर्थों का स्नान कर लिया। इधर लंबोदर गणेशजी माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गए। तब पार्वतीजी ने कहा- समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान, संपूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान व सब तरह के व्रत, मंत्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते।
इसलिए यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। इसलिए देवताओं का बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूं। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी हर यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी। उसके बाद महादेवजी बोले- गणेश के अग्रपूजन से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।
गणपत्यथर्वशीर्ष के अनुसार यो दूर्वाकुंरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति, स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।
मतलब जो गणेश जी को दूर्वा चढ़ाता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो धान अर्पित करता है, वह यशस्वी होता है, मेधावान् होता है। जो मोदकों द्वारा उनकी उपासना करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। श्री गणपति के अर्थवशीर्ष के इस श्लोक से गणेश जी की मोदकप्रियता की पुष्टि होती है।गणेशजी को मोदक यानी लड्डू बहुत प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है।
7. घर के मुख्यद्वार पर क्यों लगाते हैं शुभ चिन्ह?
किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में घर के मुख्यद्वार पर या बाहर की दीवार स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। स्वस्तिक श्रीगणेश का ही प्रतीक स्वरूप है। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, इसलिए स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।
वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का चित्र या स्वस्तिक बनाने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है। ऐसे घर में हमेशा गणेशजी कृपा रहती है और धन-धान्य की कमी नहीं होती। साथ ही, स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है। इसी वजह से घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का छोटा चित्र लगाएं या स्वस्तिक या अपने धर्म के अनुसार कोई शुभ या मंगल चिन्ह लगाएं।