भारत-अमेरिका समझौते के खिलाफ घरेलू स्तर पर विरोध का चीन की कोशिश

नई दिल्ली. पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने हाल ही में रिलीज हुई अपनी नई किताब द लॉन्ग गेमः हाऊ द चाइनीज निगोशिएट विद इंडिया में भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लेकर कई चौंकाने वाले दावे किए हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण भारत की घरेलू राजनीति में परमाणु समझौते के खिलाफ स्थानीय स्तर पर विरोध खड़ा करने के लिए चीन द्वारा वामपंथी पार्टियों के साथ अपने निकट संबंधों का इस्तेमाल करना है. गोखले ने इसे भारत की घरेलू राजनीति में चीन का राजनीतिक रूप से संचालित पहला कदम माना है. पूर्व विदेश सचिव के इस रहस्योद्घाटन से भारत में लंबे समय में इसके राजनीतिक और कूटनीतिक प्रभाव हो सकते हैं.
2007-09 के दौरान विजय गोखले, संयुक्त सचिव, पूर्वी एशिया के तौर पर विदेश मंत्रालय में चीन से जुड़े मामलों को देख रहे थे. इस दरम्यान भारत और अमेरिका के बीच परमाणु समझौते पर बातचीत चल रही थी और न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप में बीजिंग के झुकने के बाद भारत को हरी झंडी मिल गई थी. गोखले ने अपनी किताब में लिखा है, “चीन ने भारत में लेफ्ट पार्टियों के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल किया. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के शीर्ष नेता यात्रा या मेडिकल ट्रीटमेंट के लिए चीन का दौरा करेंगे.”
पूर्व विदेश सचिव ने लिखा है, “सीमा विवाद या द्विपक्षीय संबंधों के अन्य मामलों में दोनों पार्टियां बेहद राष्ट्रवादी हैं, लेकिन चीनियों को यह पता था कि भारत-अमेरिका परमाणु डील को लेकर उनकी कुछ बुनियादी चिंताएं हैं.” गोखले के मुताबिक डॉ. मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में लेफ्ट पार्टियों के प्रभाव को देखते हुए चीन ने शायद अमेरिका के प्रति भारत के झुकाव के बारे में उनके डर का इस्तेमाल किया. भारत की घरेलू राजनीति में यह चीन के प्रवेश का पहला उदाहरण हो सकता है, लेकिन चीनी पर्दे के पीछे रहने को लेकर सावधान थे.
गोखले का कहना है कि 1998 के न्यूक्लियर टेस्ट के मुकाबले इस दौरान चीन की भारत के साथ बातचीत के लिए अपनाई गई स्थिति बिल्कुल उलट थी. पूर्व विदेश सचिव कहते हैं कि 123 डील और एनएसजी से भारत जिस स्पष्ट छूट की मांग कर रहा था, उसका जिक्र चीनियों ने कभी भी द्विपक्षीय बैठकों में नहीं किया और जब भी भारत ने इस मुद्दे को उठाया तो शायद ही कभी चर्चा हुई हो.
उन्होंने लिखा है, “बावजूद इसके चीनियों ने भारत में लेफ्ट पार्टियों और लेफ्ट के प्रति झुकाव रखने वाले मीडिया का इस्तेमाल किया, जिन्हें परमाणु हथियारों को लेकर वैचारिक समस्या थी. चीन की कोशिश इन पार्टियों के जरिए भारत-अमेरिका समझौते के खिलाफ घरेलू स्तर पर विरोध खड़ा करने की थी. भारत की घरेलू राजनीति में यह चीन द्वारा राजनीतिक रूप से संचालित पहला कदम कहा जा सकता है. भारतीय हित समूहों के साथ हेर फेर में चीन बहुत ज्यादा परिष्कृत होता जा रहा है.”
2008 में भारत अमेरिका परमाणु समझौते के समय सीपीआई(एम) के महासचिव प्रकाश करात से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया. “परमाणु समझौते का हमने विरोध इसलिए किया क्योंकि यह भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक संबंधों को प्रगाढ़ कर रहा था, जिसके केंद्र में सैन्य सहयोग था. यही कारण था कि हमने विरोध किया. इस डील के बाद जो स्थिति आज बनी है, वह सबके सामने है. परमाणु समझौते से हमें क्या मिला? कुछ नहीं हुआ. हुआ ये है कि हम अमेरिका के साथ सैन्य और रणनीतिक मामलों में और ज्यादा घनिष्ठ हो गए हैं. और यही बात थी जो हम उस समय कह रहे थे कि परमाणु डील हुई तो क्या होगा.”
उन्होंने कहा, “हमारी समझ थी कि परमाणु समझौता हुआ तो भारत पूरी तरह अमेरिका पर रणनीतिक रूप से निर्भर हो जाएगा.” परमाणु समझौते पर चीन के साथ किसी भी तरह के संपर्क के बारे में प्रकाश करात ने सीधे तौर पर इनकार कर दिया और कहा कि हमारी इस बारे में कोई चर्चा नहीं हुई.