अमेरिका में करते है क्या ? भारत-पाकिस्तान से लेकर इजरायल और तुर्की के आर्मी ऑफिसर
भारत-पाकिस्तान से लेकर इजरायल और तुर्की के बीच अक्सर ही तनाव दिखता रहा है. कई बार सीमाओं पर छुटपुट हिंसा की खबरें भी आती रहती हैं और हमेशा किसी न किसी मुद्दे पर देश आपस में भिड़े होते हैं. वहीं इन देशों की आर्मी आपस में एक साथ युद्ध अभ्यास से लेकर खुद को ज्यादा मजबूत करने के तौर-तरीके सीख रही हैं. ये प्लेटफॉर्म उन्हें अमेरिका के इंटरनेशनल मिलिट्री एजुकेशन प्रोग्राम पर मिला है.
अलग-अलग देशों और यहां तक कि दुश्मन देशों की सेना के अफसर आपस में मिलते हैं और अमेरिकी सैन्य प्रोग्राम को करीब से देखते हैं. इसके तहत वे यूएस आर्मी वॉर कॉलेज और नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी भी जाते हैं ताकि सेना की नई प्रैक्टिस अपना सकें.
दुश्मन देशों को भी मिलती है समान ट्रेनिंग
आर्मी अफसरों के लिए ये एक खास तरह का कोर्स है. इसमें भारत समेत, पाकिस्तान, इजरायल और तुर्की के अफसर भी आते हैं. मजेदार बात ये है कि तनावग्रस्त देशों को एक ही कोर्स कराया जाता है और उनकी ट्रेनिंग भी एक साथ होती है. हां, ये बात और है कि वे इसी ट्रेनिंग का इस्तेमाल अपने देश लौटकर दुश्मन देश को कमजोर करने के लिए करते हैं.
प्रोग्राम में कुछ ही देश नहीं, बल्कि पूरे 25 देशों की सेना के अफसर शामिल होते हैं. इस तरह से एक इंटरनेशनल माहौल बन जाता है, और मिलकर सभी युद्ध की प्रैक्टिस करते हैं. अमेरिका, जो ये ट्रेनिंग देता है, उसका मकसद देशों से अच्छे संबंध बनाना और सैन्य अभ्यास के ज्यादा एडवांस तौर-तरीके सीखना है.
आमतौर पर यूएस आर्मी वॉर कॉलेज या फिर नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी में ये कोर्स होता है. हर साल इसकी ट्रेनिंग में कुछ नई चीजें जोड़ी जाती हैं जो पहले से ज्यादा एडवांस होती हैं. कोर्स में थ्योरी भी पढ़ाई जाती है ताकि अफसरों को ग्लोबल नियमों की जानकारी रहे. इसमें ह्यूमन राइट्स से लेकर अलग भाषाओं का बेसिक ज्ञान भी मिलता है.
भारत लगभग हर साल ही अपने सैन्य अफसरों को इस पढ़ाई के लिए भेजता है. अमेरिकी रक्षा विभाग के मुताबिक भारत को साल 2003 से सालाना इसमें शामिल होने के लिए 1 मिलियन डॉलर मिलते रहे हैं. यहां तक कि 9 पूर्व नेवी प्रमुखों में से 7 ने अमेरिकी ट्रेनिंग ली थी.
अमेरिका इस सैन्य ट्रेनिंग का मेजबान होता है लेकिन कई देशों से अमेरिकी संबंध भी उतने अच्छे नहीं हैं, तब फिर सारी चीजें कैसे होती हैं, ये सवाल भी आता रहा है. जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने राष्ट्रपति पद पर आने के बाद से एक बार भी पाकिस्तानी पीएम इमरान खान से बातचीत नहीं की. इससे साफ है कि अमेरिका को पाकिस्तान से खास लगाव नहीं. लेकिन इसके बाद भी वो पाकिस्तानी अफसरों को ट्रेनिंग के लिए आमंत्रित करता है.
इसका उद्देश्य साउथ एशिया में अपने पैर मजबूत करना है. इसके अलावा अमेरिका इस साल के अंत तक अफगानिस्तान से अपने सैनिक हटा लेगा. ऐसे में वहां शांति बनाए रखने के लिए पाकिस्तान का साथ जरूरी है. यही कारण है कि तनाव के बाद भी पाकिस्तानी सेना को अमेरिका में ट्रेनिंग मिलती रही.
पाकिस्तान को ट्रेनिंग से निकाला भी जा चुका है. ये साल 2018 में ट्रंप प्रशासन के दौरान हुआ था. अमेरिका चाहता था कि इस्लामाबाद आतंकियों को फंडिंग या शरण देना बंद कर दे. इसी बात के लिए दबाव बनाते हुए उसने ये फैसला लिया था.
अमेरिका से तनाव बढ़ने पर पाकिस्तानी सेना रूस के साथ जा मिली. साल 2018 में ही अमेरिकी पाबंदी के बाद पाक सेना ने रूस के साथ ट्रेनिंग के लिए एग्रीमेंट साइन किया. एग्रीमेंट में था कि पाकिस्तानी सैनिक ट्रेनिंग के लिए रूसी मिलिट्री इंस्टीट्यूट जा सकेंगे, जैसा पहले अमेरिका के साथ था. इस बात को लेकर भी अमेरिका पर दबाव बढ़ा कि वो पाकिस्तान की पाबंदी हटाए. सालभर बाद पाबंदी हटा ली गई.