सोचे विचारें

शब्द धोखा दे देते है; मौन, हावभाव और संकेतों से सत्य को बेहतर जान सकते हैं !

यदि शब्द संवाद का प्रमुख या विश्वसनीय साधन होते तो गूंगों-बधिरों में संवाद ही न हो पाता। सच्चाई यह है कि उनके बीच मंशाओं, हर्षोल्लास या व्यथा का आदान-प्रदान सामान्य व्यक्तियों से कम नहीं होता। विशेषज्ञों ने संवादों में शब्दों का योगदान अधिकतम पचास प्रतिशत माना है। शेष किरदारों के चेहरे व अन्य अंगों के हावभाव, भंगिमाओं, स्वर की तीव्रता, इसके उतार-चढ़ाव आदि से संपन्न होता है। सांकेतिक या न्यूनतम शब्दों वाली भाषा में लागलपेट नहीं होता, इसमें जोड़तोड़ की संभावना नहीं रहती। इसके विपरीत शब्दों में प्रवीण व्यक्ति भूल जाता है कि पांडित्य उत्कृष्ट मानवीय गुण नहीं है तथा कोरा शब्दज्ञान व्यक्ति को नैतिक या अन्य दृष्टियों से उच्च नहीं बनाता। शब्दों का खिलाड़ी बहुधा निजी स्वार्थ की आपूर्ति में शब्दों से हेरफेर कर डालता है। शब्द और तर्क के खेल से सत्य की दुर्गत की मिसाल सुप्रीम कोर्ट के इस तरह के फैसले से उजागर होती है – हम समझ रहे हैं कि अभियुक्त ने संगीन अपराध किया है किंतु वकील की तर्कसंगत दलीलों और साक्ष्य के अभाव को अभियुक्त को बरी किया जाता है।

विडंबना है कि प्रत्येक भाव या विचार के लिए शब्द नहीं हैं। फलस्वरूप जो भी शब्द सूझें, वही उडेल दिए जाते हैं जिससे प्रायः विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिए दूसरे की मंशा जानने के लिए हावभाव तथा संकेतों को समझना बेहतर रहता है। आदि मानव को भले ही शब्द और भाषा का ज्ञान न था किंतु अपनी मंशाएं दूसरों तक पहुंचाने के उसके पास अन्य जुगतें थीं। शब्द और भाषा का प्रादुर्भाव सभ्यता के अनुवर्ती चरणों में हुआ। दिलचस्प यह है कि शब्दों के ज्ञान और व्यवहार में प्रवीणता हासिल करते-करते उसके संवादों में छद्म और नकलीपन का घालमेल होने लगा, तथा शब्द सत्य से दूर होते चले गए। नतीजन सुने या पढ़े शब्दों की साख घटने लगी।

शब्दों का उद्गम: शब्द की व्युत्पत्ति पर तनिक विचार करें। एक धारणा के अनुसार भगवान शिव द्वारा भिन्न-भिन्न विधियों से डमरू बजाए जाने पर जो नानाविध ध्वनियां और ताल उत्पन्न हुए उन्हें सांकेतिक आकृतियां के रूप में दर्ज किया गया, इन्होंने कालांतर में अक्षर और भाषा का रूप लिया। शब्द विचार और भाव का वाहन है और शब्दों का साहचर्य देवत्व से है। दैविक स्वरूप के चलते विचार और भाव सृष्टि की सर्वाधिक रहस्यमय, अबूझ अस्मिताएं हैं। विचार और भावों का विस्तार अनंत है। इनके आदान-प्रदान का दारोमदार दुर्भाग्य से पूर्णतः शब्दों पर माना गया है।

सभी भावों के लिए शब्द नहीं हैं: शब्दों को ले कर दो भारी चुनौतियां हैं। पहली – समृद्ध भाषाओं में भी शब्दों की सीमाएं हैं। मस्तिष्क और हृदय में जो भी विचार या भाव उत्सर्जित होते हैं, आवश्यक नहीं शब्दकोशों में उनके लिए उचित शब्द उपलब्ध हों। खलील जिब्रान कहते हैं, ‘‘विचार अंतरिक्ष का पक्षी है जो शब्दरूपी पिंजड़े में फड़फड़ा भर सकता है, अपने पंख फैला नहीं सकता।’’ अनेक साहित्यकारों ने प्रेम, दुख तथा अन्य मनोभावों की अभिव्यक्ति में सही शब्द न मिलने पर छटपटाहट जताई है। टी. एस. ईलियट कहते हैं, ‘‘अफसोस है कि शब्द इतने कम हैं।’’ एक अन्य विचारक ने कहा कि शब्द वास्तविकता को केवल आधा-अधूरा ही प्रस्तुत कर सकते हैं। प्रेम, विरह, हर्षोल्लास या विषाद की अभिव्यक्ति में शब्दों का सदा टोटा रहता है।

आमजन का सीमित शब्द ज्ञान: शब्दों के साथ दूसरी समस्या हमारे अज्ञान को ले कर है। किसी घटना या परिस्थिति के मर्म तक पहुंचने में मौखिक या लिखित शब्दों का सहायक होने के स्थान पर बाधक बनने का प्रमुख कारण किरदारों का अल्प शब्दज्ञान भी है। अधिसंख्य व्यक्ति जितने भी सीमित शब्द जानते, समझते हैं उसका एक अंश ही बोलने-लिखने में व्यवहार में लाते हैं। विशेषकर भावावेश या क्रोध में उचित शब्द न सूझने पर व्यक्ति बहुत कुछ वह उगल देता है जो प्रायः अभीष्ट नहीं होता, और बवाल हो जाता है।

मौन की अथाह शक्ति: प्रेम तथा अन्य मधुर भावों की भाषा मौन की होती है। लोकजीवन में शब्दों से विवाद, वैमनस्य और मनमुटाव बढ़ता है, और सौहार्द घटता देखा गया है। शब्दों के कोलाहल में संवाद संभव ही नहीं होता। इसीलिए सदियों से अनेक सिद्ध धर्मगुरु और संत मौन संस्कृति के उपासक रहे। ओशो ने जनसमुदाय को विभाजित करने में भाषाओं को दोषी बताया है। उनकी राय में समुदायों हृदयों को जोड़ने का कार्य मौन और स्वीकृति करते हैं। शब्दों के उथलेपन की तुलना में मौन प्रचंड शक्तिसंपन्न है और मानव जीवन को सार्थक बनाता है ।

हरीश बड़थ्वाल

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