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women’s day special : महिलायें स्वयंसिद्धा या मोम की गुडि़या!

स्वाति द्विवेदी :  प्राचीन काल से ही महिलाओं का सम्मान इस समाज में रहा है और उनको देवताओं की श्रेणी में रखा गया है तभी कहा गया ‘‘येस्तु नायित्रि पूज्यते, तस्य रमन्ते देवता’’ किन्तु बदलते समय के साथ – साथ समाज में उनका स्थान बदलता जा रहा है कभी देवी की तरह पूज्यनीय नारी को आज के समाज में उपभोक्ता की वस्तु बनाकर रख दिया गया है। कहने को तो उसको आधी आबादी की संज्ञा दे दी गई है साथ ही समाज के मूर्धन्य लोगयह कहते की नारी पुरूषों के कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ी है। कुछ मायनों में यह सही भी प्रतीत होता है किन्तु वास्तविक धरातल पर अगर इसका परीक्षण किया जाये तो यह आभासी सा प्रतीत होता है।

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आज समाज में बढ़ने वाली धार्मिक कट्टरता, अंधविष्वासों और उन पर लगाये जाने वाले प्रतिबंध उनके राहों के सबसे बड़े बाधक है इन बाधाओं को सरकारों द्वारा समय समय पर दूर करने के काफी कोषिषों भी की जा रही है लेकिन वे कोषिषे नाकाफी है। आज का भारतीय ग्रामीण परिवेष भी काफी बदल रही है। वहां भी मोबाइल और इंटरनेट के विकास ने काफी तरक्की पसन्द महिलाओं के लिए विकास के द्वारा खोल दिये है। जिससे वे अपनी आवष्यकता के अनुसार विषयों का चयन करके उंगलियों की सहायता से ही सभी जानकारियों को प्राप्त करके अपने जीवन की दषा और दिषामें काफी सुधार कर रही है।

आज महिलायें वहां पहुंच रही है जो पुरूषों का पूर्ण रूपेण अधिकार क्षेत्र का विषय माना जाता था जैसे फाइटर जेट, हवाई जहाज उड़ाना, नेवी, भारतीय सेना के सभी अंगों में विभन्न स्थानों पर अपनी सेवायें दे रही है। देश के विकास में इनका योगदान विषेष रूप सें सराहनी है। किन्तु इसके साथ ही समाज का रवैया भी महिलाओं के लिए काफी बदला है चाहे कितनी भी तरक्की कर लें, लेकिन उन्हे समाज की मान्यता है कि एक पुरूष सानिध्य की आवष्यकता है वे कमजोर है। यह सोच जब तक खत्म नहीं होगी सही मायनों में नारी को स्वतंत्र और अपने पैरों पर खड़ा नहीं माना जा सकता है। केवल भारतीय समाज ही नहीं वरन् विकसित कहे जाने वाले यूरोपीय देषों मंे भी यही कट्टरपंथी विचारधारा कमोवेष यही स्थिति है।

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दूसरा पक्ष यह भी है कि महिलाओं में अपनी स्वतंत्रता और अस्तित्व को लेकर कोई खास रूचि और जागरूकता नहीं दिखती उपभोक्ता वादी दौर में उन्हे भी एक उपभोग किये जाने वाले उत्पादों के रूप में परोसा जाता है और जाने अंजाने वे इसका षिकार होती जा रही है। खास तौर पर मीडिया और विज्ञापनों में तो जैसे ऐसे विज्ञापनों की बाढ़ सी आ गई है जिनसे उनका दूर दूर तक कोई सरोकार नहीं है जैसे पुरूषों की शेविंग क्रीम, और पुरूषों के अंडरगारमेंन्टस में किसी महिला या लड़की का क्या काम है ? इसी प्रकार के और भी विज्ञापन है जो हमेषा अपने टी0वी0 स्क्रीन पर देखते है और आज का दौर है कि जो भी उत्पाद कोई महिला बेचेंगी वो बिकेगा ही बिकेगा।

women’s day special : महिलायें स्वयंसिद्धा या मोम की गुडि़या!

यह सभी चीजे यह प्रमाणित करती हैं कि महिलायें अभी भी ‘‘मोम की गुडि़या है’’। कुछ को छोड़कर क्योंकि हर समाज में कुछ न कुछ प्रतिमान स्थापित करने वाले लोग होते ही है। मेरी समझ में तो महिलाओं को अपनी अस्मिता की सुरक्षा स्वयं ही करनी होगी पुरूष सत्ततात्मक समाज उन्हें हमेषा ‘‘मोम की गुडि़या ही बनाये रखना चाहता है क्योंकि वे अपनी जरूरतों व आवष्यकताओं के अनुसार उनका इस्तेमाल करते रहेंगें और साथ यह भी कहेगें कि ‘‘नारी तुम दुर्गा हो’’ लेकिन इसके ठीक विपरीत परिस्थतियां कुछ और ही है वे आजा़दी के पक्ष में नहीं है। इसका जीता- जागता उदाहरण अफगानिस्तान की विषम परिस्थतियां और मुस्लिम शरिया कानून के नाम पर सिर्फ महिलाओं के अधिकारों का हनन करना है।

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एक पुरूष जैसे चाहे महिलाओं का उपभोग करे और वह सदैव कभी परिवार के नाम पर कभी समाज के नाम पर ठगीं जाती रहें। 8 मार्च को मनाया जाने वाला महिला दिवस केवल एक मात्र दिखावे का दिवस ही बनकर न रह जाये बल्कि सरकारे और समाज सही मायने में महिला हितों पर ध्यान दे। समाज में महिलाओं को भी यह सोचना होेगा कि वे केवल ‘‘ मोम की गुडि़या ’’ न बनकर ‘‘ स्वयं सिद्धा ’’ बने क्योंकि एक परिवार में जब एक महिला षिक्षित होती है तो पूरा घर- परिवार षिक्षित होता है और समाज भी षिक्षित और सांस्कृतिक रूप से मजबूत होगा क्योंकि परिवार में बच्चों के लालन पालन में महिलाओं का योगदान प्रमुख होता है।

सरकारें महिलाओं को अगर राजनीति में यह सोचकर अवसर देती हैं कि वे कुछ अपनी आधी आबादी के लिए करें तो वे महिलायें जो ग्राम प्रधान या अन्य प्रमुख राजनीतिक पदांे पर चयनित भी होती है तो उनके नाम पर दायित्वों का निर्वहन या राजनीति उनके पति, भाई या अन्य पारिवारिक सदस्य करते हैं तो वे मात्र केवल दिखावे के लिए पदों पर सुशोभित होती हैं और उनके पति प्रधान पति और अन्य पदों पर कार्य करते हैं, इस प्रकार से समाज में बदलाव कैसे संभव होगा जब वे अपने अधिकारों के प्रति इतनी शिथिल है।

महिलायें स्वयंसिद्धा या मोम की गुडि़या!

यदि हमें हमारे समाज को समुन्नत रूप से विकसित करना है और भारत को विष्वगुरू बनना है तो उसे अपने समाज के बच्चों और महिलाओं को उनके अधिकार और सुरक्षा प्रदान करनी होगी, महिलायें की महिलाओं कर किये जाने अपराधों सबसे आगे की पंक्ति मंे खड़ी पाई जाती है, इस बारें में उनको भी सोचना होगा। महिलाओं को खुद से खड़ा होना होगा और फिर से एक बार गार्गी, सीता, अनुसुइयां, कल्पना चावला, लक्ष्मीबाई बनना होगा इसके लिए उन्हे खुद खड़ा होना होगा कोई उन्हे यह प्लेट में परोस कर खाने को नहीं देगा यह भी इसी आधी आबादी को ही सोचना होगा।

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