पीएफआई पर पाबंदी क्यों नहीं?
हाथरस कांड के संदर्भ में एक बार फिर पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) का नाम उछला है। इस बार भी संगीन आरोप हैं। यह आतंकवादी संगठन है या आतंकपरस्त संगठन है अथवा कट्टरपंथी इस्लामी संगठन है या इसके मंसूबे ही संदिग्ध हैं, यह यथार्थ आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। हाथरस गांव की बेटी के साथ जो सामूहिक दुष्कर्म किया गया और बाद में उसकी मौत हो गई, वह मुद्दा अनपेक्षित रूप से उबल रहा है। सभी प्रमुख राजनीतिक दल ‘रोटियां’ सेंक रहे हैं और पीडि़त परिवार के साथ संवेदना जताने का ढोंग कर रहे हैं। दरअसल सोच और व्यवहार के स्तर पर कोई भी महिलावादी नहीं है। बेटियों और औरतों की सुरक्षा के सरोकार तब जागते हैं, जब हाथरस सरीखा कांड हो जाता है। अब हाथरस प्रकरण की आड़ में सांप्रदायिक दंगे या जातीय हिंसा भड़काने की कोई साजिश रची गई थी अथवा नहीं, यह तो उप्र सरकार स्पष्ट करेगी या केंद्र सरकार का गृह मंत्रालय कोई ठोस ‘लीड’ देगा। चूंकि मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुंच चुका है, उप्र सरकार हलफनामा दाखिल कर चुकी है, देश के प्रधान न्यायाधीश ने हाथरस कांड को ‘भयावह’ करार दिया है और उनकी अध्यक्षता में न्यायिक पीठ अगले सप्ताह सुनवाई शुरू करेगी, लिहाजा उसका फैसला भी गौरतलब होगा, लेकिन एक बार फिर पीएफआई पर शक किया जा रहा है।
उससे जुड़े चार संदिग्ध युवकों को मथुरा से गिरफ्तार भी किया गया है। दरअसल हर संभावित दंगे या राजनीतिक उत्तेजना अथवा शांति-व्यवस्था भंग जैसी देश-विरोधी गतिविधियों के संदर्भ में पीएफआई का नाम बार-बार उछलता रहा है। उस पर कोई निर्णायक फैसला क्यों नहीं लिया जाता या उसकी गतिविधियों पर पाबंदी क्यों नहीं थोपी जाती? क्या पीएफआई कोई ‘राजनीतिक ढाल’ है, जिसे तानकर पार्टियां सुरक्षित रहती आई हैं? पीएफआई का मौजूदा चेयरमैन ओ.एम.अब्दुल सलाम केरल सरकार के बिजली विभाग में वरिष्ठ कर्मचारी है और फिलहाल कोझिकोड में कार्यरत है। एक सरकारी कर्मचारी और पीएफआई का अध्यक्ष…केंद्र या केरल सरकार ने उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? दरअसल केरल, मुंबई से लेकर हाथरस तक पीएफआई को ही ‘खलनायक’ माना जाता रहा है। यहां तक कि उसे भारत में आईएसआईएस आतंकी संगठन का पर्याय भी करार दिया गया है। फिर भी पीएफआई का नाम दिल्ली, मुंबई, गुजरात, उप्र और बेंगलुरू के दंगों में प्रमुख रूप से आरोपित किया जाता रहा है। संघ, भाजपा के कई नेता और केंद्रीय मंत्री भी इस संगठन के खिलाफ बोलते रहे हैं, देश की खुफिया एजेंसियों ने भी पाबंदी चस्पा करने की कई बार सिफारिश की है। तो फिर ऐसे कौन-से कारण और अर्द्धसत्य हैं, जिनके मद्देनजर पीएफआई की सक्रियता को थामने का फैसला नहीं लिया जा सका है? पीएफआई का गठन 2006 में किया गया। यकीनन 14 लंबे सालों के अंतराल में इतना तो साफ हुआ है कि वह एक कट्टरपंथी मुस्लिम संगठन है।
सामाजिक कल्याण और मानव-हित के कार्यों के दावे किए जाते रहे हैं, लेकिन करीब 15 छोटे-बड़े मुस्लिम संगठन भी इससे जुड़े हैं। उनकी सहानुभूति और समर्थन पीएफआई के साथ लगातार रहा है। 2012 में केरल सरकार ने इस संगठन को बेनकाब किया था, लेकिन सांप्रदायिक आधार पर पाबंदी थोपने से इंकार कर दिया था। तत्कालीन और मौजूदा केरल सरकार पीएफआई और आरएसएस को, सांप्रदायिक तौर पर, एक समान संगठन ही मानती रही है, लिहाजा दलील रही है कि फिर तो ऐसे सभी संगठनों पर पाबंदी लगा देनी चाहिए। पीएफआई का अच्छा-खासा काडर है और तीन लाख से ज्यादा समर्थक हैं। सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया इसका राजनीतिक चेहरा है। हाथरस और उप्र के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक और जातीय हिंसा फैलाने का जो आरोप मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लगाया है, वही शिकायत शीर्ष अदालत में भी रखी है। साजिश में एक वेबसाइट का नाम लिया गया है, जो अब बंद है, लेकिन प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अभी तक की जांच में पाया है कि मॉरीशस से 50 करोड़ रुपए आए थे। स्थानीय स्तर पर करीब 90 लाख रुपए उप्र में ही बांटे गए थे, ताकि संगठित तौर पर उपद्रव मचाया जा सके। फिलहाल विषय सुप्रीम कोर्ट में है, तो व्यापक जानकारियां सामने आ सकती हैं। हमारा सवाल वही है कि इतने गंभीर और देश-विरोधी चरित्र के बावजूद पीएफआई और उसके सहयोगी संगठन देश में खुलेआम सक्रिय क्यों हैं?