
ईद-उल-फितर: देशभर में आज यानी 11 अप्रैल को ईद-उल-फितर का त्योहार मनाया जा रहा है. इसे मीठी ईद (मीठी ईद) के नाम से भी जाना जाता है. रमजान के पवित्र महीने के बाद ईद-उल-फितर मनाया जाता है. रमजान इस्लामिक कैलेंडर के नौवें महीने में होता है. रमजान में 30 दिन तक मुस्लिम, अल्लाह की इबादत करते हैं. अपने गुनाहों की माफी अल्लाह से मांगते हैं. रमजान का महीना खत्म होने के बाद ईद की तारीख चांद देखकर तय होती है. जब चांद दिखता है तो उस दिन को चांद मुबारक कहते हैं. फिर उसके अगले दिन ईद-उल-फितर मनाया जाता है. ईद-उल-फितर के अलावा मुस्लिमों एक और त्योहार ईद-अल-अजहा भी होता है. आम बोलचाल में दोनों त्योंहारों को ईद ही कहते हैं. दोनों में फर्क क्या है, आइए जान लेते हैं.
जान लें कि ईद-उल-फितर को मीठी ईद और ईद-उल-अजहा को बकरीद भी कहा जाता है. ईद-उल-फितर के करीब 70 दिन बाद ईद-उल-अजहा त्योहार मनाया जाता है. ईद-उल-फितर इस्लामिक कैलेंडर के 9वें महीने के खत्म होने पर तो बकरीद इस्लामिक कैलेंडर के आखिरी महीने में मनाई जाती है. ईद-उल-फितर पर सेवइयां बांटी जाती हैं. तो वहीं, ईद-उल-अजहा पर जानवर की कुर्बानी दी जाती है.
इस्लामिक मान्यता के मुताबिक, ईद-उल-फितर मनाना पहले शुरू किया गया था. ईद-उल-फितर का त्योहार इस्लाम के पैगंबर मुहम्मद साहब के जमाने से मनाया जाता है. सन् 624 ईस्वी में हुई जंग-ए-बदर के बाद पहली बार ईद-उल-फितर मनाया गया था. जंग में जीत हासिल करने के बाद ईद-उल-फितर उन लोगों के लिए एक इनाम के तौर पर था, जिन्होंने पूरे महीने रोजा रखा था.
ईद-उल-फितर के त्योहार पर मुस्लिम अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हैं. पूरे महीने रोजा रखने की ताकत देने के लिए धन्यवाद कहते हैं. ईद-उल-फितर पर एक खास रकम गरीबों के लिए निकाली जाती है. इस दान को जकात-उल-फितर कहा जाता है. ईद-उल-फितर को मीठी ईद यूं भी कहा जाता है क्योंकि मान्यता है कि महीनेभर के रोजों के बाद ईद पर जिस चीज को सबसे पहले खाया जाता है, वह मीठी होनी चाहिए. हालांकि, ईद-उल-फितर पर मिठाइयां बांटने, शीर खुरमा और सेवइयों की वजह से भी इसे मीठी ईद कहा जाता है.
गौरतलब है कि ईद-उल-अजहा का त्योहार, ईद-उल-फितर के करीब 70 दिन के बाद होता है. ईद-उल-अजहा को ईद-ए-कुर्बानी भी कहते हैं. ईद-उल-अजहा के दिन इस्लामिक नियमों का पालन करते हुए जानवर की कुर्बानी दी जाती है. ईद-उल-अजहा की शुरुआत हजरत इब्राहिम से मानी जाती है.
ईद-उल-अजहा को लेकर मान्यता है कि अल्लाह ने एक बार ख्वाब में हजरत इब्राहिम से उनकी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी मांगी. हजरत इब्राहिम के लिए यह इम्तिहान जैसा था क्योंकि उनको सबसे प्यारा उनका बेटा इस्माइल था. उनके सामने एक तरफ अल्लाह का हुक्म था और दूसरी तरफ उनका प्यारा बेटा इस्माइल. लेकिन हजरत इब्राहिम, अल्लाह का हुक्म मानकर अपने बेटे को कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए. हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे की कुर्बानी दी तो अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली. लेकिन कुर्बानी के बाद जब उन्होंने आंखें खोलीं तो उनका बेटा जिंदा था और बेटे की जगह दुंबा की कुर्बानी हो गई थी. इसके बाद से कुर्बानी देने की रिवाज है.