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कोरोना क्यों ललकार रहा है मानव के अस्तित्व को

 स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक
प्रगति और विकास के बदलते मानकों में हमने बड़ी-बड़ी ऊँचाइयाँ नापी है किन्तु गिरावटों का लेखा जोखा करने की आवश्यकता को शायद भूल ही गए। विकास की सीढि़याँ चढ़ते चढ़ते हम वह बहुत कुछ भूल और छोड़ चुके है, जो गिरावटों और फिसलनों से बचाता और उनके प्रति सजग और सचेत रखता। वैश्विक निकटताओं ने हमें नई उड़ाने और नए पंख तो दिए किन्तु वह दूरदर्शिता और विवेक बुद्धि नहीं दी जिससे अपनाने और तयागने की योग्यता अर्जित कर पाते। विकास का प्रतीक और मानक हमने भौतिक विज्ञान और उससे उपजी मशीनी सभ्यता को बना कर आज हम ‘मनुष्य’ से ‘मशीन’ में बदल चुके है। जहाँ मानवीयता-भावना और प्रेम त्याग दया करुणा जैसे भाव हाशिए पर चले गए है। जिनके कारण सभ्य-सृजनशील मानव-समाज का निर्माण सम्भव हुआ था। विश्व में शान्ति-स्वास्थ्य पर्यावरण संरक्षण जैसी विश्वस्तरीय संस्थाएं सक्रिय हो सकीं और विश्व के मानव समुदाय में प्रकृति की सुरक्षा के प्रति एक नैतिक दायित्व का भाव पनपा। किन्तु श्रेष्ठता-वर्चस्व प्रभाव क्षेत्र विस्तार जनित प्रतिद्वन्दि्वताओं के चलते आज मानव समुदाय जहाँ आ पहुँचा है वहाँ ‘कोरोना’ रूपी सर्वनाशी शत्रु सम्पूर्ण विश्व के भविष्य और अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न बन चुका है। इसका समूल नाश ही मानव सभ्यता का सम्बल बन सकता है। इससे बचाव के जो भी प्रयास आज सुनिश्चित हुए है उनमें सर्वाधिक स्वीकृत हुआ है, अलगाव और एकान्तवास क्यों ? क्यों कि वह हमें अपने भारतीय समाज की पुरानी परम्पराओं से जोड़ता है। पूर्व में हमारे यहाँ परम्परा थी कि घर में प्रवेश से पूर्व हाथ-पाँव धोकर ही घुसते थे। अतिथियों के पाँव धोने की क्रिया से ही उनका स्वागत होता था। जिसे हमने छुआ-छूत कहते हुए बिसरा दिया वह नियम था हर किसी के हाथ का बना भोजन न करना जिसका विशुद्ध आधार था यह सुनिश्चित करना कि भोजन स़फाई से शुद्ध रूप से बनाया गया है। यहाँ तक कि हम अंजान जगहों पर स्वयम भोजन बना कर खाते थे! भोजन करने का स्थान भी अधिकतर रसोई के पास ही होता था, ताकि बने हुए भोजन के किसी भी प्रकार के संक्रमण की सम्भावना न रहे। अनेक महिलाओं को याद होगा कि रसोई बनाने में लगी महिलाएं भोजन बनाते समय केवल रसोई तक ही सीमित रहती थी परिवार के अन्य सदस्य अन्य कार्यो को सम्पन्न करते थे।

हर किसी को न तो रसोई में जाने की अनुमति होती थी न ही हर जगह खाना खाया ही जाता था। एक कहावत थी ‘जैसा खाया अन्त वैसा बना मन।’ सार संक्षेप यह कि व्यक्ति के स्वास्थ्य और मानसिकता पर भोजन का पूरा प्रभाव पड़ता था। अब भी पड़ता है। प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत आज भी खाद्य सामग्री ही है। इसके अतिरिक्त हमारी जीवन शैली-आचार-विचार और व्यवहार सभी कुछ हमारे भोजन-सामाजिक और पारिवारिक वातावरण से प्रभावित ही नहीं संचालित भी होते है। आज कोरोना विषाणु के प्रसार ने हमें अपने सुदूर अतीत और भूली बिसरी परम्पराओं के बारे में सोचने को विवश कर दिया है। अन्न उपजाने से लेकर पकाने तक खाद-बीज से लेकर रसोई तक की खाद्य पदार्थो की यात्रा का यदि क्रमिक विवेचन करे तो हम मिट्टी, बीज, खाद, पानी से लेकर पकाने तक की प्रक्रिया की विवेचना और तुलना करे तो पाएंगे कि हमने तथाकथित विकास-सामाजिक समानता और छुआ छूत जैसे कृत्यों के नाम पर वैज्ञानिक यथार्थ और अपने पूर्वजों की जीवन, स्वास्थ्य, आयु आदि से सम्बन्धित ऐसी अनेक परम्पराओं को छोड़ कर भुला कर स्वयं अपने और अपनी आने वाली पीढि़यों के जीवन से खिलवाड़ ही किया है। आज हाथ धोते रहना, बाहर के कपड़े घर में न पहनना जैसे पुराने तौर तरीके याद आने लगे है – दोहराये जाने लगे है। जनता की आदतें सँवारने के लिए विज्ञापन का माध्यम बनने लगे है। सम्वेदनशीलता-विवेक और दूरदर्शिता की हमारी कसौटी पर कसे जाने योग्य अनेक प्रश्न कोरोना का वर्तमान संकट हमारे सामने रख चुका है। इसका अन्त होगा यह तो सुनिश्चित है पर वह हमारे भविष्य का कौन-सा द्वार खोलेगा यह अभी स्पष्ट नहीं है। ह़जारों जीवन खोकर आने वाला समाज जो बचा पाएगा, जैसी सीख ले पाएगा उसी से हमारा आने वाला कल निर्मित होगा। किन्तु यह प्रश्न इतने सब के बावजूद अपनी जगह खड़ा ही रहेगा कि जिस वर्चस्व प्राप्ति हेतु हमारे पडोसी मानवता की उपेक्षा करने वाले देश ने यह विषाणु विश्व में प्रसारित किया उसे उसका इससे मनचीता कुछ मिला भी?

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