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कच्चाथीवू द्वीप आखिर है कहां पर?(कच्चाथीवू द्वीप )

कच्चातिवु द्वीप : एक बार फिर चुनावी मुद्दा बन रहा है. खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है- ये द्वीप भारत का हिस्सा था लेकिन कांग्रेस सरकार ने इसे श्रीलंका को दे दिया. ऐसे में सवाल ये है कि आखिर कच्चातिवु द्वीप  (कच्चाथीवू द्वीप ) जो सदियों से भारत का हिस्सा था वो श्रीलंका के कब्जे में कैसे आ गया? कच्चाथीवू द्वीप आखिर है कहां पर? क्या है इसकी कहानी और क्या है इसका भूगोल?

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साल 2014 में गर्मियों के दिन थे…सुप्रीम कोर्ट में कच्चातिवु द्वीप को लेकर सुनवाई हो रही थी…तब तत्कालीन अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने एक बात कही जिसने वहां मौजूद सभी लोगों को चौंका दिया…उन्होंने कहा- कच्चाथीवू द्वीप 1974 में एक समझौते के तहत श्रीलंका को दिया गया था…आज इसे वापस कैसे लिया जा सकता है? अगर आप कच्चाथीवू को वापस चाहते हैं, तो आपको इसे पाने के लिए युद्ध करना होगा. अब आप पूछेंगे कि एक छोटे से द्वीप को वापस पाने के लिए भारत को किससे युद्ध करना होगा तो इसका जवाब है श्रीलंका…चौंकिए नहीं…ये द्वीप ऐन लोकसभा चुनाव से पहले एक मुद्दा बन चुका है. रविवार यानी 31 मार्च और उसके अगले दिन यानी 1 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस कच्चातिवु द्वीप के मामले को उठाया और आरोप लगाया कि कांग्रेस ने कच्चाथीवू द्वीप ‘संवेदनाहीन’ढंग से श्रीलंका को दे दिया था..ऐसे में सवाल ये है कि आखिर क्या है कच्चाथीवू का इतिहास और भूगोल और कैसे ये द्वीप अरबों रुपये का खजाना समेटे हुए है.

इसे समझने के लिए आपको 144 साल पहले चलना पड़ेगा. वो वक्त है जुलाई 1880…तमिलनाडु के अंतिम छोर पर बसे रामनाथपुरम के जिला डिप्टी कलेक्टर एडवर्ड टर्नर और स्थानीय राजा के बीच एक पट्टे पर दस्तखत हुए. पट्टे के तहत राजा को 70 गांवों और आसपास के 11 द्वीपों का मालिकाना हक दिया गया. इन 11 द्वीपों में से एक कच्चातिवु द्वीप भी था. इसके पांच सालों बाद इसी तरह का एक और पट्टा 1885 में भी बना.

इसके बाद साल 1913 में रामनाथपुरम के राजा और भारत सरकार के राज्य सचिव के बीच एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए. इसमें भी कच्चाथीवू द्वीप का जिक्र था. आप इसको दूसरे नजरिए से भी देख सकते हैं. भारत और श्रीलंका दोनों पर शासन करने वाली ब्रितानी हुकूमत ने कच्चातिवु को भारत का हिस्सा माना था न की श्रीलंका का.
अब यहां दो सवाल पैदा होते हैं…कच्चाथीवू द्वीप है कहां और ये रामानथपुरम के राजा कौन थे? सबसे पहले जवाब पहले सवाल का…साल 1755 और 1763 तक मद्रास प्रांत के गवर्नर थे रॉबर्ट पाल्क. उन्होंने भारत और श्रीलंका के बीच मौजूद रामसेतु या यूं कह लीजिए पाक जलडमरूमध्य की पहचान की और उन्हीं के नाम पर मूंगे और रेतीली चट्टानों के इस इलाके का नाम भी रखा गया. कच्चातीवु द्वीप इस के बीच मौजूद है. ये भारत के रामेश्वरम से 12 मील और जाफना के नेदुंडी से 10.5 मील दूर है. इसका क्षेत्रफल लगभग 285 एकड़ है. इसकी अधिकतम चौड़ाई 300 मीटर है. तमिल भाषा के मुताबिक इस कच्चातिवु का मतलब होता है बंजर जमीन. हालांकि जब आप इसकी तस्वीरें देखेंगे तो ये काफी हरा-भरा इलाका है. यहां अंग्रेजी शासन के दौरान एक चर्च बना था..जिसका नाम है सेंट एंटनी चर्च. अब भी इसकी इतनी मान्यता है यहां हर साल भारत से श्रद्वालु दर्शन के लिए जाते हैं. साल 2023 में ऐसे श्रद्धालुओं की संख्या 25 सौ से ज्यादा थी. ‘द गज़ेटियर’ के मुताबिक़, 20वीं सदी की शुरुआत में रामनाथपुरम के सीनिकुप्पन पदयाची ने यहां एक मंदिर का निर्माण कराया था और थंगाची मठ के एक पुजारी इस मंदिर में पूजा करते थे.

अब बात रामानाथपुरम के राजा की…इनका इतिहास रामायण काल से जुड़ता है. दरअसल रामानाथपुरम या रामनाद सम्राज्य के शासकों को सेतुपति की उपाधि मिली हुई थी. कहा जाता है कि जब लंका पर विजय प्राप्त करके भगवान राम वापस लौट रहे थे तो उन्होंने उनके द्वारा लंका तक बनाए गए पुल की सुरक्षा की जिम्मेदारी कुछ लोगों को दी गई. इन्हें सेतुपति कहा गया.
इन्हीं सेतुपति लोगों पर कभी चोल राजाओं ने शासन किया तो कभी पांड्या राजवंश के लोगों ने…बाद में अंग्रेजों के शासनकाल में इन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने जमींदारी दे दी थी. इन्हीं शासकों के अधीन 1947 तक यानी भारत की आजादी तक कच्चातिवु द्वीप भी रहा. हालांकि इस पर विवाद साल 1925 में उठा था तब श्रीलंका का जाफनापट्टनम के राजा ने इसे अपना इलाका बताया था लेकिन अंग्रेजों ने इस दावे को खारिज कर दिया.
बाद में 1974 और 1976 में भारत सरकार और श्रीलंका के बीच समझौता हुआ जिसमें ये द्वीप तब की इंदिरा गांधी सरकार ने श्रीलंका को सौंपा. तब उनका मतंव्य सिर्फ यह था कि इस निर्जन द्वीप को श्रीलंका को देने से पड़ोसी से अच्छे संबंध बने रहेंगे. हालांकि तमिलनाडु में हमेशा से इसका विरोध होता रहा. तब के तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने बकायदा विधानसभा में प्रस्ताव पास कर इसका विरोध किया था. इसके बाद जयललिता सरकार ने भी विधानसभा में कच्चातिवु को लेकर प्रस्ताव पास किया और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. देखा जाए तो ये तमिलनाडु के लिए आर्थिक और भावनात्मक दोनों ही मुद्दा है. आर्थिक इसलिए क्योंकि तमिलनाडु के आसपास की समुद्री सीमा में मछलियों का भंडार अब खत्म होने को है. लेकिन कच्चाथीवू के आसपास इसका प्रचुर भंडार है. हालांकि 1974 में जो समझौता हुआ था उसके मुताबिक भारतीय मछुआरे जाल सुखाने के लिए द्वीप का इस्तेमाल करेंगे.द्वीप पर बने चर्च पर जाने के लिए भारतीयों को वीजा की जरूरत नहीं होगी. इसके अलावा भारतीय मछुआरों को द्वीप पर मछली पकडऩे की इजाजत नहीं होगी. समझौते के तीसरे बिंदु को लेकर तब भी विरोध था और अब भी. श्रीलंका इस मुद्दे पर इस कदर आक्रमक है कि उसने 20 सालों में 6184 भारतीय मछुआरों को समुद्री सीमा का उल्लंघन करने पर गिरफ्तार किया साथ ही 1175 भारतीय फिशिंग बोट को भी सीज किया है. अब देखना ये है कि हमारा पड़ोसी और दोस्त मुल्क श्रीलंका इस मुद्दे पर कौन से रूख अख्तियार करता है.