विकास और भुखमरी के बीच का सच
! स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक!
सन् 1947 से लेकर अब तक भारत ने खाद्यान्न का उत्पादन 5 गुना बढ़ा लिया है, और अब वह इस क्षेत्र में निर्यातक भी बन गया है। इसके बावजूद वैश्विक स्तर पर पसरी भूख का एक-चैथाई बोझ भारत के ऊपर है।
2011 तक भारत ने संयुक्त राष्ट्र के मिलेनियम डेवलपमेंट गोल के अंतर्गत 2015 तक गरीबी कम करने के अपने लक्ष्य को पा लिया था, परन्तु देश में भूख के ग्राफ को कम नहीं कर पाया। यूँ तो अल्पपोषण के स्तर में कमी आई है। यह घटकर 15% रह गया है। फिर भी यह विश्व में सर्वाधिक है। 2015 के धारणीय विकास लक्ष्य नं. 2 के अनुसार भारत को 2030 तक भूख को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए। इसके लिए उसे 20 करोड़ लोगों के पोषण के स्तर को ठीक करना होगा।
कुछ तथ्य
पिछले 50 वर्षों में भारतीय मुख्य खाद्यान्न के दामों में कमी देखने में आई है। लेकिन सब्जी, फल और दालों के दाम बहुत बढ़ गए हैं। इसके कारण गरीब जनता में माइक्रोन्यूट्रियेन्ट तत्वों की लगातार कमी होती जा रही है। इसे एक तरह की ‘छुपी हुई भूख’ माना जा सकता है, जो पेट भरने के बाद भी कुपोषण के कारण बनी रहती है। इसके कारण बच्चों में बौनापन और ऊर्जा की कमी हो जाती है। साथ ही स्त्रियों में रक्ताल्पता (एनीमिया) हो जाती है।
कुपोषण के कारण न केवल बच्चों, बल्कि बड़ों की सीखने की क्षमता, शैक्षणिक स्तर, उत्पादकता और ऊर्जा में कमी आ जाती है।
कुपोषित बच्चों में उच्च मृत्यु दर पाई जाती है। इसके साथ ही बाल्यकाल में कुपोषित रहे वयस्कों में गैरसंक्रामक रोगों की संभावना अधिक होती है।
खाद्यान्न में विविधता लाकर पोषण के स्तर में सुधार किया जा सकता है। इसके लिए दो प्रकार से पहल करनी होगी। (1) स्थानीय क्षेत्र में खाद्य पदार्थों की विविधता हो, और वे आसानी से उपलब्ध हो सकें। (2) खाद्य नीति को पोषण आधारित तैयार किया जाए, जिससे निर्धन वर्ग को विविध खाद्य पदार्थों के खर्च को वहन करने की सामथ्र्य मिल सके।