ताजमहल (Taj Mahal)से दोगुना महंगा, कीमत सवा खरब रुपये

मुगल दौर की अगर कोई सबसे बेशकीमती चीज मानी जाएगी तो निश्चित तौर पर शाहजहां का नायाब मयूर सिंहासन (तख्त-ए-ताऊस) ही होगा. ताज महल (Taj Mahal) की कीमत से दोगुनी लागत से बना यह शायद उस दौर में दुनिया का सबसे महंगा सिंहासन था. इसमें लगे बेशकीमती मोती, माणिक, पन्ने, हीरे और सोने ने मयूर सिंहासन को बेमिसाल बना दिया. निर्णाण कला के इस बेहतरीन नमूने का आज भले ही नामोनिशान मिट चुका हो लेकिन इसके बेशकीमती हीरे, पन्ने, मोती आज भी यहां वहां दुनिया के बड़े खजानों में मौजूद हैं. कोहिनूर हीरा भी इसी का हिस्सा बताया जाता रहा है.
कैसे वजूद में आया मयूर सिंहासन
1628 में जैसे ही शाहजहां गद्दी पर बैठा उसने उस्ताद साद इ गिलानी को मयूर सिंहासन बनाने का आदेश दिया. इस सिंहासन के लिए शाहजहां ने सैकड़ों हीरे-मोती-माणिक और एक लाख तोला सोना दिया था. 7 साल में यह सिंहासन बन कर तैयार हो गया. 22 मार्च 1635 को शाहजहां मयूर सिंहासन पर बैठा. मयूर सिंहासन में तीन प्रमुख कवियों कलीम, सैदा और कुदसि की कविताएं उकेरी गई थीं. इसके ऊपर दो मोर की आकृतियां बनी हुई थीं. इन मोरों की पीठ पर रत्न जड़े हुए थे. सिंहासन के ऊपर चतुर्भुज आकार की छतरी बनी थी. एक दूसरे की ओर मुंह करके बने इन मोरों को एक रत्नजड़ित पेड़ अलग करता था. 108 माणिक और 116 पन्ने सिंहासन के बाहरी हिस्सों में लगे हुए थे. प्रत्येक माणिक का वजन 100 से 200 कैरट के बीच और प्रत्येक पन्ने का वजन 30 से 60 कैरट के बीच था. माणिक से बने 12 पाए 6 से 10 कैरट के चमकदार मोतियों की पंक्तियों से घिरे हुए थे. तीन रत्न जड़ित पायदानों से चढ़कर शाहजहां सिंहासन पर बैठता था. शाहजहां की सीट पर 12 कविताएं लिखी हुई थीं जो कुछ इस तरह से थीं..अलग-अलग रंगों के रत्नों की यह जगमगाहट, संसार में रोशनी फैलाने वाले दियों की तरह है…आदि. दीवाने खास में रखा जाने वाला यह सिंहासन दिल्ली और आगरा के दरबारों के बीच अक्सर लाया ले जाया जाता रहा
फ्रैंच यात्री ट्रेवर्नियर ने मयूर सिंहासन का बड़े विस्तार से वर्णन किया है. दरअसल 1665 में दिल्ली दरबार के दौरान उसे मयूर सिंहासन को करीब से देखने का मौका मिला. ट्रैवर्नियर लिखता है कि उसे एक नहीं बल्कि 7 बेशकीमती सिंहासन देखने को मिले. एक पूरी तरह हीरों से ढका हुआ था जबकि दूसरे पन्ने, माणिक और मोतियां से बने थे. मुख्य सिंहासन पहले दरबार के मुख्य हाल में रखा हुआ था. इसका आकार किसी तंबू के बिस्तर के बराबर था. यह कहना सही होगा कि यह 6 फीट लंबा और 4 फीट चौड़ा था. वहीं लाहौरी ने पादशाहनामा में इसकी लंबाई 9 फीट और चौड़ाई साढ़े सात फीट बताई है. इसके 4 भारी पाए थे जो करीब 20-25 इंच तक की ऊंचाई के थे. इन्हीं में 4 पाए जुड़े थे जोकि सिंहासन के आधार को जोड़े हुए थे. इन्हीं बार के ऊपर 12 कॉलम जुड़े हुए थे जिसपर एक छतरी सधी हुई थी तीन तरफ से. पायदानों और खंबों के ऊपर सोने की परत चढ़ी हुई थी. साथ ही इसमें हीरे, मोती और माणिक जड़े हुए थे. सिंहासन पर तीन कुशन रखे हुए थे. ट्रेवर्नियर लिखता है कि सिंहासन में सबसे खूबसूरत था 12 कॉलम और उसके ऊपर बनी छतरी. दरअसल इन कॉलम पर चमकदार मोतियों के ढेरों खूबसूरत घेरे बने हुए थे.
क्या थी इस मयूर सिंहासन की कीमत
कीमत और खूबसूरती के लिहाज से यह सिंहासन दुनिया के सबसे महंगे सिंहासन में गिना जा सकता है. ट्रैवर्नियर ने इसकी कीमत 1665 में करीब 10 करोड़ 70 लाख रुपये बताई थी और उस दौर में इसकी पाउंड में कीमत 1 करोड़ 20 लाख 37 हजार 500 पाउंड बताई गई थी. वर्तमान में शाहजहां के इस गायब हुए मयूर सिंहासन की कीमत 1369608693 पाउंड के बराबर है यानी एक खरब 35 अरब 9 करोड़ 43 लाख 67 हजार 572 रुपये है. फ्रैंच ट्रेवलर जीन डी थेवनोट ने इसकी कीमत 2 करोड़ सोने की मुहर बताई थी. वहीं फ्रांसिस बर्नियर ने इसकी कीमत 6 करोड़ फ्रैंच लिवर बताई थी.
1739 में मुगल शासकों की कमजोर स्थिति को भांपते हुए ईरान के शाह ने भारत पर हमला कर दिया और 13 फरवरी 1739 को करनाल के मैदान में मुगल बादशाह मोहम्मद शाह को हरा दिया. नादिर शाह दिल्ली में घुसा और उसने कत्लेआम मचा दिया. मई 1739 में नादिर शाह की फौज ने दिल्ली छोड़ दिया और मयूर सिंहासन समेत तमाम कीमती चीजों को ईनाम के तौर पर यहां से ले गई. नादिर शाह ने मयूर सिंहासन (तख्त ए ताऊस) के अलावा जिन कीमती चीजों को लूटा उनमें अकबर शाह, ग्रेट मुगल, ग्रेट टेबल, कोहेनूर और शाह नाम के बेशकीमती हीरे शामिल थे. ये बेशकीमती पत्थर या तो मयूर सिंहासन में जड़े थे या फिर मुगलों खानदार के पास खाजाने में मौजूद थे. बताया जाता है कि अकबर शाह नाम का हीरा मयूर सिंहासन में मौजूद मोर की आंख में जड़ा हुआ था. कोहेनूर भी मयूर सिंहासन में ही जड़ा हुआ था.
कहां गायब हो गया मयूर सिंहासन
मयूर सिंहासन का गायब होना आज भी एक पहेली बना हुआ है. 19 जून 1747 में ईरान के नादिर शाह का उसके ही एक करीबी ने कत्ल कर दिया. उसके बाद फैली अफरा-तफरी के दौरान मयूर सिंहासन गायब हो गया. कई का मानना है कि उसे टुकड़ों में तोड़कर अलग कर दिया गया और कोहेनूर समेत उसके कीमती रत्नों को निकाल लिया गया. बाद में ईरान के शासकों ने सन नाम से सिंहासन बनाया. कहा ये भी जाता है कि मयूर सिंहासन का निचला हिस्सा इसमें शामिल है.
कोहेनूर का सफर
नादिर शाह की सल्तनत खत्म होने के बाद कोहेनूर हीरा एक बड़े सरदार दुर्रानी के हाथ लग गया. दुर्रानी ने अफगान हुकूमत कायम की. 1809 में सिख साम्राज्य को कोहेनूर हीरा मिला. 1849 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने पंजाब पर अपना अधिकार कर लिया तो यह हीरा फिर ब्रिटिश शाही खजाने में चला गया और तब से ब्रिटिश राज घराने के ताज का हिस्सा बना हुआ है.
नकली सिंहासन बनाया गया
मयूर सिंहासन का जाना मुगलों के लिए बहुत बड़ा झटका था. इसकी कमी को पूरा करने के लिए इसकी एक प्रतिकृति बनाई गई जो हूबहू इसी जैसी लगती थी. दरअसल बाद के दौर के बादशाहों की पेंटिंग में यह सिंहासन दिखाई देता है. हालांकि उसमें इतनी भव्यता नहीं थी लेकिन बाद के दिनों में मुगल बादशाह इसका उपयोग करते रहे. 1857 में यह सिंहासन भी लूटपाट का शिकार हो गया.