नई दिल्ली,पुलिस अधिकारियों को ‘नैतिक पहरेदारी’ करने की जरूरत नहीं है और वे किसी तरह का अनुचित लाभ लेने की बात नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी करते हुए केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के एक कांस्टेबल को सेवा से हटाने के अनुशासनात्मक प्राधिकार के आदेश को सही ठहराया।
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस जेके माहेश्वरी की पीठ ने 16 दिसंबर, 2014 के गुजरात हाई कोर्ट के उस फैसले को रद कर दिया, जिसमें सीआइएसएफ कांस्टेबल संतोषष कुमार पांडे की याचिका को स्वीकार कर लिया गया था और बर्खास्त किए जाने की तारीख से 50 प्रतिशत पिछले वेतन के साथ उसे सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया गया था। पांडे गुजरात के वड़ोदरा की आइपीसीएल टाउनशिप के ग्रीनबेल्ट क्षेत्र में तैनात था। वहां कदाचार के आरोप में 28 अक्टूबर, 2001 को उसके खिलाफ चार्जशीट दायर की गई थी।
चार्जशीट के अनुसार संतोषष 26 और 27 अक्टूबर, 2001 की रात लगभग एक बजे जब संबंधित ग्रीनबेल्ट क्षेत्र में ड्यूटी पर तैनात था तो वहां से महेश बी चौधरी नामक व्यक्ति और उनकी मंगेतर मोटरसाइकिल से गुजरे। इस दौरान संतोषष ने उन्हें रोका और पूछताछ करने लगा। इस दौरान पांडे ने स्थिति का फायदा उठाते हुए चौधरी से कहा कि वह उसकी मंगेतर के साथ कुछ समय बिताना चाहता है।
आरोपपत्र में कहा गया है कि जब चौधरी ने इस पर आपत्ति जताई तो पांडे ने उनसे कुछ और चीज देने को कहा। इस पर चौधरी ने अपने हाथ की घ़़डी उतारकर उसे दे दी। अगले दिन चौधरी ने इसकी शिकायत कर दी। सीआइएसएफ अधिकारियों ने पांडे के खिलाफ जांच की और उसे बर्खास्त कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसकी राय में हाई कोर्ट द्वारा दिया गया तर्क तथ्य और कानून दोनों ही दृष्टि से दोषषपूर्ण है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में तथ्य चौंकाने और परेशान करने वाले हैं। प्रतिवादी पांडे एक तो पुलिस अधिकारी नहीं है और दूसरे पुलिस अधिकारियों को भी नैतिक पहरेदारी करने की जरूरत नहीं है तथा वे अनुचित लाभ लेने की बात नहीं कह सकते। शीषर्ष कोर्ट ने कहा कि तथ्यात्मक और कानूनी स्थिति को देखते हुए वह सीआइएसएफ द्वारा दायर अपील को स्वीकार करती है और गुजरात हाई कोर्ट के विवादित फैसले को खारिज करती है।