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पत्रकारों का हल्लाबोल रंग लाया, पर ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों की अनदेखी ने सुलगाई चिंगारी !

बांदा, -: ( 27 जून 2025 )-: उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पत्रकारों की ललकार ने सत्ता के तख्त को हिलाकर रख दिया। 25 जून को विशाल धरना-प्रदर्शन की आग से पहले पत्रकारों के शेर-दिल प्रतिनिधिमंडल ने सरकार के साथ कड़ी और बेबाक वार्ता कर कई मांगों पर ऐतिहासिक जीत हासिल की। यह जीत पत्रकारिता के गौरव को पुनर्जनन देने का वादा करती है,
लेकिन यह जीत आधी-अधूरी है। ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों—जो पत्रकारिता की धड़कन और रीढ़ हैं—को साजिशन नजरअंदाज किया गया। यह उपेक्षा पत्रकार समुदाय के माथे पर तमाचा है, जिसे अब बर्दाश्त नहीं किया जाएगा! यह समय है सोई हुई पत्रकारीय आत्मा को जगाने का, अपनी आवाज को बुलंद करने का, और हर उस योद्धा को उसका हक दिलाने का जो सच्चाई की लड़ाई लड़ता है!लखनऊ में पत्रकारों का शंखनाद
लखनऊ के लोकभवन में सूचना निदेशक के साथ 75 मिनट की तीखी, बेबाक और तूफानी वार्ता में पत्रकारों ने अपनी हर पीड़ा, हर शिकायत को सत्ता के सामने नंगा कर दिया। इससे पहले वित्त मंत्री सुरेश खन्ना को मांगों का दस्तावेज सौंपा गया, जिसे गंभीरता से लेते हुए तत्काल कार्रवाई के निर्देश दिए गए। इस बगावती तेवर और एकजुटता का नतीजा आठ बड़े फैसलों के रूप में सामने आया, जो पत्रकारिता को नई ऊंचाइयों, सम्मान और सुरक्षा देने का दावा करते हैं। लेकिन यह जीत उस आग को बुझा नहीं सकती, जो ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों के साथ हुए विश्वासघात ने सुलगा दी है।
सरकार के आठ बड़े फैसले: आधा सच, आधा धोखा पेंशन योजना का ऐलान: 1 जनवरी 2026 से 148 मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए पेंशन योजना लागू होगी। जिला और राज्य स्तर पर सूची तैयार है, जो पत्रकारों को आर्थिक सुरक्षा का भरोसा देती है। लेकिन क्या यह केवल बड़े शहरों के पत्रकारों के लिए है? पीजीआई में पत्रकारों के इलाज के लिए 24 लाख रुपये का फंड और अतिरिक्त 2 लाख रुपये स्वीकृत। शासनादेश में बदलाव कर मान्यता प्राप्त पत्रकारों को कार्ड के आधार पर त्वरित इलाज की सुविधा। मगर ग्रामीण पत्रकारों को इस सुविधा से वंचित क्यों रखा गया? पत्रकारों की आवास समस्या के लिए “पत्रकार पुरम” की तर्ज पर नई योजना को मंजूरी। यह पत्रकारों को सम्मानजनक जीवन देगी, लेकिन क्या गाँवों में मेहनत करने वाले पत्रकार इस सपने का हिस्सा होंगे?नोडल अधिकारी का वादा: पीजीआई में स्वास्थ्य समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए नोडल अधिकारी की नियुक्ति।
लेकिन क्या यह सुविधा सिर्फ बड़े नामों तक सीमित रहेगी?आयुष्मान कार्ड की राह आसान: आयुष्मान कार्ड से उपचार में बाधाओं को दूर करने का भरोसा। लेकिन क्या ग्रामीण पत्रकारों को यह लाभ मिलेगा?आकस्मिक मृत्यु पर राहत: पत्रकारों की आकस्मिक मृत्यु पर परिवार को सहायता के लिए नया शासनादेश जल्द आएगा। मगर क्या यह सिर्फ कागजी वादा बनकर रह जाएगा?समन्वय समिति का गठन: हर जिले में डीएम, एसपी और पत्रकारों की मासिक बैठक के लिए समन्वय समिति। लेकिन क्या यह समिति ग्रामीण पत्रकारों की आवाज सुनेगी?पत्रकारों की सुरक्षा का दावा: पत्रकारों पर हमलों और उत्पीड़न के खिलाफ सख्त कार्रवाई का वादा। लेकिन क्या यह वादा ग्रामीण क्षेत्रों में लागू होगा, जहाँ पत्रकारों को रोज धमकियाँ मिलती हैं?ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों पर साजिशन चुप्पीइन फैसलों को पत्रकार समुदाय ने “कागजी जीत” कर connu, लेकिन यह जीत एक छलावा है। ग्रामीण पत्रकार, जो सूरज की तपिश, बारिश की मार और धूल भरी सड़कों पर सच्चाई की खोज में भटकते हैं,
उन्हें इस योजना से बाहर रखा गया। अखबार वितरक, जो सुबह की पहली किरण के साथ पाठकों तक खबरें पहुंचाते हैं, उनकी मेहनत को सरासर नजरअंदाज किया गया। आत्माराम त्रिपाठी, पूर्व जिलाध्यक्ष, ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन उत्तर प्रदेश, ने सरकार को ललकारते हुए कहा, “यह क्या मजाक है? मुट्ठी भर मान्यता प्राप्त पत्रकारों को सुविधाएँ देकर पूरे पत्रकार जगत को खुशहाल बताना सरासर बेइमानी है! ग्रामीण पत्रकार, जो गाँव-गाँव, गलियों-गलियों से सच लाते हैं, और अखबार वितरक, जो पत्रकारिता की साख को हर घर तक पहुंचाते हैं, उनकी अनदेखी अपमान से कम नहीं। यह सत्ता का अहंकार है, जो पत्रकारिता की आत्मा को कुचल रहा है। हम यह अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे!”जागो, पत्रकारों, जागो!पत्रकारों की एकता ने साबित कर दिया कि उनकी आवाज सत्ता के गलियारों को हिला सकती है। आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं ने ठन ठन कर कहा, “हमने लखनऊ में तूफान खड़ा किया, सरकार को झुकाया, लेकिन यह लड़ाई अभी खत्म नहीं हुई। ये वादे कागजों से निकलकर जमीन पर उतरें, यह हमारी जिम्मेदारी है।” त्रिपाठी ने गर्जना की, “यह आधा-अधूरा फैसला हमें मंजूर नहीं! जब तक ग्रामीण पत्रकारों, छोटे अखबारों में काम करने वालों और अखबार वितरकों को उनका हक नहीं मिलता, हम चुप नहीं बैठेंगे। यह लड़ाई पत्रकारिता की आत्मा को जगाने की लड़ाई है। हर पत्रकार, हर अखबार वितरक, उठो! अपनी आवाज को बुलंद करो, क्योंकि यह सिर्फ हक की नहीं, बल्कि सम्मान और सच्चाई की लड़ाई है!”आंदोलन की जीत, लेकिन जंग अभी बाकी लखनऊ का यह आंदोलन पत्रकारिता के इतिहास में स्वर्णिम स्याही से लिखा जाएगा।
पेंशन, स्वास्थ्य, आवास और समन्वय जैसे मुद्दों पर बनी सहमति पत्रकारिता को नई ताकत देगी। लेकिन ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों की अनदेखी इस जीत को धूमिल कर रही है। पत्रकार समुदाय ने सरकार के फैसले का स्वागत किया, लेकिन इसे “अधूरी जीत” और “सत्ता का छल” करार दिया। त्रिपाठी ने ऐलान किया, “हमारी लड़ाई तब तक नहीं रुकेगी, जब तक पत्रकारिता का हर सिपाही—चाहे वह गाँव का पत्रकार हो या अखबार वितरक—अपने हक से वंचित है। यह लड़ाई सिर्फ पत्रकारों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की साख और सच्चाई की लड़ाई है!”पत्रकारों की मांग: अब और नहीं!ग्रामीण पत्रकारों को हक दो: पेंशन, स्वास्थ्य और आवास सुविधाओं में ग्रामीण पत्रकारों को शामिल करो।अखबार वितरकों का सम्मान: अखबार वितरकों के लिए विशेष कल्याणकारी योजनाएँ तुरंत लागू हों।छोटे और मझोले समाचार पत्रों के पत्रकारों को मान्यता और सुविधाओं का हिस्सा बनाया जाए।पत्रकारों पर हमले और धमकियों के खिलाफ कठोर कानून और त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित हो।जमीनी स्तर पर अमल: सरकार के वादे कागजों तक सीमित न रहें, ग्रामीण क्षेत्रों में भी लागू हों।आगे की राह: जंग का आगाज यह आंदोलन पत्रकारिता के गौरव को पुनर्जनन देने का प्रतीक बन चुका है, लेकिन यह सिर्फ शुरुआत है।
ग्रामीण पत्रकारों और अखबार वितरकों के हक की लड़ाई को अब और तेज करना होगा। आत्माराम त्रिपाठी ने पत्रकार समुदाय से अपील की, “उठो, मेरे भाइयों और बहनों! यह समय है अपनी सोई हुई आत्मा को जगाने का। हर पत्रकार, हर अखबार वितरक इस जंग का हिस्सा बने। हमारी आवाज सत्ता को बेचैन कर देगी, क्योंकि हम सच्चाई के सिपाही हैं। हमारा हक कोई नहीं छीन सकता!”यह लड़ाई सिर्फ सुविधाओं की नहीं, बल्कि पत्रकारिता की आत्मा, लोकतंत्र की साख और सच्चाई की जीत की लड़ाई है। सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि पत्रकारिता का सम्मान तब तक अधूरा है, जब तक इसका हर योद्धा—चाहे वह गाँव की गलियों में खबर खोजने वाला पत्रकार हो या सुबह-सुबह अखबार बांटने वाला वितरक—अपने हक और सम्मान से वंचित है। जागो, पत्रकार, जागो! जय सत्य, जय पत्रकारिता, जय लोकतंत्र!