आलूवाद लोकतंत्र के लिए बड़ा सवाल है

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक
तमाम वाद विवादों में शामिल होकर आलूवाद की भी अपनी अलग शाख है आलू सब्जियों का राजा होता और नेता को चुनाव कर के हम राजा बनाते हैं राजा बनने के बाद फिर उसे जनता की मर्जी से कोई लेना देना नहीं होता उसकी खुद की ही मर्जी चलती है और भाव तो बढ़ ही जाते हैं आपने सुना होगा आलू सरकार को गिराने का हौसला रखते हैं बस यही आलूवाद सरकार बनाता है और गिराने की ताकत भी रखता है!
हां, पर ये पिछले कुछ सालों में ही बढ़ा है। जैसे आलू हर सब्जी में खप जाता है, ऐसे ही आलूवादी नेता भी हर सरकार में जगह बना लेते हैं। यदि सरकार बनने में कुछ लोग कम पड़ जाएं, तो इन राजनीतिक आलुओं के दाम रातोंरात बढ़ जाते हैं। ऐसे आलूवादी नेता हर राज्य पाये जाते हैं!
देश किसी वाद से नहीं, बल्कि ‘वाद-विवाद’ से चल रहा है। संसद से लेकर सड़क तक, घर से लेकर बाजार तक, जहां देखो वहां बेसिर पैर के विवाद। 70 साल हो गये हमें आजाद हुए; पर हम अभी तक तय नहीं कर पाए हैं कि विकास का सही रास्ता क्या है ? इसलिए देश को अब वाद और विवाद की नहीं, विकासवाद की जरूरत है। आप के समझ यह बात नहीं आई होगी कि आखिर आलूवाद है क्या ? पर काश ये बात हमारी, आपकी और देश के नेताओं की समझ में आ जाए। नेता और दल तो आते-जाते रहेंगे; पर देश तो अजर-अमर है। इसलिए वाद और विवाद छोड़कर सब विकासवाद का रास्ता पकड़ें, इसी में सबका कल्याण है।