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ऑपरेशन सिंदूर-अब आगे क्या ?

पहलगाम के भयावह आतंकी हमले के बाद, भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के माध्यम से जिस दृढ़ता और गति के साथ प्रतिक्रिया दी, वह देश की सैन्य तत्परता का एक उल्लेखनीय उदाहरण था। इस ऑपरेशन ने भारतीय सशस्त्र बलों की दक्षता और सीमा पार जाकर हमला करने की उनकी क्षमता को प्रदर्शित किया, जिससे स्पष्ट हो गया की भारत अब अपनी सुरक्षा के साथ किसी भी समझौते के लिए तैयार नहीं है। पहलगाम हमले के बाद संसद में हुई बहस में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अपनी कार्रवाई का जोरदार बचाव किया। सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर की सफलता और इसके परिणामस्वरूप भारत को दुनिया भर के देशों से मिले समर्थन को रेखांकित किया।

                भारत के विदेश मंत्री का मुख्य जोर इस बात पर था कि भारत अब एक ऐसा राष्ट्र है जो अपनी सुरक्षा पर आंच आने पर निर्णायक कार्रवाई करता है। रक्षा मंत्री ने कहा कि यह हमला “पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित” था और भारत की जवाबी कार्रवाई “आत्मरक्षा” में की गई थी। उन्होंने ऑपरेशन की गोपनीयता और सामरिक सफलता पर जोर दिया। सरकार का यह तर्क भी सही है कि इस तरह के संवेदनशील मामलों में सार्वजनिक बहस से सेना का मनोबल प्रभावित हो सकता है और यह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए हानिकारक हो सकता है।

      अब सवाल यह उठता है कि, कितनी बार हम जवाबी कार्यवाही करेंगे? कितनी बार हम शांति वार्ता की पहल करेंगे? कितनी बार निर्दोष भारतियों को अपनी जान गवानी पड़ेगी ?

      संसद में विपक्ष ने सरकार की प्रतिक्रिया की सराहना तो की, लेकिन साथ ही कई महत्वपूर्ण सवाल भी उठाए। विपक्ष ने एक बात तो सही कही कि सरकार केवल जवाबी कार्रवाई पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जबकि हमले को रोकने में हुई चूक पर कोई चर्चा नहीं हो रही है। विपक्ष ने इस बात पर भी जोर दिया कि एक मजबूत राष्ट्र की पहचान सिर्फ प्रतिक्रिया देने की क्षमता से नहीं होती, बल्कि हमलों को रोकने की उसकी क्षमता से भी होती है। राहुल गाँधी, प्रियंका गाँधी, अखिलेश यादव और अन्य विपक्षी नेताओं ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा केवल प्रेस ब्रीफिंग तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि संसद में इसकी गहन जांच होनी चाहिए ताकि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोका जा सके।

      अब गौर करें पहलगाम जैसे बड़े हमले पर तो एक बात तो कचोटती है, किसी भी संस्थागत जवाबदेही, किसी इस्तीफे या किसी परिचालन ऑडिट के सार्वजनिक होने की कोई खबर नहीं आई। यह लोकतांत्रिक पारदर्शिता के सिद्धांतों के विपरीत है। ऐसे मामलों में पारदर्शिता कमजोरी का संकेत नहीं होती, बल्कि यह एक मजबूत लोकतंत्र की पहचान होती है।

      यह महत्वपूर्ण है कि राष्ट्र सुरक्षा से जुड़े मुद्दों को व्यक्तियों के संकल्प के बजाय संस्थागत प्रणालियों के दृष्टिकोण से देखना चाहिए, परन्तु, राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के लिए उन प्रणालियों में सुधार करना आवश्यक है जो कार्यालय में कौन है, इस पर ध्यान दिए बिना प्रभावी ढंग से कार्य करती रहें। आने वाली पीढ़ियों को एक स्पष्ट दृष्टिकोण और समझ देना भी उतना ही ज़रूरी है, जो इतिहास या विरासत में हमे मिला नहीं । हर हमले के बाद हम सोचते है की क्या किया जाए? हमला कैसे हुआ और उसे आगे होने से कैसे रोकना है इस पर भी मंथन ज़रूरी है जो पूर्व की सरकारों में नहीं किया गया।

      भारत की निवारक नीति अभी भी काफी हद तक अपरिभाषित है। कारगिल, उरी, बालाकोट और अब पहलगाम जैसी घटनाओं पर प्रतिक्रियाएँ जोरदार रही हैं, लेकिन एक स्पष्ट सार्वजनिक सिद्धांत की अनुपस्थिति रणनीतिक अस्पष्टता को जन्म देती है। यह महत्वपूर्ण है कि भारत एक स्पष्ट सुरक्षा सिद्धांत विकसित करे जो सीमा पार प्रतिक्रियाओं को नियंत्रित करे, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं को रोका जा सके।

      भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों का इतिहास हमेशा से ही जटिल रहा है, जिसमें युद्ध, तनाव और शांति प्रयासों का मिश्रण रहा है। जवाहर लाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, हर प्रधानमंत्री ने अपने-अपने तरीके से इस चुनौती का सामना किया है। जवाहरलाल नेहरू ने पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने की उम्मीद की थी। कश्मीर पर 1947-48 के युद्ध और अन्य विवादों ने इस उम्मीद को कम कर दिया। नेहरू की नीति अक्सर “रणनीतिक संयम” और “आशावाद” पर आधारित थी। वहीँ लाल बहादुर शास्त्री ने ताशकंद घोषणा (1966) पर हस्ताक्षर किए। इस घोषणा का उद्देश्य शांति बहाल करना और पूर्व-युद्ध स्थिति पर लौटना था। इंदिरा गांधी ने शिमला समझौता (1972) पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते ने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत के माध्यम से सभी विवादों को सुलझाने का एक ढाँचा स्थापित किया।

अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर घोषणा (1999) के माध्यम से, बस से लाहौर की यात्रा की, जो दोनों देशों के बीच शांति की एक प्रतीकात्मक पहल थी। कारगिल युद्ध ने इन प्रयासों को बाधित कर दिया। इसके बाद भी, उन्होंने आगरा शिखर सम्मेलन (2001) के माध्यम से शांति बहाल करने का प्रयास किया। वाजपेयी की नीति को “आतंकवाद को अस्वीकार” करते हुए “शांति की कोशिश” कहा जा सकता है। वहीँ मनमोहन सिंह सरकार ने पाकिस्तान पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने पर जोर दिया, लेकिन सीधे सैन्य कार्रवाई से परहेज किया। इस काल में शांति वार्ता अक्सर आतंकवाद के मुद्दे पर रुक जाती थी।

      नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2014 में अपने शपथ ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को आमंत्रित किया था यह सोचकर की संबंध सुधरेंगे पर उरी (2016) और पुलवामा (2019) जैसे हमलों के बाद, भारत ने अपनी नीति में एक बड़ा बदलाव किया। सर्जिकल स्ट्राइक (2016) और बालाकोट एयर स्ट्राइक (2019) जैसी कार्रवाइयों ने दिखाया कि भारत अब केवल राजनीतिक दबाव पर निर्भर नहीं है, बल्कि सीमा पार जाकर आतंकवादियों के ठिकानों को निशाना बनाने के लिए भी तैयार है। इस नीति को अक्सर “नया सामान्य” (New Normal) कहा जाता है, जहाँ शांति वार्ता आतंकवाद के पूर्ण खात्मे से जुड़ी है। वर्तमान मोदी सरकार अब केवल शांति वार्ता पर निर्भर नहीं है, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ निर्णायक सैन्य कार्रवाई को भी अपने कूटनीतिक टूलकिट का हिस्सा मानती है।

      पहलगाम हमले के बाद सबसे बड़ा सवाल संस्थागत जवाबदेही का है। एक बड़े हमले और सैन्य ऑपरेशन के बावजूद, किसी भी अधिकारी की जवाबदेही तय नहीं की गई, न ही किसी सार्वजनिक ऑडिट की बात हुई। ऑपरेशन सिंदूर भारत की सैन्य शक्ति का एक बेहतरीन उदाहरण है। हमें अपनी प्रतिक्रियात्मक क्षमता पर गर्व करना चाहिए, लेकिन उससे इतर हमारी प्राथमिकता हमलों को होने से रोकने की होनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती अब केवल सीमा पार की चुनौतियों से नहीं, बल्कि हमारे अपने सुरक्षा तंत्र में मौजूद खामियों को दूर करने की है।  -: के विश्वदेव राव

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