त्याग करने वाले मानव ही बनते हैं संत ..
( डा. सत्य प्रकाश मिश्र ) – यह जगत प्रवृत्ति मूलक भी है और निवृत्ति मूलक भी। जहां राग प्रवृत्ति का उद्गम है, वहीं वैराग्य निवृत्ति का। इसी प्रकार यदि आसक्ति प्रवृत्ति का परिणाम है तो त्याग निवृत्ति का परिणाम है। सब कुछ क्षणिक होते हुए भी इस जगत की अनंत यात्र का कभी अंत नहीं होता। यह अनवरत गतिमान रहती है। वास्तव में त्याग की पवित्र भावना ही इसकी गतिशीलता और जीवंतता का कारण है। इसलिए जिन गुणों से मानव जीवन महान बनता है, त्याग उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। जैसे-शीतलता के बिना जल, दाहकता के बिना अग्नि, स्पर्श के बिना वायु का कोई अस्तित्व नहीं।
उसी प्रकार त्याग के बिना मानव जीवन का कोई मूल्य नहीं, परंतु त्याग वही सार्थक है, जो परार्थ के लिए हो। स्वार्थ के लिए त्याग तो पशु-पक्षी भी करते हैं। इसीलिए नि:स्वार्थ भाव से लोकहित में त्याग करने वाले मानव संत बन जाते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में त्याग को शांति का प्रदाता कहा गया है, परंतु इसके विलक्षण आनंद का अनुभव कोई विरला ही कर सकता है।
वस्तुत: – त्याग का जन्म उदारता से होता है, क्योंकि औदार्य भाव ही मनुष्य को स्वार्थ और मोह से मुक्तकर परार्थ के लिए प्रेरित करता है। इसलिए उदारता का भाव जिसमें जितना प्रबल होगा, त्याग की भावना भी उतनी ही प्रबल होगी। कल्पना कीजिए कि महर्षि दधीचि में उदारता का भाव कितना प्रबल रहा होगा, जिससे उन्होंने जीवित रहते ही लोक कल्याणार्थ शरीर त्याग करने का निर्णय लिया। कर्ण ने यह जानते हुए भी कि जीवन रक्षक कवच का दान करने से उसके प्राणों पर संकट निश्चित है, उसे सहर्ष काटकर याचक को समर्पित कर दिया। उदारता के बिना यह कदापि संभव नहीं था। अत: औदार्य भाव अंतर्मन को सुवासित कर त्याग का मंगलपथ प्रशस्त करता है। आज उसी त्याग और औदार्य की आवश्यकता है, जिसने दुनिया को वसुधैव कुटुंबकम् का दिव्य संदेश दिया। जरूरत है इसे जीवंत करने की।