धर्म - अध्यात्म

दंगों के षडय़ंत्र केस में येचुरी को लपेटने का अर्थ

राजेंद्र शर्मा
उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी के आखिर में हुए दंगों के सिलसिले में शासन यानी मोदी-शाह की पुलिस के मुख्य केस का बृहस्पतिवार, 17 सितंबर को अतिरिक्त सत्र न्यायालय ने संज्ञान ले लिया। षडय़ंत्र केस में फिलहाल दमनात्मक यूएपीए तथा अन्य कानूनों के प्रावधानों के तहत, जेएनयू की शोध छात्राओं नताशा नरवाल तथा देवांगना कालिता और जामिया के छात्रों व पूर्व छात्रों खालिद सैफी, गुलफिशां, शफा उल रहमान, मीरान हैदर, सफूरा जरगर, आसिफ इकबाल तन्हा आदि समेत 15 लोगों के नाम शामिल हैं।

पंद्रह में एक नाम, आप पार्टी के पार्षद, ताहिर हुसैन का भी है। वैसे इसी षडय़ंत्र केस के सिलसिले में, यूएपीए के तहत ही पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए, जेएनयू के पूर्व-छात्र उमर खालिद तथा शर्जिल इमाम के नाम, फिलहाल इस चार्जशीट में शामिल नहीं किए गए हैं। पुलिस का कहना है कि ये नाम पूरक चार्जशीट में जोड़े जाएंगे। दंगे के छरू महीने से ज्यादा गुजर जाने के बाद दायर की गई चार्जशीट में भी पहले से पूरक जोड़े जाने की जगह रखी गई हैय इससे इस पूरे मामले के प्रति दिल्ली पुलिस की श्श्गंभीरताश्श् का तो कुछ अंदाजा लगाया ही जा सकता है। इसके साथ ही कुछ अंदाजा इसका भी लगाया जा सकता है कि सीएएविरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ षडय़ंत्र का सरासर झूठा केस गढऩे में, सीधे अमित शाह के मातहत काम कर रही दिल्ली पुलिस को, कितनी मेहनत करनी पड़ रही है। यह मेहनत चक्का जाम को बड़े पैमाने पर हिंसा का और सीएएविरोध को सांप्रदायिक हिंसा के लिए उकसावे का समानार्थी बनाने के पुलिसिया कमालों के ऊपर से है। याद रहे कि इसी षडय़ंत्र केस से जुड़ी एक पूरक चार्जशीट में, कालिता, नरवाल तथा सफूरा जरगर के कथित बयानों के आधार पर, जिन पर उनके दस्तखत तक नहीं हैं, पुलिस ने सीपीआई (एम) महासचिव, सीताराम येचुरी समेत, आधा दर्जन जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्घिजीवियों तथा कलाकारों के नाम, षडय़ंत्र के मददगारों के रूप में लिए हैं। बेशक, इस पर ज्यादा शोर मचने पर, पुलिस की ओर से यह सफाई दी गई कि येचुरी और अन्य को कोई आरोपित नहीं किया गया है और पूरक चार्जशीट में उनका नाम सिर्फ आरोपियों के कथन संदर्भ में रखा गया है। पुलिस सिर्फ ऐसे बयान आधार नहीं बल्कि स्वतंत्र छानबीन के आधार पर ही कार्रवाई करती है! इस तरह शाह की पुलिस ने इसका संकेत तो दिया कि वह फिलहाल येचुरी आदि पर हाथ नहीं डालने जा रही है, लेकिन इसके साथ ही उसने यह भी जोड़ दिया कि वह आगे क्या करेगी, यह अभी नहीं बताएगी? स्वाभाविक रूप से इस पर व्यापक और तीखी प्रतिक्रिया हुई है। दिल्ली के दंगों की जांच के नाम पर, अमित शाह के आधीन दिल्ली पुलिस खुलेआम सांप्रदायिक पक्षपात का खेल खेल रही है, जिसमें पुलिस की अपनी सांप्रदायिक भूमिका पर पर्दा डालना भी शामिल है। इसके ऊपर से एक ओर तो पूरी तरह से शांतिपूर्ण तथा संवैधानिक दायरे में चलाये गए सीएएविरोधी सत्याग्रह से जुड़े प्रमुख नामों को श्सांप्रदायिक हिंसा के षडय़ंत्रश् के साथ जोडऩे के जरिए, दिल्ली में सीएएविरोधी सत्याग्रह के शाहीनबाग से शुरू हुए सिलसिले को ही बदनाम करने की कोशिश की जा रही थी और दूसरी ओर कपिल मिश्रा जैसे भाजपा नेताओं की सीएएविरोधी सत्याग्रह के विरोध के नाम पर, सांप्रदायिक हिंसा भड़काने की प्रत्यक्ष कोशिशों और अनुराग ठाकुर, प्रवेश वर्मा तथा खुद अमित शाह के भी, शाहीनबाग सत्याग्रह के विरोध के नाम पर सांप्रदायिक नफरत फैलाने पर, पर्दा डालने की कोशिश की जा रही थी। इसकी पहले ही व्यापक रूप से आलोचना हो रही थी।

यह खेल इतनी नंगई से हो रहा था कि अनेक पूर्व-आईपीएस अफसरों ने, जिनमें भारतीय पुलिस अधिकारियों में लीजेंड बन चुके जूलियस रिबेरो का नाम भी शामिल है, पुलिस की इस जांच की निष्पक्षता तथा विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाए थे। बहरहाल, येचुरी व अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्घिजीवियों के नाम भी इस खेल में शामिल कर लिए जाने पर, संसद से लेकर सड़क तक विरोध शुरू हो गया। इसी के हिस्से के तौर पर दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों व कांग्रेस समेत, पांच राजनीतिक पार्टियों के वरिष्ठड्ढ नेताओं ने, बृहस्पतिवार को ही राष्टड्ढ्रपति से मुलाकात कर, व्यापक विपक्ष की ओर से दिल्ली के दंगों की जांच पर सवाल उठाए और उनसे स्वतंत्र न्यायिक जांच का आदेश करने का आग्रह किया, ताकि लोगों को न्याय मिलने का भरोसा हो सके। विपक्ष की ओर से राष्टड्ढ्रपति को दिए गए ज्ञापन में जहां इसकी ओर ध्यान खींचा गया कि दिल्ली पुलिस का गढ़ा हुआ श्षडय़ंत्र सिद्घांतश् अब राजनीतिक नेताओं तथा अन्य जाने-माने बुद्घिजीवियों को इस झूठ में लपेटने के स्तर तक पहुंच गया है, वहीं यह भी याद दिलाया गया कि यह पूरी की पूरी जांच ही, एक पहले से बनी-बनाई थ्योरी को सच साबित करने का उद्देश्य लेकर चल रही है, जो खुद गृहमंत्री ने मार्च में ही लोकसभा में पेश कर दी थी, जबकि दंगों की जांच शुरू भी नहीं हुई थी।बहरहाल, उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों की पुलिस की जांच की विश्वसनीयता पर उठते सवालों के संदर्भ में, एक सवाल और पूछा जा रहा है कि येचुरी व अन्य के इस मामले में घसीटे जाने का क्या अर्थ है? बेशक, तीव्र विरोध के सामने प्रकटतरू पुलिस ने इस मामले में अपने पांव यह कहकर पीछे खींच लिए हैं कि अब तक जिस रूप में इनके नाम लिए गए हैं, वह किसी कार्रवाई का संकेतक नहीं है।लेकिन, इससे कम से कम यह मानने के लिए कोई तैयार नहीं होगा कि यह दिल्ली पुलिस के संबंधित अधिकारियों के अति-उत्साह में अनजाने में सीमा लांघ जाने का मामला हो सकता है, जिससे अब पीछा छुड़ाने की कोशिश की जा रही है। इसे न मान सकने की वजह बहुत सरल है। यह पूरा प्रकरण वैसे भी राजनीतिक रूप से बहुत संवेदनशील है, जिस पर केंद्रीय गृहमंत्रालय सीधे नजर रखे हुए है। ऐसे मामले में, पुलिस अधिकारी शीर्ष से हरी झंडी के बिना कुछ भी नहीं करेंगे। फिर श्बिग बॉसश् की मर्जी के वगैरह, ऐसे प्रकटत: राजनीतिक कदम उठाने का तो सवाल ही कहां उठता है, जिनका विवादित होना तय हो। हां! अगर नेतृत्व ही विवाद में अवसर देख रहा हो, तो बात दूसरी है। वास्तव में ज्यादा संभावना इसके एक आजमाइश या प्रयोग होने की ही लगती है। मोदी-शाह निजाम में बुद्घिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा मौजूदा हालात पर असहमति व विरोध की आवाज उठाने वालों को जिस तरह शत्रु बनाकर, बराबर निशाने पर रखा गया है वह सभी ने देखा है। इस मुहिम में प्रत्यक्ष शारीरिक तथा शासन की ओर से कानूनी हमले के दायरे में सबसे पहले, जेएनयू तथा अन्य विश्वविद्यालयों के विशेष रूप से वामपंथी विचार के और आम तौर पर वंचितों के पक्ष में आवाज उठाने वाले छात्र नेताओं व शिक्षकों को खींचा गया। इसके बाद, अर्बन नक्सल या बौद्घिक माओवादीश् करार देकर आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों के हितों तथा आमतौर पर मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्घिजीवियों को बदनाम करने के बाद, श्भीमा-कोरेगांवश् की दलितविरोधी हमले की घटना को अवसर बनाते हुए, कानूनी हमले की जद में खींच लिया गया। और अब, सीएएविरोधी जन-उभार के बीच से उभरे विशेष रूप से युवा, अल्पसंख्यक, महिला-पुरुष नेताओं को यूएपीए आदि की दमन की चक्की में पीसने के बाद, शासन के इस सीधे कानूनी हमले के दायरे को फैलाकर, राजनीतिक पार्टियों को भी इसमें समेटने की कोशिश की जा रही है। फिलहाल कदम भले ही पीछे खींच लिए गए हों, अगले चक्र में और आगे तक जाएंगे। मोदी-शाह सरकार की दिशा यही है।

यह संयोग नहीं है कि हमले के इस वृत्त के मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों तक विस्तार की शुरूआत, देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी, सीपीएम के महासचिव से हुई है। गोलवलकर ने बहुत पहले जो श्आंतरिक शत्रुश् गिनाए थे, उनमें मुसलमानों और ईसाइयों के बाद, तीसरा नाम कम्युनिस्टों का ही था। श्शहरी नक्सलश्, श्बौद्घिक माओवादीश् जैसे संबोधनों से, कम्युनिस्टों और आतंकवाद या हिंसा को समानार्थी बनाने के बाद, इस श्आंतरिक शत्रुश् के खिलाफ संघ-शासन का युद्घ छेडऩा कोई बहुत मुश्किल नहीं रह जाता है। और यह युद्घ छेडऩा इसलिए और भी जरूरी है कि यही राजनीतिक धारा है, जो जनता के प्रचंड बहुमत के वास्तविक हितों के सवालों को लगातार उठाते रहने के जरिए, मुख्यधारा की राजनीति के प्रवाह को मौजूदा सरकार की कार्पोरेटपरस्त और जनविरोधी नीतियों के विरोध की ओर झुका सकती है। यह मुख्यधारा की राजनीति को राजनीतिक-विचारधारात्मक रूप से निरस्त्र करने का मामला है। इसीलिए, भले ही फिलहाल पुलिस कार्रवाई रुकी हुई हो, कदम तो आगे बढ़ा दिया गया है। याद रहे कि इस हमले का दायरा यहीं नहीं रुकेगा। पास्टर निमोलर की प्रसिद्घ कविता की पक्तियां याद कीजिएकृजब वे ट्रेड यूनियनों के लिए नहीं आएध् मैं नहीं बोलाध् मैं नहीं था ट्रेड यूनियन वाला। फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए मैं नहीं बोला…। जब वे मेरे लिए आए, तो कोई नहीं बचा था बोलने को। सब याद रखें, यह सिलसिला तभी रुक सकता है, जब शुरू से सब मिलकर इसे रोकेंगे। राष्टड्ढ्रपति से मिलने गए पांच दलों के प्रतिनिधिमंडल से इसका भरोसा होता है कि विपक्ष इस हमले को रोकने के लिए एकजुट होगा। मिलकर लड़ेंगे तभी बचेंगे!

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