लखनऊ

लखनऊ रेलवे स्टेशन एक सदी का सुनहरा सफर, वास्तुकला ऐसी कि अंदर खड़ी ट्रेन की आवाज बाहर नहीं आती !

लखनऊ : सन 1857 की क्रांति हो या फिर महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाया गया स्वतंत्रता आंदोलन। चारबाग का लखनऊ रेलवे स्टेशन ब्रिटिशकालीन दौर का साक्षी रहा है। यह वहीं स्थान है जहां पहली बार महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू की मुलाकात हुई। करीब 70 लाख रुपये की लागत से तैयार हुए लखनऊ स्टेशन राजपूत अवधीमुगल और ब्रिटिश वास्तु शैली का अनूठा उदाहरण है। ऊपर से देखने इसके मेहराब शतरंज की बिसात के रूप में दिखते हैं। जो इस स्टेशन को देश के दूसरे स्टेशनों से बहुत अलग बनाती है।

              करीब 70 लाख रुपये की लागत से तैयार हुए लखनऊ स्टेशन राजपूत, अवधी,मुगल और ब्रिटिश वास्तु शैली का अनूठा उदाहरण है। ऊपर से देखने इसके मेहराब शतरंज की बिसात के रूप में दिखते हैं। जो इस स्टेशन को देश के दूसरे स्टेशनों से बहुत अलग बनाती है। सन 1884 में अविभाजित बंगाल को लाहौर से जोड़ने के लिए शुरू हुई 5 अप व 6 डाउन पंजाब मेल जैसी ऐतिहासिक ट्रेन लखनऊ स्टेशन से अपने 141 साल पुराने रिश्ते की गवाही देती है। यह स्टेशन एक अगस्त को अपनी स्थापना के सौ वर्ष पूरा कर चुका है।

लखनऊ का चारबाग रेलवे स्टेशन ब्रिटिशकालीन दौर का साक्षी

  • करीब 70 लाख रुपये की लागत से तैयार हुआ था लखनऊ रेलवे स्टेशन
  • देश के स्वतंत्रता आंदोलन का बड़ा गवाह, अनेक क्रांतिकारी ट्रेन से उतरे
  • स्वतंत्रता आंदोलन में था शस्त्रागार
  • लखनऊ स्टेशन पर पहली बार हुआ था गांधी और नेहरू का मिलन
  • कमरे में बंद होते थे भारतीय यात्री

100 Glorious Years of Lucknow Railway Station स्वतंत्रता आंदोलन में था शस्त्रागार

जिस स्थान पर आज लखनऊ स्टेशन है,उस चारबाग का उपयोग सन 1857 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने शस्त्रागार के रूप में किया था। इसी स्थान से स्वतंत्रता सेनानी नानकमत्ता नाम की बड़ी तोप को 28 बैलों से खींचते हुए ले गए थे। बाद में अंग्रेजों ने इसी स्थान पर रेलवे स्टेशन बनाने का निर्णय लिया। ब्रिटिश वास्तुकार जे.एच. हार्निमन और भारतीय वास्तुकार इंजीनियर चौबे मुक्ता प्रसाद ने लखनऊ स्टेशन की भव्य बिल्डिंग की डिजाइन तैयार की।

वहीं, 21 मार्च 1914 को बिशप जार्ज हरवर्ट ने इसकी नींव रखी थी। स्टेशन का पहला चरण जहां आज रेल डाक सेवा है , वह 1923 में और दूसरा व अंतिम चरण 1925 में पूरा हुआ था। एक अगस्त 1925 को ईस्ट इंडिया रेलवे के जी.एल. काल्विन ने प्रथम श्रेणी पोर्टिको के पास एक संदूक को गाड़ा। संदूक में एक सिक्का और उस दिन का अखबार रखा गया था। लखनऊ स्टेशन करीब 70 लाख रुपये में बनकर तैयार हुआ था।

लखनऊ स्टेशन पर हुआ था पहली बार गांधी और नेहरू का मिलन

महात्मा गांधी 26 दिसंबर से 30 दिसंबर 1916 तक आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लेने लखनऊ आए थे। इस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने श्रमिकों की भर्ती कर विदेशों में ले जाने की प्रथा को बंद करने का प्रस्ताव रखा था। जवाहर लाल नेहरू से पहली बार उनकी महात्मा गांधी की मुलाकात लखनऊ स्टेशन पर ही हुई थी। आज भी उनके मिलन स्थल के प्रतीक चिन्ह स्टेशन पर स्थापित हैं।

लखनऊ में रेलवे का सूत्रपात

  • सन 1857 :अवध रुहेलखंड रेलवे (ओआरआर) का गठन
  • 23 अप्रैल 1867 : ओआरआर की लखनऊ-कानपुर 47 मील लंबी रेल लाइन शुरू
  • 1872 : ओआरआर का विस्तार बहराम घाट और फैजाबाद तक।
  • एक जनवरी 1872 : लखनऊ-फैजाबाद रेल लाइन शुरू, लखनऊ छावनी के उत्तर दिशा से बिबियापुर, जुग्गौर होकर फैजाबाद के रास्ते मुगलसराय तक पड़ी रेल लाइन।
  • 1873 से 1875 : ओआरआर का नेटवर्क लखनऊ से शाहजहांपुर और जौनपुर तक बढ़ा
  • 1882 : निम्न श्रेणी के किराए के राजस्व में गिरावट।
  • 1887 : ओआरआर का नेटवर्क 690 मील तक पहुंचा, जो उस समय कुल रेल नेटवर्क का 4.93 प्रतिशत था।

लखनऊ स्टेशन पर उतरे थे भगत सिंह और दुर्गा भाभी

लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज से उनकी मौत का बदला लेने के लिए लाहौर में 17 दिसंबर 1928 को भगत सिंह और राजगुरू ने ब्रिटिश अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी थी। वहां से 20 दिसंबर 1928 को क्रांतिकारी दुर्गा भाभी वोहरा लाहौर से हावड़ा मेल में भगत सिंह और राजगुरू के साथ सवार हुईं। अंग्रेजों को चकमा देने के लिए कानपुर पहुंचकर उन्होंने ट्रेन बदला और फिर लखनऊ स्टेशन पहुंचकर भगत सिंह चाय पीने के बहाने उतरे। राजगुरू बच्चे का दूध लेने के लिए अलग चले गए । लखनऊ के रेल डाक सेवा से ही दुर्गा भाभी ने अपनी सहयोगी सुशीला दीदी को कलकत्ता एक तार भेजा, जिसमें लिखा था ‘कमिंग विद ब्रदर- दुर्गावती’।

कमरे में बंद होते थे भारतीय यात्री

रेलवे एक रिकार्ड के मुताबिक ब्रिटिश दौर में भारतीय अपने रिश्तेदारों को छोड़ने या लेने के लिए लखनऊ स्टेशन नहीं आ सकते थे। ट्रेन आने पर ही भारतीयों को टिकट दिया जाता था। टिकट खरीदने के बाद सभी भारतीय यात्रियों को चारबाग स्टेशन के एक कमरे में बंद कर ताला लगा दिया जाता था। माना जाता है कि वह कमरा आज स्टेशन का रिकार्ड आफिस है। जब अंग्रेज यात्री बोगी में बैठ जाते थे, तब भारतीयों को कमरे से निकालकर उन्हें उनकी बोगियों में बैठाया जाता था। ट्रेन चलने से पहले बाहर से ताला लगाया जाता था। स्टेशन की वास्तुकला ऐसी थी कि अंदर खड़ी ट्रेन की आवाज बाहर नहीं आती थी।

ट्रेन भिड़ने पर कारावास

लखनऊ स्टेशन पर ही भारतीयों के साथ ब्रिटिश सरकार भेदभाव नहीं करती थी, प्रशासनिक कार्यों में भी वह दोहरा आचरण दिखाती थी। उस समय ट्रेन दुर्घटनाओं के लिए भारतीय ड्राइवरों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता था। सन् 1879 की अवध प्रशासन की एक रिपोर्ट के अनुसार मई 1878 में भारतीय ड्राइवर की लापरवाही से मालगाड़ी की टक्कर कोयला गाड़ी से हो गई थी। इस हादसे से रेलवे को 40 हजार रुपये का नुकसान हुआ था। घटना का दोषी मानते हुए भारतीय ड्राइवर को पांच साल और गार्ड को चार साल की सजा दी गई थी।

भारतीयों से हुई थी आमदनी

लखनऊ और आसपास रेलवे नेटवर्क की पूरी जिम्मेदारी अवध एवं रुहेलखंड रेलवे (ओआरआर) की थी। ओआरआर की सन् 1875-76 की रिपोर्ट के अनुसार 543 मील तक चलने वाली ट्रेनों से उसे 12 लाख 65 हजार 508 रुपये की आय निम्न श्रेणी के किराए से हुई थी। इस श्रेणी में भारतीय यात्री सफर करते थे। वहीं, अंग्रेज अफसरों वाले उच्च श्रेणी के यात्रियों से केवल 70 हजार 166 रुपये ही मिले थे। माल की ढुलाई की आमदनी 13 लाख आठ हजार तीन सौ इक्वायन रुपये रही। वर्ष 1879 तक ओरआरआर का शुद्ध मुनाफा 11,24,317 रुपये हो गया। वहीं, 1879 में उसे कुल 28,81,645 रुपये की आय हासिल हुई।

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