सोचे विचारें

गांधी की तरह ही हमें किसानों के साथ खड़ा होना चाहिए

डॉ. दीपक पाचपोर
राज्यसभा द्वारा रविवार को तीन कृषि विधेयकों पर लगी मुहर से भारत के करोड़ों किसानों में बेचौनी है। सरकारी दावा तो यह है कि अपने उत्पादों को मंडियों के बाहर बेचने से उत्पादकों का सशक्तिकरण होगाय परन्तु इन विधेयकों का डिजाईन ऐसा है जो अंततरू किसानों को निजी खरीदारों का गुलाम बनाएगा। भारत सरकार का यह रुख और कदम देश के करोड़ों कृषकों के सीधे खिलाफ है। सरकार कहती है कि इनसे कृषक सम्पन्न होंगे, लेकिन स्वयं किसान, कृषि विशेषज्ञ और जानकार इन्हें विनाशकारी बता रहे हैं। लोगों का स्पष्ट मत है कि केन्द्र सरकार इसके जरिये कारपोरेट जगत को फायदा कराएगी। केन्द्र सरकार का रवैया वैसा ही है जिस प्रकार से अंग्रेजों का हुआ करता था। ये फैसले लेने के लिये केन्द्र सरकार ने न तो राजनैतिक दलों से विचार-विमर्श किया, न ही किसान संगठनों से। राज्यसभा में उसने इसे पारित करने के लिये मत विभाजन भी नहीं कराया, जिसकी कई विपक्षी दल मांग कर रहे थे। इसके जरिये नरेन्द्र मोदी सरकार ने साबित कर दिया कि वह खेती के कारपोरेटरीकरण में विश्वास रखती है और अब जनता तथा किसानों के समक्ष साफ हो गया है कि आजादी के पहले किसानों को जिस तरह से अपनी मुक्ति के लिये लड़ाइयां लडऩी पड़ी थीं, संघर्ष का वैसा ही समय फिर आ गया है।
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद किये अपने भारत भ्रमण में गांधीजी ने गांवों और उनमें रहने वालों का जीवन नजदीक से देखा था। उनकी दरिद्रता से वे व्यथित होते थे। कोलकोता की झुग्गी बस्तियों में उन्होंने उन किसानों की दुर्दशा को देखा था जो उनकी जमीनें बिक जाने के बाद वहां की जूट मिलों में मजदूर बन गये थे। फीनिक्स और टॉल्सटॉय फार्मों पर वे किसानों की तरह न केवल खुद काम करते थे वरन सभी रहने वालों के लिये काम करने की अनिवार्यता थी। यह आत्मनिर्भर गांवों की उनकी सोच की शुरुआत थी जिसके केन्द्र में कृषि ही थी। वे कहते थे कि गांवों को किसी की ओर ताकने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। असहयोग आंदोलन के दौरान गांधीजी ने किसानों की ताकत को पहली बार आजमाया था जिसमें ग्रामीण-कृषक खरे उतरे थे। 1920 में जब गांधी ने देश में अपना यह पहला बड़ा देशव्यापी आंदोलन छेड़ा था तो पढ़े-लिखे नागरिकों के साथ ही देश के लाखों किसान उनके साथ हो लिये थे। अंग्रेजों की शोषक नीतियों और दमनकारी कार्यक्रमों के चलते किसानों ने गांधीजी का नेतृत्व इसलिये भी स्वीकार किया था क्योंकि उन्होंने स्वयं ही गरीब किसान का पहरावा और जीवन शैली अपनाई हुई थी। वे उनसे एकाकार हो गये थे। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी देश भर के लाखों किसानों ने महात्माजी के आह्वान पर अहिंसक आंदोलन में अंग्रेजों की लाठियों-गोलियों का बहादुरी से सामना किया था। अंग्रेजी शासन काल में देश भर में चले अनेक किसान सत्याग्रहों और आंदोलनों का गांधी ने नेतृत्व किया था अथवा सहयोग व मार्गदर्शन दिया था। बिहार के चम्पारण में उनका पहला ऐसा किसान आंदोलन (1917) था, जिसमें वे भारत के राजनैतिक अंतरिक्ष में सुपरस्टार बनकर उभरे थे। अंग्रेजों द्वारा जबरिया नील की खेती कराये जाने से तबाह हो चुके किसानों के आग्रह पर गांधीजी वहां गये थे।
अंग्रेजों ने उन्हें चम्पारण और मोतीहारी जिलों में न घुसने और लौट जाने का फरमान सुनाया था जिसे उन्होंने इंकार कर दिया। उन्हें सजा तो सुनाई गई थी पर बाद में छोड़ दिया गया था। गुजरात के खेड़ा जिले में फसल बुरी तरह से बर्बाद हो चुकी थी- चौथाई भी नहीं हुई थी परन्तु अंग्रेज अधिकारी लगान छोडऩे को तैयार नहीं थे। मेड़ता बंधु (कल्याणजी एवं कुंवरजी) इसके खिलाफ 1918 में आंदोलन चला रहे थे। गांधीजी ने उनकी मदद हेतु वल्लभभाई पटेल को भेजा जो अपनी चलती वकालत को त्यागकर गये। उन्होंने गांव-गांव घूमकर प्रतिज्ञापत्र पर हस्ताक्षर कराये, फिर भी अनेक किसानों की जमीनें कुर्क कर ली गईं। गांधी ने किसानों से अपने जब्त किये गये खेतों से फसलें काट लेने को कहा। सबसे पहले मोहनलाल पंड्या ने अपनी प्याज की फसल काट ली। इसका अनुसरण कई ग्रामीणों ने किया जिसके कारण अनेक किसान गिरफ्तार हो गये परन्तु वे नहीं झुके। अंततरू लगान वसूली बंद की गई और किसानों की जीत हुई। गुजरात के ही बारडोली में 1928 को वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसान सत्याग्रह चला था क्योंकि यहां लगान को 22 फीसदी बढ़ा दिया गया था। आंदोलन को कुचलने की बहुतेरी कोशिश हुई पर किसान नहीं झुके। आखिरकार ब्रूमफील्ड एवं मैक्सवेल की सदस्यता वाली एक न्यायिक कमेटी ने बढ़ोतरी को गलत मानते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत किया। किसान जीते और वल्लभभाई सरदार बने। छत्तीसगढ़ के रायपुर से 70 किलोमीटर दूर धमतरी जिले के कंडेल में 1920 में किसानों ने पं. सुंदरलाल शर्मा, नारायणराव मेघावाले और बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में नहर सत्याग्रह चलाया था। गांधीजी ने वहां पहुंचकर उन्हें अपना समर्थन दिया था। यह आंदोलन सिंचाई कर को लेकर हुआ था। उत्तरी प्रांत के हरदोई, बहराईच और सीतापुर में लगान बढ़ोतरी के खिलाफ श्एका आंदोलनश् (1919) को सहयोग देने जवाहरलाल नेहरू को बापू द्वारा भेजा गया था। केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला के किसानों ने सत्याग्रह (1920) किया था, जिसे बापू के अलावा शौकत अली और मौलाना अबुल कलाम आजाद का समर्थन व मार्गदर्शन प्राप्त था। किसान बापू की चिंता के हमेशा केन्द्र में रहे हैं। इसीलिये स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राजनैतिक संघर्ष के समांतर उन्होंने किसानों के लिये देश भर में अनेक लड़ाइयां लड़ी थीं। अगर वे उनकी अगुवाई करने और उन्हें समर्थन देने के लिये दौड़कर जाते थे तो उसका कारण था उनके आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक विमर्शों के केन्द्र में किसानों की मौजूदगी। वे एक खुशहाल और सम्पन्न ग्रामीण जीवन के पक्षधर थे। वे जानते थे कि समृद्ध ग्राम ही जैविक सामाजिक ताने-बाने को बनाये रख सकते हैं। तभी वे राजनैतिक रूप से ताकतवर भी होंगे और भारतीय संस्कृति को बचाये रखेंगे। किसानों की आत्मनिर्भरता बापू का मूल मंत्र था लेकिन विरोधाभास यह है कि हालिया कृषि विधेयक उत्पादकों को पूर्णत: शहरों का गुलाम बना देगी। अपनी फसलों को लेकर किसानों को न जाने कितने किलोमीटर दूर उन जगहों पर जाना होगा जहां कार्पोरेट्स उन्हें खरीदेंगे।केन्द्र सरकार द्वारा लाये गये विधेयकों के अध्ययन से साफ हो चला है कि यह पूरी योजना महात्मा गांधी की कृषि और किसानों के विकास की अवधारणा से एकदम विपरीत है। पहले से ही औद्योगीकरण व शहरीकरण से कृषि रकबों में कमी आती जा रही है, वहीं रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, महंगी होती मजदूरी, महंगे डीजल आदि से खेती पर लागत बढ़ती जा रही है। ऐसे में वे धीरे-धीरे इस पेशे से ही बाहर होते जायेंगे और कृषि पर भी कारपोरेट का कब्जा हो जायेगा। ग्रामों और जंगलों में कारपोरेट्स की घुसपैठ से कृषि जमीनों पर पहले से ही उनका स्वामित्व छूटता जा रहा है। एक ओर तो बैंकों से ऋण के अरबों रुपये उद्योगपतियों-व्यवसायियों ने नहीं लौटाये हैं, जबकि दूसरी ओर छोटी-छोटी राशियां न लौटा सकने से हजारों किसानों ने आत्महत्याएं कर ली हैं। मोदी का व्यवसाय जगत से अनुराग सर्वज्ञात है। उनकी वरीयता में कृषि नहीं है। उनके खास उद्योगपति और कारोबारी रिटेल व्यवसाय में उतर रहे हैं। चूंकि इन विधेयकों के जरिये शासकीय मंडी योजना ही धीरे-धीरे खत्म हो जायेगी, तो किसानों के पास अपने उत्पादों को निजी हाथों में बेचने के अलावा कोई चारा नहीं रह जायेगा। आशंका है कि यह योजना किसानों को उनके उत्पादों की अच्छी कीमतों से वंचित कर उन्हें कर्जदार बना देगी। कृषि जमीनों को औने-पौने भावों में खरीदकर किसानों को उनकी ही जमीनों पर मजदूर बनाने का यह षडय़ंत्र है। उद्योग, व्यवसाय, शहरीकरण आदि के प्रदूषण से हमारी कृषि जमीनें पहले ही काफी खराब हो चुकी हैं। हरित क्रांति ने उत्पादन तो बढ़ाया पर रसायनों के अत्यधिक प्रयोगों ने जमीनों को अनुपजाऊ और किसानों को कर्जदार बना दिया है। इस सरकार ने पांच वर्ष पूर्व घोषणा की थी कि वह 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करेगी। इन कदमों से यह लक्ष्य तो कहीं पूरा होता नहीं दिखता। उलटे, किसानों की बदहाली के जरिये कारपोरेट जगत समृद्ध हुआ है। आजाद भारत के शुरुआती दौर की कुछ पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि पर जोर रहा जिसे हमारी नीतियों और कार्यक्रमों पर गांधीजी के दृष्टिकोण का प्रभाव कहा जा सकता है। बाद के वर्षों में वह जाता रहा। भाजपा प्रणीत केन्द्र व राज्य सरकारें तो किसान विरोधी ही साबित हुई हैं। आज हमारे बजटों का अधिकाधिक हिस्सा कारपोरेट्स को जाता है और सारी सहूलियतें उन्हीं पर न्यौछावर होती हैं। नये विधेयक किसानों की तबाही का ही दस्तावेज हैं, जिसका विरोध करने के लिये हमें गांधी की तरह ही किसानों के साथ खड़ा होना चाहिये।

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