उत्तराखंड

पढ़ाई में बहानेबाजी के पूर्व आलस्य आता है।

मनोज श्रीवास्तव स. सूचना निदेशक

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठकपढ़ाई में बहानेबाजी के पूर्व आलस्य आता है। मनोज श्रीवास्तव स. सूचना निदेशक

देहरादून  आराम करने की प्रवृत्ति एक प्रकार से बहाने बाजी है। हम आराम करने के लिए कार्य न करने के उपाय खोजते हैं और इसके लिए हम विभिन्न प्रकार के बहानों का सहारा लेते हैं। कहा जाता है कि किसी भी कार्य को न करने के लिए, सौ बहाने हैं, यदि यह कम पड़े तो और भी निकल जाते हैं। लेकिन करने की दृढ़ इच्छा हो तो कोई असम्भव कार्य भी, सम्भव होता है।

बहानेबाजी के पूर्व आलस्य आता है। आलस्य हमारे ईगो का पहला रूप है। हमारा आलस्य, सुस्ती और उदासी हमें अपनी क्षमताओं से दूर कर देता है। सुस्ती के कई रूप हैं। प्रमुख रूप से सुस्ती मानसिक और शारीरिक स्तर पर आती है।

सुस्ती के कारण हम सोचते हैं कि चलो अभी नहीं तो, यह कार्य कभी और कर लेंगे, अभी इतनी जल्दी क्या पड़ी है। जब आई.ए.एस.,पी.सी.एस., इंजीनियरिंग, मेडिकल, कैट इत्यादि परीक्षाओं के तैयारी के लिए कम से कम छः से आठ घण्टे स्टडी की जरूरत पड़ती है, तब कामचोर स्टूडेंट कहते हैं कि आखिर इतने लम्बे समय तक इतनी मेहनत किया कैसे जा सकता है। इतने लम्बे समय तक मेहनत करना हमारे बस का नहीं है।

कुछ स्टूडेंट सोचते हैं कि सीट बहुत कम हैं अथवा सीट तो सबकी फिक्स हैं। इसलिए यह कार्य हमसे नहीं होगा, दूसरे स्टूडेंट के अधिक हिम्मत और मेहनत को देखकर बुद्धि से सोच लेते हैं कि इतना तो आगे हम जा ही नहीं सकते हैं, हमारे लिये बस इतना ही ठीक है, यह भी सुस्ती और आलस्य का रूप है।

सुस्ती, आलस्य के प्रभाव से सोचते हैं कि इतना एक सामान्य व्यक्ति के लिए त्याग करना कैसे सम्भव है, छः से आठ घण्टे का मेहनत परीक्षा के अंतिम दिनों में हो सकता है, लगातार सम्भव नहीं है। यह भी सुस्ती का राॅयल रूप है। अच्छा फिर करुगा, अच्छा सोचेंगे देखेंगे यह सब सुस्ती और आलस्य का रूप है।

हमारे प्रगति में आलस्य विघ्न बनकर आता है। हिम्मत और उल्लास कम होने के कारण हमारे भीतर आलस्य प्रवेश करने लगता है। यदि किसी कार्य के प्रति हिम्मत और उल्लास नहीं होगा, वहां आलस्य जरूर होगा, अर्थात् अपने हिम्मत और उल्लास को इतना न कम होने दें कि हम आलस्य के बस में आकर श्रेष्ठ कार्य करना छोड़ दें। आलस्य की भाषा का स्वरूप है, अच्छा सोचेंगे यह कार्य फिर करेंगे, कर ही लेंगे, हो ही जायेगा आदि। इस प्रकार की बोल-चाल की भाषा बदलकर कहना नहीं है बल्कि अभी से करने लग जाना है।

प्रैक्टिकल कार्य में जो भी विघ्न आता है वह आलस्य के कारण आता है। आलस्य की भाषा, अच्छा कल से कर लेंगे, फलाना करेंगे तब करेंगे, आज तो सोचते हैं कल से कर लेंगे, यह कार्य समाप्त करने के बाद फिर कर लेंगे। आलस्य की इस भाषा को बदलकर हमें जो करना है उसे अभी करना है। सोचेंगे, करेंगे, देखेंगे इन शब्दों के अंत में ग, ग आता है। यह बचपना की निशानी है, क्योंकि छोटा बच्चा हमेशा ग ग करता रहता है।

यदि विघ्न न हो और श्रेष्ठ लगन भी न हो तब भी यह आलस्य का रूप कहलाता है। कभी-कभी अनुभव होता है कि विघ्न भी नहीं है, ठीक भी चल रहे हैं लेकिन लगन नहीं है। अर्थात उमंग और उल्लास की कमी आलस्य की निशानी है।

आलस्य धीरे-धीरे में विशेष व्यक्ति से साधारण व्यक्ति बना देता है, इसके बाद सफलता के समीपता से दूर कर देता है, फिर धीरे-धीरे हम कार्याें में धोखा खाने लगते हैं। धोखा खाने के बाद हम कमजोर बन जाते हैं, कमजोर बनकर निर्बल बन जाते हैं, इसके कारण हमारे भीतर कमजोरियाँ प्रवेश करने लगती हैं।

आलस्य खत्म करने के लिए अपने अन्दर की विशेषता को देखें और विशेषता के अन्दर नवीनता लायें। ऐसे कार्य का लक्ष्य बनायें जिसको अभी तक किसी ने न किया हो। इससे हम धोखा खाने से बच जायेंगे। जो स्वयं धोखा खाता है वह दूसरों को धोखा खाने से नहीं बचा सकता है।

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