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समलैंगिक विवाह (gay marriage)का कपिल सिब्बल ने किया विरोध

नई दिल्ली. समलैंगिक विवाह (gay marriage) को कानूनी मान्यता दिए जाने से जुड़ी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार तथा याचिकाकर्ताओं के बीच गर्मागर्म बहस देखने को मिली. प्रधान न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस एस रवींद्र भट, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस पीएस नरसिम्हा की संविधान पीठ के समक्ष मामले की सुनवाई पर केंद्र ने आपत्ति जताई. केंद्र की तरफ से तरफ से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस मामले को विधायिका से जुड़ा बताते हुए दोहराया कि इसमें न्यायापालिका का दायर सीमित है.

एसजी तुषार मेहता ने सुप्रीम कोर्ट से कहा, ‘सवाल ये है कि क्या अदालत खुद इस मामले पर फैसला कर सकती है? ये याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं हैं. केंद्र को पहले सुना जाना चाहिए, क्योंकि वह अदालत के समक्ष 20 याचिकाओं के सुनवाई योग्य होने का विरोध कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर फैसला नहीं कर सकता. संसद उपयुक्त मंच है.’

इस पर सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने एक तरह से नाराजगी जताते हुए कहा, ‘मैं इंचार्ज हूं, मैं डिसाइड करूंगा. मैं किसी को यह बताने नहीं दूंगा कि इस अदालत की कार्यवाही कैसे चलनी चाहिए. आप जो मांग रहे हैं वो सिर्फ सुनवाई टालना ही है.’

सीजेआई की इस टिप्पणी पर एसजी मेहता ने कहा कि ‘फिर हमें यह सोचने दीजिए कि सरकार को इस सुनवाई में हिस्सा लेना चाहिए भी या नहीं.’ इस पर जस्टिस एसके कौल ने कहा कि सरकार का यह कहना कि वह सुनवाई में हिस्सा लेगी या नहीं, अच्छा नहीं लगता. यह बेहद अहम मसला है.

समलैंगिक विवाह को कानून मान्यता का विरोध करते हुए कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में सवाल किया कि अगर सेम सेक्स शादी टूट गई तो क्या होगा? जिस बच्चे को गोद लिया है उसका क्या होगा? इस मामले में उस बच्चे का पिता कौन होगा?
मेहता की इस दलील पर सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा कि जैविक पुरुष और महिला की धारणा पूर्ण है. सवाल जेनिटल्‍स का नहीं है… स्‍पेशल मैरिज एक्‍ट में पुरुष और महिला की धारा जेनिटल्‍स तक सीमित नहीं है.
CJI की टिप्पणी पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ट्रांसजेंडर पर्संस (प्रोटेक्‍शन ऑफ राइट्स) एक्‍ट में कोई कानूनी कमी नहीं है. सवाल सामाजिक-न्यायिक मान्‍यता मिलने का भी नहीं है. इसमें साफ कहा गया है कि किसी ट्रांसजेंडर व्‍यक्ति के साथ भेदभाव नहीं होगा.
मेहता ने कहा कि ‘अगर अदालत अलग फैसला देती है तो कई कानून निष्‍प्रभावी हो जाएंगे. कल्‍पना कीजिए कि CrPC के तहत महिला से पूछताछ हो रही हो और पुरुष कहे कि यह एक धारणा है कि मैं पुरुष हूं लेकिन मैं महिला हूं.
रोहतगी की दलीलों पर CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हम आपसे सहमत हैं, लेकिन क्या हम हस्तक्षेप कर सकते हैं, जब विधायिका भी उस पर विचार कर रही है? तो रोहतगी ने कहा, ‘अदालतें हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकती है. यह हमारा मौलिक अधिकार है और हम केवल उस डिक्लेरेशन की मांग कर रहे हैं जो हमें कोर्ट दे सकता है.
CJI ने कहा कि हमारे समाज ने समलैंगिक संबंधों को स्वीकार किया है. पिछले पांच सालों में चीजें बदली हैं. हम इसके प्रति सचेत हैं. अब हमारे समाज में, हमारे विश्वविद्यालयों में इसे अधिक स्वीकृति मिली है. हमारे विश्वविद्यालयों में केवल शहरी बच्चे ही नहीं हैं, वे सभी क्षेत्रों से हैं.
न्यायाधीश कौल ने सुनवाई के दौरान मुकुल रोहतगी से सवाल किया कि आपकी दलीलें सही हो सकती हैं. लेकिन क्या हम हस्तक्षेप कर सकते हैं, जब विधायिका भी उस पर विचार कर रही है? तो इसपर जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हां, अदालतें हमारे अधिकारों की रक्षा के लिए हस्तक्षेप कर सकती हैं. इसके बाद जस्टिस कौल ने सवाल किया कि क्या हम इस तरह घोषणा कर सकते हैं? तो रोहतगी ने जवाब देते हुए कहा, ‘हमारी जिंदगी कट रही है, हम जिंदगी भर विधायिका का इंतजार नहीं कर सकते इस घोषणा की हमें जरूरत है.’
इससे पहले याचिकाकर्ताओं की तरफ से दलील दे रहे मुकुल रोहतगी ने कहा कि इसमें आ रही कानूनी अड़चनों के मद्देनजर कानून में पति और पत्नी की जगह जीवन साथी यानी स्पाउस शब्द का इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 14 के मुताबिक समानता के अधिकार की भी रक्षा होती रहेगी. सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले दुर्गेश मिश्र और अनुज गर्ग मामले का हवाला देते हुए रोहतगी ने अपनी दलील आगे बढ़ाई है.
याचिकाकर्ताओं का पक्ष रखते हुए सुनवाई के दौरान मुकुल रोहतगी ने कहा कि समानता के अधिकार तहत हमें विवाह को मान्यता मिलनी चाहिए. क्योंकि सेक्स ओरिएंटेशन सिर्फ महिला-पुरूष के बीच नहीं, बल्कि समान लिंग के बीच भी होता है. वकील मुकुल रोहतगी ने कहा कि 377 हटाकर सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया. लेकिन बाहर हालात जस के तस हैं. समलैंगिकों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए.

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि नालसा और नवतेज जौहर मामलों में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार ने कुछ नहीं किया. मुकुल रोहतगी ने अपनी दलील 377 के अपराध के दायरे से बाहर किए जाने के मुद्दे से शुरू की. गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार, निजता का सम्मान और अपनी इच्छा से जीवन जीने की दलीलें दीं.

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