दार्शनिक ग्रन्थों में प्रकृति को माया का पर्याय माना गया है, जिसका सृजन ब्रह्म ने किया !
दार्शनिक ग्रन्थों में प्रकृति को माया का पर्याय माना गया है, जिसका सृजन ब्रह्म ने किया है। उनके मतानुसार ब्रह्म ही मूल तत्व है। ब्रह्म क्या है? यह सत् का पर्याय है। उसी से अग्नि, अग्नि से जल और जल से अन्न अर्थात सम्पूर्ण प्रकृति उत्पन्न हुई। यह ब्रह्म की ‘एकोहम् बहुस्वामि’ एक से अनेक होने की इच्छा का परिणाम है। वही प्रकृति से उत्पन्न जीवों में चेतना या आत्मा के रूप में विद्यमान है। प्रकृति को त्रिगुणमयी माना गया है। प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण मनुष्य में सत्व, रज और तम गुण आते हैं। यदि मनुष्य अपनी साधना और संयम से इन गुणों से परे अथवा त्रिगुणातीत हो जाये, तो वह आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाता है। उसे फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। वह अपने वास्तविक तत्व ब्रह्म में लीन हो जाता है। यह प्रकृति ब्रह्म का एक खेत है। अत: यह असत्य है। कुछ दार्शनिक जगत को सत्य मानते है और संसार को झूठ। संसार वह है जो मनुष्य अपने मन में निर्मित करता है। पाश्चात्य दार्शनिक क्रोचे का भी यह मानना है कि मनुष्य अपने मन में जो प्रकृति जगत या वस्तु का रूप बना लेता है, उससे ही उसे वैसा प्रतीत होता है। जगत अपने आप में कुछ नहीं है। जो बिम्ब प्राणियों के मन में बसते हैं, वही संसार या जगत हैं। इन सभी धारणाओं के बावजूद जगत या प्रकृति की सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। प्रकृति (सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड) स्वयं अपने आप इतनी विशाल और शक्तिशाली है कि मनुष्य उसे पूर्ण रूप में नहीं जान पाता। वैज्ञानिक उसके नये-नये रहस्य खोलते जाते हैं, नये-नये आविष्कार करते हैं, परन्तु वे कुछ नया निर्माण नहीं करते। वे प्रकृति के नियमों से बाहर कुछ नहीं कर सकते। इस रूप में मनुष्य की बुद्धि सीमित है और प्रकृति का स्वरूप अनंत हैं। प्रकृति अपने ढंग से चलती है। जड़-चेतन सबको पैदा करती और मिटाती रहती है। सभी जीव नश्वर हैं। मृत्यु एक अटल सत्य है। इसे कोई नहीं रोक सकता।
प्रकृति (ब्रह्माण्ड) के निर्माण में कोई ठोस तत्व नहीं है। सारे ग्रह ज्वलनशील गैसों के अग्निपिंड हैं। इन्हीं से पदार्थ गैस, द्रव या ठोस रूप में परिवर्तित होता रहता है। अग्नि सर्वव्यापक है। पृथ्वी की सतह पर भी और अन्दर भी। ग्रहों का कोई आधार नहीं है। वे अपने पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण से विद्यमान रहते हैं। ये भी बनते-मिटते रह सकते हैं। पृथ्वी स्वयं पहले सूर्य का एक अंग थी। सूर्य से अलग होकर कितने अरब वर्षों में पृथ्वी पर प्रकृति या जीवन का सृजन हुआ और यह कब तक चलेगा। पृथ्वी में कितने परिवर्तन हुए और होंगे, यह कोई नहीं जानता। शाश्वत कुछ भी नहीं है। नित्य नया घट रहा है। पृथ्वी भी कभी विलीन हो सकती है। प्रकृति की अनंतता और अनादिता यही संकेत करती है कि वह ब्रह्म से अलग नहीं है। प्रारंभ में पहले क्या था? कोई दावे से कुछ नहीं कह सकता। शून्यवादी मानते हैं कि प्रारंभ में शून्य अर्थात कुछ नहीं था। यदि कुछ नहीं था तो उससे कुछ कैसे उत्पन्न हो सकता है? शून्य से बिन्दु या परमाणु भी कैसे बन सकता है? इसलिए यह धारणा मिथ्या है कि पहले शून्य था। कुछ ऐसा सूक्ष्म, अदृश्य या निर्गुण अवश्य था, जिससे ज्वलनशील गैसें बनीं। सूर्य जो पृथ्वी से अठारह सौ गुना बड़ा है, वह ज्वलनशील गैसें का पिण्ड मात्र है। उसमें इतना अधिक ताप है कि पृथ्वी पर उसका थोड़ा ताप बढ़ जाने पर सब भस्म हो जायेगा। ग्लोबल वार्मिग का खतरा अब पृथ्वी पर मंडराने लगा है। मौसम आदि की गतिविधियां अनियंत्रित हो गयी हैं। बर्फ पिघल रही है। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। अनेक द्वीप समुद्र में डूब गये हैं। संभव है भविष्य में सम्पूर्ण भू-भाग समुद्र में डूब जाए और अधिक ताप बढऩे पर पृथ्वी के अन्दर की कड़ी पर्त भी टूट सकती है और पृथ्वी पुन: एक ज्वलनशील पिण्ड में बदल सकती है। इसमें फिर अरबों वर्ष बाद जीवन आ सकता है। यह सब प्रकृति में अपने आप घटित हो रहा है। यही सत् या ब्रह्म हैं जो ब्रह्माण्ड में क्रियाशील है अथवा प्रकृति की क्रियाशीलता ही ब्रह्म है।
प्रकृति ब्रह्मï का ही विस्तार है। यहां हर वस्तु नश्वर है। उससे पार नहीं पाया जा सकता। इसलिए भारतीय मनीषियों ने प्रकृति से सामंजस्य करके जीवन की राह तलाश ली। उन्होंने अपने सुख के लिए प्रकृति का दोहन करके भौतिक विकास का विनाशक रूप नहीं अपनाया। वे तत्वदर्शी थे। इसलिए प्रकृति से संघर्ष मोल न लेकर उन्होंने प्रकृति की अभ्यर्थना की। सबमें पूज्य भाव रखा। अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, सूर्य आदि तमाम प्राकृतिक शक्तियों के साथ नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु-पक्षी, सरीसृप, जलचर आदि स…
[2:23 pm, 3/7/2024] Vibhuti Feature Mp: मूर्ख बन गया शेर
(डॉ. सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स)
अंगद वन का शेर बहुत चतुर तथा शक्तिशाली था, नित्य ही जंगल के स्वस्थ जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरता था। शेर की चुस्ती-फुर्ती के सामने किसी भी जानवर का वश नहीं चलता था कि वह स्वयं को शेर का भोजन बनने से बचा सके।
समय बीतता गया। एक एक करके जंगल के अनेक स्वस्थ जानवर शेर का शिकार बन चुके थे। कुछ जानवर शेर से बचने के लिए जंगल छोड़कर भाग गए। अब जंगल में जानवरों का अकाल पड़ गया। शेर को अपने लिए भोजन जुटाने की खातिर दूर-दूर तक भटकना पड़ता तथा जो भी जानवर शेर के सामने कमजोर और लाचार दिखाई देता, शेर उसे ही अपना शिकार बनाकर अपनी भूख मिटाता।
एक बार शेर को तीन दिन तक कोई शिकार नहीं मिला तो वह व्याकुल होकर जंगल में इधर से उधर भटकने लगा, आखिर थक हारकर वह एक गुफा के द्वार पर बैठ गया।
यकायक शेर को दूर से एक खरगोश आता हुआ दिखाई दिया, खरगोश उछल कूद मचाता हुआ अपने घर की ओर जा रहा था, जैसे ही खरगोश की नजर शेर पर पड़ी, तो वह बुरी तरह घबरा गया, उसने भागना चाहा, किंतु शेर की अंगारों सी दहकती आंखों को देखकर वह सहम गया, उसके पांव कांपने लगे। इसी बीच शेर ने उसे अपने पंजों में दबोच लिया। खरगोश रूआंसा हो गया, उसने शेर के सामने विनती की-स्वामी…आप जंगल के शक्तिशाली राजा हैं, मैं आपके जंगल का बहुत छोटा और कमजोर जानवर हूं….यदि मेरा शिकार करने से आपकी भूख शान्त हो जाए तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है….मगर मुझे लगता है कि मेरा शिकार करने के बाद आप बहुत पछताएंगे…।
शेर ने खरगोश की विनती को ठुकारते हुए कहा-नन्हें खरगोश….मुझे बुद्घू मत बनाओ….. मैं तीन दिन से भूखा हूं….तुम्हें खाकर ही मैं अपनी भूख मिटाऊंगा। खरगोश तनिक भी विचलित नहीं हुआ, उसने कहा-स्वामी….भूख का नियम है…यदि अधिक भूख लगने पर कम भोजन किया जाता है, तो भूख और तेज हो जाती है….इसलिए मेरा सुझाव है कि जब तक तुम्हें कोई बड़ा शिकार नहीं मिलता….तब तक मेरा शिकार न करें, तभी अच्छा है,जैसे ही कोई बड़ा शिकार मिल जाए तो पहले मुझे खा लेना, फिर बड़े शिकार से भूख शान्त कर लेना। खरगोश की बात शेर की समझ बैठा रहा। बहुत देर तक शिकार की प्रतीक्षा करते करते शेर को नींद आ गयी। खरगोश ने शेर को जब सोते हुए पाया, तो वह दबे पांव वहां से भाग निकला और कुलांचे भरता हुआ अपने घर पहुंच गया। शेर सोकर उठा तो उसने पाया कि खरगोश वहां से जा चुका है, उसे अपनी मूर्खता पर बड़ा क्रोध आया।
(डॉ. परमलाल गुप्त – विनायक फीचर्स)