सोचे विचारें

ईश्वर ने यह शरीर हमें टेम्परेरी लोन के रूप में दिया है

मनोज श्रीवास्तव सहायक सूचना निदेशक

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक!

देहरादून! महान बनकर ही महिमा योग्य हो सकते हैं। महान बनने की स्मृति स्वतः ही कमजोरी के आकर्षण से मुक्ति कर देती है। महान समझने से साधारण संकल्प, साधारण बोल और साधारण कर्म नहीं होते हैं। महान स्थिति का अनुभव करने से हमारी सोच, बोल और कर्म में परिवर्तन हो जाता है। महान समझने से वर्तमान और भविष्य में महिमा योग्य बन जाते हैं। यदि महान नहीं समझते तब महिमा योग्य भी नहीं बनते।

अपने कर्म संकल्प को चेक करना है कि हम कहां तक महान बने हैं। महान बनने की स्मृति व्यर्थ से अटैचमेंट को समाप्त कर देती है। महान बनने के लिए हमें मेहमान समझना होगा। अर्थात हम अपने शरीर रूपी मकान में मेहमान हैं। ईश्वर ने यह शरीर हमें टेम्परेरी लोन के रूप में दिया है। अपने को मेहमान समझने से देह और ईगो का आकर्षण सहज ही समाप्त हो जाता है। जैसे यदि कोई अपने मकान को कारण अकारण बेचकर फिर उसमें रहने लगे तब उस मकान से अपनापन समाप्त हो जाता है।

अपना समझना और मेहमान समझने का अन्तर जानना जरूरी है। जैसे मैं समझता हूॅ कि यह मेरा शरीर है लेकिन वास्तव में हम इस शरीर में मेहमान के रूप में हैं। यह जानने से शरीर के प्रति अपनापन समाप्त हो जाता है। मैं शब्द के साथ, बहुत कुछ जुड़ा होता है, जब मैं पन समाप्त हो जाता है तब उसके साथी भी खत्म हो जाते हैं।

यदि हम अपने को मेहमान समझेंगे तब हर कर्म स्वतः ही महान होगा। यह शरीर मेरा नहीं है बल्कि ईश्वर के कर्तव्य का पार्ट बजाने के लिए है। ईश्वरीय नशा और निशाना हमें महान बना देता है। जब नशा ऊपर नीचे होता तब निशाना चूक जाता है। कभी नशा चूकता है तो कभी निशाना चूकता है।

ईश्वरीय नशे के अभाव में हमारे भीतर देह अभिमान आ जाता है। देह अभिमान हमारे कमी कमजोरी का कारण बनता है, इसके प्रभाव से हम कमजोरी के संस्कार के बस में हो जाता हैं। डाॅ0 भी जीवाणु को पूरी तरह से समाप्त करने की कोशिश करता है। परन्तु यदि आज अंश है तब कल वंश बन जाता है। देह अभिमान अथवा ईगो के कारण जो श्रेष्ठ रिजल्ट निकलना चाहिए वह नहीं मिलता है!

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