सोचे विचारें

बरसते पानी में डूबता किसान

विभिन्न कृषि विशेषज्ञों की मानें तो किसानों की समस्याओं को केवल योजनाएं बना देने से नहीं निपटाया जा सकता, योजनाओं को प्रभावशाली तरीके से लागू भी करना पड़ेगा, और साथ ही कपास के हाइब्रिड बी.टी. बीजों से किनारा करना पड़ेगा, क्योंकि इन हाइब्रिड बीजों में ज्यादा बीमारियां आती हैं और उनका कोई इलाज भी नहीं होता, इसलिए क्षेत्र और मिट्टी की गुणवत्ता के आधार पर नए देसी बीज तैयार करने पड़ेंगे। ल ही में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने इस वर्ष की पहली तिमाही के जीडीपी के जो आंकड़े जारी किए, उनसे आसानी से समझा जा सकता है कि भारत में आर्थिक मंदी ने अपने पैर पसार लिए हैं और 23.9 प्रतिशत के ऐतिहासिक गिरावट दर्ज की गई है।

वहीं संतोष की बात यह है कि कृषि क्षेत्र जिसका जीडीपी में लगभग 16 फीसदी हिस्सा है, और 50 फीसदी कामगारों को अपने में समाए हुए है, में 3.9 प्रतिशत बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इस बार रिकार्ड अनाज पैदा किया है। इससे किसानों में थोड़ा हौसला आया था परन्तु अब चिन्ता इस बात की है कि खरीफ की फसलों में हो रहे भारी नुकसान से सरकारें और किसान कैसे निपटेंगे? कृषि प्रधान राज्यों हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि में खरीफ के मौसम में मुख्यतरू कपास और चावल की खेती की जाती है, परन्तु इस बार कपास के किसानों को चौतरफा मार झेलना पड़ रहा है, सबसे पहले कोरोना की वजह से कपास के बीज में भ्रष्टाचार के मामले सामने आए और बीज महंगे मिले और नकली होने का भी डर लगातार बना रहा।उसके बाद जून के अंत में और जुलाई के शुरू में टिड्डियों के आक्रमण से पूरे के पूरे खेत बर्बाद हुए। उसके बाद जो बचे रह गए उनमें अब अगस्त के अंत में सफेद मक्खियों के आक्रमण ने पूरी फसल को बर्बाद कर दिया है, और औसत से ज्यादा बारिश ने आग में घी डालने का काम किया। ज्यादा बारिश से भी फसलों को भारी नुकसान हुआ है। हाल ही में हरियाणा की बात करें तो लगभग 75 प्रतिशत कपास की फसलें बर्बाद हो चुकी हैं , जिनमें से अधिकतर किसानों ने जमीन किराए पर लेकर फसल बोई थी, क्योंकि कोरोना की वजह से बड़े शहरों से लौटे लोगों के पास खेती करने के अलावा और कोई काम नहीं था, इसलिए इस बार पिछले साल के मुकाबले जमीन का किराया भी दो से तीन हजार रुपए प्रति एकड़ बढ़ गया। हम हरियाणा के भिवानी, सिरसा, फतेहाबाद और पंजाब के मानसा, फाजिल्का, और बठिंडा के 31 किसानों से बात करने के बाद इस विश्लेषण पर पहुंचे हैं कि लगभग 25 से 27 हजार रुपए प्रति एकड़ जमीन किराए पर ली और अब तक उसमें 17 से 19 हजार रुपए प्रति एकड़ खर्चा हो चुका है जिसमें खुद की शारीरिक मेहनत को नहीं जोड़ा गया, और अब उनकी फसलें लगभग 75 से 80 फीसदी खराब हो चुकी है, कुछ किसानों की तो पूरी की पूरी फसलें खराब हो चुकी है जैसे सिरसा जिले के डबवाली क्षेत्र में पूरी फसलें खराब हो गई हैं, जिसकी वजह से किसान काफी परेशान है और किसानों में सरकारों के खिलाफ भी रोष है।

ऐसे कृषि संकटों से निपटने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना जिसे वर्ष 2016 में लागू किया गया था, कारगर साबित हो सकती है, परन्तु ये योजना पूर्ण रूप से लागू नहीं हो पाई। जब इसे लागू किया गया तब खरीफ की प्रीमियम दर 2 प्रतिशत और रबी के लिए 1.5 प्रतिशत थी, और शुरू के वर्षों में इसे उन किसानों के लिए जरूरी किया गया जिन्होंने बैंक से किसी न किसी प्रकार का कृषि लोन ले रखा है। उनके बैंक खातों से अपने आप बिना उनसे पूछे कटौती की गई, और किसानों को 6 महीने बाद जब बैंक की किस्त चुकाने गए तब पता चला कि उनकी फसल का बीमा हो रखा था। दूसरा किसानों को ये भी नहीं पता कि फसल खराब होने पर कहां जाना है, कौन कम्पनी है जो बीमा राशि का भुगतान करेगी, क्या शर्तें है, नुकसान मापने के क्या पैमाने है, कौन नापेगा, सब कुछ अपारदर्शी था, फिर किसानों और उनसे जुड़े संगठनों ने आवाज उठाई, उसके बाद किसानों को विकल्प दिया गया कि जिन्हें बीमा नहीं करवाना वो अपने बैंक में जाकर एक फार्म भर दें, तो जिन किसानों ने पिछले 5-6 फसलों से बीमा का प्रीमियम भरा था उन्होंने उसे बंद करवा दिया, क्योंकि पैसे जा रहे थे पर फायदा नहीं मिल रहा था, फसलें हर साल कुछ हद तक खराब होती है, परन्तु बीमा राशि तब तक नहीं मिलती जब तक कि पूरे गांव की 75 प्रतिशत फसल खराब ना हो जाए, और नुकसान मापने के लिए गिरदावरी का काम पटवारी या उनके कोई सहयोगी करते हैं, और ये लोग कम्पनी से मिल कर किसानों का नुकसान को बहुत कम दर्शाते हैं। इससे संबधित कई बार शिकायतें देखने को मिली है कि पटवारी ने लिख दिया कि इस किसान की 30 प्रतिशत फसल खराब हुई है जबकि उसकी सारी की सारी फसल बर्बाद हो चुकी थी, ऐसे और भी अनेक मामले सामने आए है जहां किसानों के साथ धोखाधड़ी हो रही है। हरियाणा के सिरसा व फतेहाबाद जिले के किसानों का कहना है कि उनको केवल जनवरी फरवरी 2019 में, लोकसभा चुनावों से पहले एक बार बीमा राशि प्राप्त हुई है और वो किस आधार पर हुई है, क्यों हुई है किसी को मालूम नहीं, और जिन लोगों ने जमीन किराए पर ली हुई थी उन लोगों को तो आज तक कभी प्राप्त ही नहीं हुई। क्योंकि बीमा जमीन के मालिक के नाम से हुआ था।

ऐसे अनेक कारणों की वजह से किसान इस योजना से दूर भाग रहे हैं। हालांकि सरकार ने जनवरी 2020 में इस योजना में कुछ बदलाव किए हैं और राज्यों व कम्पनियों को सख्ती से इस योजना को लागू करने की बात कही है, बावजूद इसके 2016 के मुकाबले इस बार किसानों ने बहुत कम संख्या में फसल बीमा करवाया है।
इसकी एक वजह ये है कि बिहार, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य पिछले खरीफ मौसम से इस स्कीम से अपने आप को अलग किए हुए हैं वहीं गुजरात ने भी मार्च 2020 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के स्थान पर मुख्यमंत्री किसान सहाय योजना की शुरुआत कर दी है। वहीं पंजाब जो कि कृषि की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण राज्य है ने कभी इस योजना को लागू ही नहीं किया था। अब प्रश्न ये बनता है कि इन राज्यों में केवल पश्चिम बंगाल को छोड़ कर बीजेपी या बीजेपी के समर्थन प्राप्त दल की सरकारें है, ( 2016 में जब इस योजना को शुरू किया गयातब पंजाब में अकाली भाजपा की सरकार थी) बावजूद इसके ये राज्य इस योजना को लागू नहीं कर रहे, क्यों?ऐसे ही कुछ शंकाओं के चलते लगभग 50 से 55 फीसदी किसानों ने इस बार इस योजना के तहत बीमा नहीं करवाया हुआ, परन्तु अब जब सारे किसानों की कपास की सारी फसलें बर्बाद हो चुकी है तब इन किसानों के पास क्या विकल्प रह जाता है? अब किसानों ने सरकारों की तरफ झांकना शुरू कर दिया है। हरियाणा के कृषि मंत्री जे पी दलाल ने घोषणा भी की है कि जल्दी ही गिरदावरी करके किसानों को मुआवजा प्रदान किया जायेगा, अब ये कब तक हो पायेगा इसका किसी को कोई अंदाजा नहीं है।परन्तु फिर भी एक बार ये प्रश्न खड़ा हो गया है कि डूबते किसान को कैसे बचाया जाए, क्योंकि डूबती अर्थव्यवस्था में केवल कृषि ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जो हमारी अर्थव्यवस्था को इस मंदी और संकट के दौर से बाहर निकाल पाने में सबसे अहम योगदान दे सकता है।विभिन्न कृषि विशेषज्ञों की मानें तो किसानों की समस्याओं को केवल योजनाएं बना देने से नहीं निपटाया जा सकता, योजनाओं को प्रभावशाली तरीके से लागू भी करना पड़ेगा, और साथ ही कपास के हाइब्रिड बी.टी. बीजों से किनारा करना पड़ेगा, क्योंकि इन हाइब्रिड बीजों में ज्यादा बीमारियां आती हैं और उनका कोई इलाज भी नहीं होता, इसलिए क्षेत्र और मिट्टी की गुणवत्ता के आधार पर नए देसी बीज तैयार करने पड़ेंगे, और दूसरी पारम्परिक फसलों जैसे कि बाजरा, मूंग, तिल जिनसे कि बहुत समय से किसानों ने किनारा किया हुआ है, इन फसलों के किसानों को दो तरफा फायदे होते हैं फसल के साथ-साथ मिट्टी की उर्वरा शक्ति भी बढ़ जाती है।

जमीन उपजाऊ हो जाती है, इन फसलों में खर्च भी कम आता है, परन्तु किसानों का कहना है कि इनका उत्पादन इतना कम होता है कि उस से घर का खर्च तक नहीं निकल पाता। इसका एकमात्र उपाय यह है कि इन फसलों, जिनका उत्पादन बहुत कम है, के न्यूनतम समर्थित मूल्य में वृद्धि की जाए ताकि किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से लगभग उतनी ही आमदनी हो जाए जितनी कि कपास या अन्य फसलों से होती है। सरकारों को कृषि क्षेत्र में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है और जो योजनाएं चल रही है उन्हें अच्छे से लागू करवाने की जरूरत है और नई योजनाएं बनाने की जरूरत है, क्योंकि यदि किसान बचेगा तभी देश बचेगा।

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