चुनाव टलना चाहिए
नरेन्द्र नाहटा
देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक लाख प्रतिदिन होने के नजदीक है। पहले हम कह रहे थे कि दुनिया के बड़े देशों से हम बहुत बेहतर हैं। अब हमारी प्रतिस्पर्धा केवल अमेरिका से है। ब्राजील भी पीछे छूट गया। हम आंकड़ों से भले ही जनता को समझाने की कोशिश करें पर यह सच्चाई है कि संक्रमितों और मरने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। आम जनता में कोरोना संक्रमितों के लिये हुई शासकीय व्यवस्था के प्रति भी नाराजी है। कोरोना संक्रमित इसलिए भी बचने की कोशिश कर रहे है।
इसीलिए वे टेस्ट भी नहीं करवाना चाहते है। शायद ऐसा हो तो संक्रमितों की संख्या बहुत अधिक बढ़ सकती है। इसमें प्रशासन को भी सुविधा है। व्यवस्थाएं छोटी पड़ती जा रही हैं। सरकारी मशीनरी भी मौत की संख्या को कम बताने के चक्कर में ऐसी होने वाली मौत नहीं गिनाना चाहती है। पिछले दिनों टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक सूरत शहर में मौत वाली सरकारी संख्या और शमशानघाट और कब्रिस्तान में पहुंची हुई लाशों की संख्या में बड़ा अंतर था। स्थिति यह थी कि चार घंटे की प्रतीक्षा के बाद अंतिम संस्कार का नंबर आ रहा था। सभी डॉक्टर मान रहे हैं कि स्थिति कम्युनिटी स्प्रेड की है। ग्रामीण क्षेत्र में फैलता जा रहा है। तब स्थिति भयानक नहीं होगी? जब मात्र 400 संक्रमित थे, तब सरकार ने सख्ती से लॉक डाउन किया। दुनिया में पहली बार इतना सख्त लॉक डाउन? बीमारी के इलाज से ज्यादा छबि बनाने की कोशिश थी। अब जब कि विकास दर 24 फीसदी से नीचे चली गई है, दूसरी तिमाही के पहले अर्थ व्यवस्था को पटरी के नजदीक लाने की कोशिश में सब खोलना सरकार की मजबूरी है। सरकार के सामने अपनी वित्त व्यवस्था की समस्या भी है। इन वर्षों में आने वाले विधानसभा चुनाव के अतिरिक्त 2023 और 2024 के चुनाव भी सरकार के निर्णयों की पृष्ठभूमि में रहेंगे। तब तक कोरोना ठीक हो भी जाए पर अर्थव्यवस्था भी ठीक होना चाहिए। इसलिए भी सब खोलना आवश्यक है। इसका परिणाम भी कोरोना संक्रमण की दर बढऩे में ही होगा। हम एक चक्रव्यूह में है। ऐसी स्थिति में राज्यों के चुनाव हो रहे है। राज्यों में उपचुनाव कराने का निर्णय बिहार के आमचुनाव पर निर्भर करता है। परिस्थितियां शायद सत्तारूढ़ दल के अनुकूल है। इसलिए चुनाव करा लेना चाहेंगे। तब उपचुनाव भी होना है। संविधान भी यही कहता है।
बिहार विधानसभा के चुनाव तो फिर भी 6 महीने टाले जा सकते हैं, पर उपचुनाव सामान्य तौर पर 6 माह में होना है। फिर मध्य प्रदेश में स्थिति पहली बार बनी है जब कि उपचुनाव पर सरकार और उससे ज्यादा उन मंत्रियों का भविष्य टिका है जो बगैर विधायक हुए मंत्री बन गए हैं। इसलिए चुनाव कराने का मन चुनाव आयोग और सरकार दोनों ने बना लिया है। पर इसकी कीमत तो जनता को ही चुकाना है।
चुनाव का टेम्पो बन गया है। सरकार और विपक्ष दोनों चुनाव के मोड में आ गए है। पिछले हफ्ते एक जिला न्यायालय ने आदेश दिया है कि प्रशासन सोशल डिस्टेंस और मास्क इत्यादि का पालन करवाए क्या यह संभव है? चुनावी सभायें शुरू हो गई हैं, कलश यात्राएं निकल रही हैं। मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेताओं की सभाओं को रोक पाना इतना आसान नहीं होगा। क्या जिला प्रशासन इन्हें रोक पायेगा। और यदि यह नहीं होने दिया तो चुनाव प्रचार का तरीका क्या होगा। दोनों पार्टियों के अनेक नेता संक्रमित हो चुके है। यह संख्या दिन ब दिन बढ़ेगी।
यदि उम्मीदवार ही संक्रमित हो गया तो वह तब तक छिपाता रहेगा जब तक कि छिपाना संभव नहीं हो। पर तब तक न जाने कितने लोगों के संपर्क में वह आ चुका होगा। आखिर उसके भी राजनैतिक भविष्य का सवाल है। मध्य प्रदेश में करीब एक तिहाई सीटों पर पिछली हार-जीत का फासला दस हजार से कम था। यदि कम वोटिंग हुआ, जिसकी पूरी संभावना है तो क्या यह मतदाता और उम्मीदवार दोनों के साथ अन्याय नहीं होगा। अगले तीन महीने, विशेष कर आचार संहिता लगने के बाद सरकारी काम लगभग रुक जाएगा। नेता और प्रशासन चुनाव में होंगे। इधर संख्या बढ़ती जा रही है। इनकी व्यवस्था कौन करेगा। किसी मेडिकल कॉलेज के अनुमान के मुताबिक अगले दो महीनों में मध्यप्रदेश में 2 लाख 60 हजार से ज्यादा संक्रमित होंगे। दिल्ली और मुंबई की स्थिति तो डराने वाली है ही।अस्पतालों, निजी और सरकारी, दोनों की व्यवस्थाएं जवाब दे रही है। देश आधा करोड़ से अधिक तो पहुंच चुका है। चुनाव के समाप्त होते होते एक करोड़ तक पहुंच जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 6 महीने से ज्यादा समय से कोरोना से युद्ध लड़ते-लड़ते सरकारी मशीनरी थकने लगी है। तब चुनाव और कोरोना का दोहरा बोझ सह पाएगी? सरकार आश्वासन तो जरूर देगी कि सब कुछ होगा, परन्तु क्या यह संभव है।
जिस प्रशासनिक संस्कृति के चलते आम आदमी वैसे ही परेशान रहा है, चुनाव की व्यस्तता में प्रशासन उसकी कितनी मदद कर सकेगा।
राजनैतिक दल यह कभी नहीं कह पाएंगे कि चुनाव आगे बढ़ाना चाहिए। जो कहेगा उसकी कमजोरी कही जायेगी। भारतीय जनता पार्टी के लिए मध्यप्रदेश चुनाव छोड़ कर, उपचुनाव इतना महत्वपूर्ण नहीं है। उनके लिए केवल बिहार चुनाव का महत्व है। परन्तु समूचे देश में फैलता हुआ कोरोना, बढ़ती हुई मौतें और चुनावों में उलझा हुआ प्रशासन नई मुसीबतों को जन्म देगा। यह जनता को चाहिए कि वह दबाब बनाये कि चुनाव टलना चाहिए। सरकार संसद और विधान सभायें चलाने को तैयार नहीं है। यदि चलाती भी है तो मात्र संवैधानिक दायित्वों को पूरा करने के लिए। परम्पराएं तोड़ी जा रही है। कोरोना के चलते प्रश्नकाल जैसी महत्वपूर्ण गतिविधि समाप्त कर दी गई। बहस से बचा जा रहा है।
पच्चीस से ज्यादा सांसद कोरोना संक्रमित पाए गए है। इसलिए विपक्ष ने भी मजबूरी में मान लिया कि सदन समय से पहले समाप्त कर दिया जाए। मध्यप्रदेश में विधानसभा का मात्र एक दिन का औपचारिक सत्र हुआ। सरकार स्कूल कॉलेज के बारे में निर्णय नहीं ले पा रही है। कुछ परीक्षाएं हो रही है तो शेष के लिए कोरोना कारण बताया गया है। उच्च शिक्षा आयोग के निर्देशों और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण महाविद्यालयों में अंतिम वर्ष की परीक्षाएं तो हो रही हैं, पर शेष परीक्षाओं पर रोक लगा कर अन्य तरीकों से प्रमोट करने की मजबूरी है।
वैज्ञानिक कह रहे हैं कि पीक अभी आया नहीं है। किसी के मत में अक्टूबर, कोई मानता है, दिसंबर और कुछ लोगों का मत है पीक कभी भी आये मार्च तक परिस्थितियां सामान्य नहीं होंगी। अर्थ व्यवस्था तो सब खोल देने के बावजूद नीचे जा रही है। उस पर कोरोना के चलते चुनाव ले लिए की जाने वाली अतिरिक्त व्यवस्थाओं का बोझ और पड़ेगा। जब यह स्थिति है तब चुनाव कराने की कौन सी मजबूरी है। संवैधानिक दायित्व? ऐसी आपातकालीन स्थिति के लिए
संविधान रास्ता भी देता है। अब यह जरूरी है कि राजनैतिक दल अपने निजी हितों को छोड़ कर चुनाव के बारे में विचार करें। जनता को भी चाहिए कि वह समझे कि यह उसके हित-अहित का प्रश्न है। उसे नेताओं पर दबाब बनाना चाहिए। आम आदमी के सामने आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए चुनाव टलने चाहिए।