ईश्वर या अल्लाह प्रेम चाहता है और प्रेम समर्पण

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक
प्रेम को, विकास को, परमात्मा को पाने के लिए स्वयं को पूरी तरह दे देने की जरूरत है; मजनू हो जाने की जरूरत है। अपने को खोने को जो तैयार नहीं है, वह एक बात समझ ले कि अभी परमात्मा की प्यास उसके भीतर नहीं उठी।
तुमने यह तो मान लिया है कि तुम मंज़िल को पाना चाहते हो। वही भूल हो रही है। जब तक तुम इस भूल को न देखोगे, तब तक तुम अपनी स्थिति को ठीक-ठीक माप न पाओगे और इस स्थिति के बाहर भी न हो पाओगे।
बहुत लोगों का ऐसा खयाल है कि वे परम आनंद की मंज़िल पाना चाहते हैं, लेकिन क्या करें, और हजार झंझटें हैं, काम-धाम हैं, इसलिए समय नहीं मिलता!
या इतना साहस नहीं है कि सब कुछ दांव पर लगा दें। इस भांति वे अपने को धोखा दे रहे हैं। इस भांति वे यह भी मजा ले रहे हैं कि मैं परमात्मा को पाना चाहता हूं।
यह बात भी खटकती है कि मैं परमात्मा को नहीं पाना चाहता हूं। तो इसमें मलहम-पट्टी हो गई। अब दूसरा बहाना निकाल लिया कि क्या करें, और हजार उलझने हैं। आज इतनी सुविधा नहीं है कि कुछ कर सकें।
तुम्हें तृप्ति-मुक्ति पाने की आकांक्षा नहीं उठी है। जिसको पाने की आकांक्षा न उठी हो, उसकी फिक्र में क्यों पड़ना? क्योंकि जब तक तुम्हें आकांक्षा न उठे, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता।
तुम्हें जल तो दिया जा सकता है, लेकिन प्यास कैसे दी जाए?
तुम्हें प्यास न हो, तो जल का तुम क्या करोगे?
हम घोड़े को नदी तक तो ला सकते हैं पानी दिखा सकते हैं, लेकिन पानी पिलाएंगे कैसे?
घोड़ा प्यासा हो, तो ही पानी पीएगा।
प्रेम/परमात्मा के मामले में वास्तविक प्यासे को सरिता/सागर तक से जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। प्यासा सब छोड़ देता है, पानी की ही खोज करता है। कायनात हाज़िर हो जाती है ऐसी चाहतपूर्ति के लिए।
तुम्हारे भीतर प्यास नहीं है। और इस प्यास को जगाने के लिए पहला अनिवार्य कदम यही होगा कि तुम ठीक से समझ लो कि मेरे भीतर प्यास नहीं है।
इसकी चोट पड़ेगी; इससे घाव पैदा होगा कि मेरे में जिंदगी की कोई प्यास नहीं है! तो मैं धन, पद, प्रतिष्ठा–इसी में उलझा हुआ समाप्त हो जाऊंगा? यह क्षण-भंगुर जिंदगी ही मुझे सब मालूम होती है, तो मैं ऐसा मंद-बुद्धि हूं! इससे बड़ी चोट पड़ेगी। चोट पड़ेगी, तो तुम जागोगे। जागोगे तो शायद प्यास जगे।