सोचे विचारें

ठान लिया तो जीत है,मान लिया तो हार है

मनोज श्रीवास्तव

तपस्वी स्वरूप व्यक्ति ही त्याग कर सकता है। स्नेह त्याग का आधार है। स्नेह करने वाला ही सहयोगी बनता है, और सहयोगी बनकर त्याग करता है।

आज व्यक्ति बेसहारा होने का अनुभव कर रहे हैं। ऐसे में सभी को सहारा देने की अनुभुति कराने के निमित बनना है। आज कोई व्यक्ति प्रकृति से, कोई अन्य आत्माओं से, कोई अपने मन की कमजोरी से, कोई अपने तन की कमजोरी से बैचेन है। ऐसे व्यक्ति को एक सेकेण्ड के लिए भी सुख चैन का अनुभव कराने पर वह हमारा बार-बार दिल से शुक्रिया कहेगा।

हम विधाता के बच्चे होने के कारण, महानदाता, वरदाता, स्वरूप में हर समय देते रहने के स्थिति में रहते हैं। आज रॉयल भिखारी बहुत मिलते है। इसलिए हमें अखण्ड महान लंगर लगाना है। केवल धन के भिखारी नही होते हैं बल्कि अनेक मन के भी भिखारी भी मिलते हैं।

मास्टर दाता बन जाने पर जमा का खाता में जितना देते जायेंगे उससे अधिक भरता जायेगा।खुशी का खजाना, ज्ञान का खजाना, शान्ति का खजाना, शक्तियों का खजाना, गुणों का खजाना और सहयोग देने का खजाना जितना बाटेंगे उतना ही बढ़ता जायेगा।

पर-उपकारी बनने पर स्व-उपकारी स्वतः बन जाते हैं। विश्व कल्याणी बनने के लक्ष्य में चैक करें कि अभी तक हमने कितनों का कल्याण किया है अथवा अभी तक स्वकल्याण ही समय व्यतित कर रहे हैं। अभी तक भी लेने का संस्कार कई रूपों में दिखाई देता है। कोई नाम लेने में व्यस्त है, कोई मान लेने में व्यस्त है लेकिन जो लेने का संकल्प रखते है वह अल्प काल के लिए ले लेते हैं लेकिन सदाकाल के लिए गवा देते हैं।

हमें इतना अटेंशन रखना है कि हम बिन्दु स्वरूप बन जायें। सर्व खजानों के बिन्दु स्वरूप में स्थित होकर दातापन के सिन्धु अथवा सागर बन जाते हैं।

याद की छत्रछाया सर्व विघ्नों से सेफ कर देती है। किसी भी प्रकार का विघ्न छत्रछाया में रहने वालों के पास नही आ सकता है। छत्रछाया में रहने वालों की विजय निश्चित होती है। छत्रछाया से यदि संकल्प रूपी पांव बाहर निकला तो मायावाद कर देती है।

किसी प्रकार की भी परिस्थिति आये छत्रछाया में रहने वालों के लिए मुश्किल से मुश्किल बात सहज हो जाती है। पहाड़ समान बाते भी रूई के समान अनुभव देने लगती हैं।

ऐसे छत्रछाया में रहते हुए अल्पकाल के भी आकर्षण में छत्रछाया के बाहर नही निकलना चाहिए। इसलिए इस अल्पकाल के भी आकर्षण को सुरक्षित रहने के लिए पहचानना जरूरी है।

छत्रछाया से संकल्प बाहर रूपी पांव बाहर आ जाने पर माया आ जाती है। छत्रछाया माया को सामने नही आने देती है। माया के पास इतनी ताकत नही होती कि वो छत्रछाया के सामने आ जाए।

बच्चा बनना अर्थात छत्रछाया में रहना है। बड़े होकर चतुर बनना अर्थात माया के वश में हो जाना है। परमात्मा का प्यार अपने बच्चों को छत्रछाया में ही रखता है।

ठान लिया तो जीत है, मान लिया तो हार है। निश्चिय बुद्धि बन कर हर कार्य निश्चिंत होकर परमात्मा को सौंपते जायेंगे तब हर परिस्थिति में विजय भी निश्चित करते जायेंगे।

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