9 अगस्त-15 अगस्त: गांधी ने भारत को दीं दो चमकीली तिथियां

डॉ. दीपक पाचपोर
महात्मा गांधी पर केन्द्रित लेख-माला की यह कड़ी एक तरह से भारत के इतिहास की सर्वाधिक दो महत्वपूर्ण तारीखों के बीचों-बीच लिखी जा रही है। 9 अगस्त, 1942 और 15 अगस्त, 1947 के बीच वैसे तो पांच वर्षों का फासला था, लेकिन किसी ऐसे देश के लिए काल का यह अंतर बहुत मायने नहीं रखता जो विदेशी दासता से मुक्ति के लिये लगभग नौ दशकों से संघर्षरत था। दुनिया में कई मुल्क हैं जो हमसे भी लम्बी लड़ाई के बाद आजाद हुए थे, लेकिन भारत ने जिस तरीके से, जिन परिस्थितियों में और जिस रास्ते पर चलते हुएय और वह भी मूल्यों व आदर्शों से डिगे बगैर स्वतंत्रता पाई थी, उसने दुनिया भर को न केवल नई राह दिखलाई वरन भारत के लिये एक विशिष्ट स्थान निर्मित किया था। गांधीजी के किसी भी काम का अवलोकन करने से उनकी गहराई का तो आभास होता ही है, इन दोनों तारीखों की परिघटनाओं को देखें तो गांधी नामक व्यक्ति की आसमानी ऊंचाई को भी महसूस किया जा सकता है। इन दो तारीखों में जो हुआ, उन्होंने न केवल गांधीजी वरन समुदाय के रूप में समग्र भारत को ही सारी दुनिया से एक कदम आगे खड़ा कर दिया था। 1 अगस्त, 1920 को प्रारम्भ किया गया असहयोग आन्दोलन करीब पौने दो साल के बाद चौरी-चौरा कांड के कारण बापू ने स्थगित कर दिया था क्योंकि 22 पुलिसकर्मियों को आन्दोलनकारियों ने जलाकर मार डाला था। आजादी पाने के लिये किसी भी तरह की हिंसा का सहारा न लेने के लिये कटिबद्ध गांधीजी की छवि को तो नुकसान पहुंचा ही था, उन्हें कारागार में भी डाल दिया गया था। हालांकि कुछ महीनों के बाद उन्हें खराब स्वास्थ्य के चलते वे रिहा हो गये थे। जेल से निकलकर गांधी ने असहयोग आंदोलन की ज्वाला और चेतना को बनाये रखने के लिये कई अन्य आंदोलनों का सृजन किया। सविनय अवज्ञा, विदेशी वस्त्रों की होली, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार, स्वदेशी, चरखा, आत्मनिर्भरता आदि एक तरह से असहयोग आंदोलन से ही निकले अन्य आंदोलन थे। गांधीजी ने अगला बड़ा अभियान छेड़ा-भारत छोड़ो आंदोलन। विश्वयुद्ध में ब्रिटिश फौजें दक्षिण-पूर्व एशिया में पराजित हो रही थीं। इंग्लैण्ड को बुरी तरह फंसा देखकर नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को दिल्ली कूच करो का नारा दिया था। जापान भारत पर हमले की ताक में था। अमेरिका, रूस आदि मित्र देश ब्रिटेन पर लगातार दबाव डाल रहे थे कि यूरोपीय देशों की इस विपदापूर्ण घड़ी में वह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करे। इस संबंध में वार्ता के लिए ब्रिटिश प्रशासन ने सर स्टैफोर्ड क्रिप्स को मार्च, 1942 में भारत भेजा परन्तु अंग्रेज सरकार भारत को सम्पूर्ण समप्रभुता न देकर भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही चाहती थी। वह गवर्नर-जनरल के वीटो के अधिकार को भी पहले जैसा खुद के पास रखने के पक्ष में थी। भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सभी प्रस्तावों को सिरे से नामंजूर कर दिया। गांधी ने इस प्रस्ताव को श्कंगाल बैंक का आगामी तिथि का कोरा चेक कहकर अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें भारत के विभाजन की भी बात कही गई थी। गांधीजी ने क्रिप्स से दृढ़तापूर्वक साफ शब्दों में कहा- श्अगर आपके पास कोई ठोस सुझाव नहीं है तो आप अगले हवाई जहाज से लौट जाएं।इस नाकाम वार्ता के बाद अंग्रेजी हुकूमत के विरूद्ध 8 अगस्त, 1942 की शाम को बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी अधिवेशन में आंदोलन छेडऩे का निर्णय लिया गया। कहा तो यह भी जाता है कि गांधीजी ने 9 अगस्त, 1942 का दिन इसलिये चुना था क्योंकि साल 1925 के इसी दिन ब्रितानी तख्त गिराने का लक्ष्य लेकर रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ के 10 सदस्यों ने काकोरी काण्ड किया था। भगत सिंह के आह्वान पर पूरे देश में हर साल 9 अगस्त को बड़ी संख्या में नौजवानों द्वारा श्काकोरी काण्ड स्मृति दिवसश् मनाया जाने लगा था। वैसे गांधीजी के हिंसा विरोधी दृष्टिकोण को देखते हुए यह सच प्रतीत नहीं होता। खैर! भारत छोड़ो आंदोल का आगाज करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था-यह एक छोटा सा मन्त्र है जो मैं आपको दे रहा हूं इसको आप अपने दिलों में उतार लीजिए और इसे आपकी एक-एक सांस में व्यक्त होने दीजिए! यह मन्त्र है-करो या मरो। हम या तो हिन्दुस्तान को आजाद करें या इसकी कोशिश में अपनी जान दे दें। आज के बाद से हर मर्द और औरत अपने जीवन के एक-एक पल को इस बोध के साथ जिये कि वह सिर्फ आजादी हासिल करने की खातिर खा अथवा जी रहा या रही है और अगर जरूरत पड़ी तो इस लक्ष्य को हासिल करने की खातिर मर जाएगा या जाएगी। स्वतंत्रता के लिये गांधी की ललक और शीघ्रता कुछ ऐसी थी कि उन्होंने कहा-मुझे तुरन्त आजादी चाहिए। आज ही रात को, अगर हो सके तो भोर होने से पहले। तथापि, तत्काल एक सरकारी आदेश जारी कर अंग्रेज सरकार की ओर से कांग्रेस को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया गया एवं सुबह होने से पूर्व ही गांधीजी, जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, भारत कोकिला सरोजिनी नायडू सहित कांग्रेस के लगभग सभी बड़े और प्रमुख नेता देश भर की जेलों में डाल दिये गए थे। स्वतंत्रता संघर्ष के अग्रणी नेता युसूफ मेहर अली का दिया भारत छोड़ो का नारा हर भारतीय का घोषवाक्य बन गया। देश भर के युवा कार्यकर्ता हड़तालें करने-कराने में लग गये। भूमिगत रहकर जयप्रकाश नारायण ने आंदोलन को तेज किया। लालबहादुर शास्त्री जैसे नाटे कद के महान व्यक्ति ने आन्दोलन को प्रखर रूप दे दिया था परंतु 19 अगस्त को वे भी गिरफ्तार हो गये। सातारा और मेदिनीपुर जिलों में स्वतंत्र यानी समांतर सरकारें स्थापित हो गईं। अंग्रेजों ने आंदोलन के प्रति कड़ा रवैया अपनाया फिर भी आंदोलन साल भर से ज्यादा समय तक चलता रहा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस आंदोलन में करीब एक हजार लोग मारे गये, 1600 से ज्यादा जख्मी हुए, 18 हजार से अधिक नजरबन्द किये गये एवं 60 हजार से ज्यादा लोग गिरफ्तार हुए थे। आंदोलन ने युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया तथा लोगों के दिलों से जेल व दमन का भय खत्म हो गया। भारत छोड़ो आंदोलन के चलते गांधीजी जेल गए (आखिरी बार)। उन्हें पुणे के प्रसिद्ध आगा खां महल में रखा गया। जेल जाने के पांच महीने बाद वहीं आगा खां महल में गांधीजी ने 21 दिन के बगैर अन्न-जल के आमरण अनशन की घोषणा की। दूसरी तरफ अंग्रेज सल्तनत इस बार गांधी के सामने न झुकने पर आमादा थी। 22 फरवरी, 1944- महाशिवरात्रि। शाम लगभग सात बजे उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का निधन हो गया। इसके कारण अंग्रेजों ने उन्हें रिहा कर दिया। आगा खां महल में ही अपनी जीवन संगिनी का अंतिम संस्कार गांधीजी ने किया। यह बतलाने का तात्पर्य यह है कि जब बापू ने देश से कहा कि किसी भी तरह की यातनाओं से दबे बगैर देश की आजादी के लिये लड़ते रहो, तब वे स्वयं अपने जीवन की सबसे बड़ी व्यथा और वेदना से गुजर रहे थे। ये उन नेताओं को सीखने के पाठ हैं जो लोगों से कष्ट उठाने के लिये तो कहते हैं परन्तु स्वयं हर प्रकार के भोग-विलास का उपभोग करते हुए। बा के निधन पर गांधीजी के विरोधी कहे जाने वाले आजाद हिंद सेना के सेनापति और आजादी के आंदोलन के एक अन्य महानायक सुभाषचन्द्र बोस ने जो विस्तृत चिठ्ठी उन्हें लिखी थी, वह बापू की दृढ़ता और अपार व्यक्तिगत कष्ट झेलते हुए देश की स्वाधीनता के लिये उनके प्रयासों का दस्तावेज है। उन्होंने लिखा था-अंग्रेजों ने अभी बापू को पहचाना नहीं है। अगर वे सोचते हैं कि वे इससे डिग या टूट जायेंगे तो वे गलतफहमी में हैं।जून 1944 में महासमर समाप्ति पर था। गांधीजी रिहा हुए। जेल से निकलने के बाद वे कांग्रेस और लीग के बीच के मतभेदों तथा देश में फैल रही हिन्दू-मुस्लिम घृणा को समाप्त करने में जुट गये। उधर 1945 में ग्रेट ब्रिटेन में लेबर पार्टी की सरकार बनी जो भारत की स्वतंत्रता की पक्षधर थी। फरवरी, 1947 में लॉर्ड माउंटबेटन वॉयसराय बने। उन्होंने कांग्रेस-मुस्लिम लीग के बीच सुलह के प्रयास किये। विफल रहने पर उन्होंने घोषणा की कि भारत को स्वतंत्रता मिलेगी पर विभाजन के साथ। विखंडन के साथ भारत की आजादी का रास्ता खुला। संविधान सभा में गांधीजी को राष्ट्रपिता की उपाधि दी गई। 15 अगस्त को भारत भर में लोगों ने जमकर खुशियां मनाईं। ये न किसी उत्सव में शामिल हुए न कहीं तिरंगा फहराया। उन्होंने उपवास रखा। हर ओर जश्न था पर महात्माजी कलकत्ता में थेय क्योंकि आजाद मुल्क कौमी दंगों की लपटों से घिरा हुआ था। आहत मानवता के आंसू पोंछते हुए वे मानवता के श्रेष्ठतम व उच्चतम पायदान पर विराज चुके थे। अगर 9 अगस्त भारत के जज्बे व पुरुषार्थ की चमकीली तारीख हैय तो 15 अगस्त नैतिकता व विवेक को साबुत रखते हुए अपनी विजयगाथा खुद लिखने की तिथि है। निरा स्वतंत्रता दिवस नहीं।