मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar )यूपी की फूलपुर सीट से लड़ सकते हैं

लखनऊ. बीजेपी से गठबंधन टूटने के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की निगाहें अब दिल्ली की गद्दी पर टिकी है. वे विपक्ष को एकजुट करने में जुटे हैं. इसी बीच जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह के एक बयान से देश और उत्तर प्रदेश की सियासत में हलचल तेज हो गई है. दरअसल, कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar ) आगामी लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश के फूलपुर सीट से लड़ सकते हैं. ऐसे में अब चर्चा का विषय यह है कि बिहार की राजनीति का केंद्र रहे नीतीश कुमार आखिर उत्तर प्रदेश के फूलपुर से चुनाव क्यों लड़ेंगे?
फूलपुर लोकसभा सीट के राजनीतिक इतिहास को खंगाले, तो जवाब मिल जाता है कि आखिर फूलपुर ही क्यों? फूलपुर लोकसभा सीट देश के पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत वाली सीट के तौर पर जानी जाती है. फूलपुर का सामाजिक और जातीय समीकरण नीतीश कुमार के लिए काफी मुफीद नजर आती है. फूलपुर का जातीय समीकरण नीतीश कुमार के लिए जीत का इक्वेशन तैयार कर सकता है. इस संसदीय सीट पर सबसे बड़ी आबादी दलितों की है. उनकी आबादी करीब 18.5 फीसदी है. इसके बाद यहां पटेल और कुर्मी वोटर हैं. इनकी आबादी 13.36 फीसदी है. मुस्लिम वोटर भी यहां 12.90 फीसदी हैं. इनके अलावा इस सीट पर करीब 11.61 फीसदी संख्या ब्राह्मण मतदाताओं की है. वैश्य मतदाताओं की आबादी करीब 5.4 फीसदी है. इनके अलावा कायस्थ करीब 5 फीसदी, राजपूत 4.83 फीसदी, भूमिहार 2.32 फीसदी हैं. यानी कुल मिलाकर यहां सवर्ण आबादी 23 फीसदी है. मौर्य और अन्य जातियों को मिला दें तो ये 16 फीसदी के आसपास आते हैं. नीतीश कुमार अगर सवर्ण और कुर्मी-पटेल को साधते है और सपा का साथ हासिल करते हैं तो एक बार फिर फूलपुर का समीकरण बदल सकता है. यानी इस सीट पर नीतिश कुमार को सपा और बहुजन समाज पार्टी का समर्थन मिलता है तो नीतीश कुमार के लिए राहें आसान हो जाएंगी.
फूलपुर लोकसभा सीट देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के संसदीय सीट के रूप में जाना जाता रहा है. वे जीवनपर्यंत इस लोकसभा सीट से सांसद रहे. साल 1952 में पहली बार उन्होंने यहां से जीत हासिल की. फिर 1957 और 1962 के चुनावों में भी उन्हें यहां से जीत मिली। 1962 के चुनाव में फूलपुर से डॉ. राममनोहर लोहिया भी चुनावी मैदान में उतरे थे, लेकिन नेहरू ने उन्हें चुनावी मैदान में हरा दिया था.
ये है चुनावी इतिहास
साल 1964 में पंडित नेहरू के निधन के बाद उप चुनाव हुआ तो कांग्रेस ने पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित को चुनावी मैदान में उतारा और वे जीतीं. फिर 1967 के आम चुनावों में भी वे उतरीं और जीत दर्ज करने में सफल रहीं. हालांकि, इस चुनाव के दो साल बाद 1969 में संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बाद उन्होंने सांसदी से इस्तीफा दे दिया. विजयलक्ष्मी पंडित के इस्तीफे के बाद 1969 में हुए फूलपुर उप चुनाव में कांग्रेस को यहां की जनता ने झटका दे दिया. संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार जनेश्वर मिश्र ने नेहरू की कैबिनेट के सहयोगी रहे केशवदेव मालवीय को हरा दिया. पहली बार इस सीट पर कांग्रेस का वर्चस्व टूट गया. 1971 के लोकसभा चुनाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस को यह सीट वापस दिलाई. 1977 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की लहर के बीच राष्ट्रीय लोक दल की कमला बहुगुणा जीतीं. वहीं, 1980 में इंदिरा गांधी ने केंद्र में जोरदार वापसी की, लेकिन फूलपुर सीट पर जनता पार्टी सेक्युलर के बीडी सिंह जीते. आखिरी बार 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को यह सीट राम पूजन पटेल ने दिलाई. राम पूजन पटेल 1989 और 1991 के चुनाव में जनता दल के टिकट पर लड़े और जीते। इसके बाद सीट पर सपा का कब्जा हो गया. साल 1996 से 2004 तक यहां पर सपा ने कब्जा बनाए रखा. साल 2004 के चुनाव में फूलपुर से अतीक अहमद सांसद बने थे. 2009 के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के कपिल मुनी करवरिया ने इस सीट पर सपा के बर्चस्व को तोड़ा. साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने यहां से केशव प्रसाद मौर्य को चुनावी मैदान में उतारा, उन्होंने जीत दर्ज की. हालांकि, यूपी चुनाव 2017 के बाद केशव मौर्य को प्रदेश का डिप्टी सीएम बनाया गया. उन्होंने सांसदी से इस्तीफा दे दिया. फूलपुर उपचुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा. करीब 9 साल बाद वर्ष 2018 में फूलपुर की राजनीति में नागेंद्र प्रताप सिंह पटेल के जरिए सपा की वापसी हुई. हालांकि, लोकसभा चुनाव 2019 में एक बार फिर यह सीट केसरी देवी पटेल के जरिए भाजपा के पाले में चली गई. कुल मिलाकर देखें तो फूलपुर ने किसी भी दल को स्थायी रूप से वहां अपना गढ़ बनाने नहीं दिया है. ऐसे में जदयू नीतीश कुमार को इस समीकरण में फिट करने की कोशिश कर सकती है.
फूलपुर का राजनितिक-भौगोलिक महत्व
फूलपुर लोकसभा क्षेत्र वाराणसी से केवल 100 किलोमीटर के दायरे में आती है. जदयू समेत विपक्ष भी जानता है कि पीएम नरेंद्र मोदी को यूपी में घेरे बिना केंद्र की राजनीति तक पहुंचना मुश्किल है. हालांकि, उन्हें घेरने की पिछली कोशिशें सफल नहीं हुई, वाराणसी से दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक अरविंद केजरीवाल भी पीएम मोदी के खिलाफ उतरे थे. उन्हें सफलता नहीं मिली। ऐसे में सीधे गढ़ में घुसकर हमला करने की जगह किलेबंदी पर अधिक ध्यान दिया जा सकता है.