सोचे विचारें

सहन करने की शक्ति और संतुष्टता सीधा समानुपाती होता है

मनोज श्रीवास्तव (विधान सभा मीडिया प्रभारी) देहरादून

स. सम्पादक शिवाकान्त पाठक!

सहन करने की शक्ति का सीधा सम्बन्ध हमारी संतुष्टता से है। यदि किसी से पूछा जाये क्या आप अपने आप से संतुष्ट हैं, अपने पराक्रम से संतुष्ट हैं और अपने संबन्धियों से संतुष्ट हैं तब वे सोचने लगेंगे। हमें इन तीनों बातों में संतुष्टता का सर्टिफिकेट लेना है। प्रश्न है हम असंतुष्ट क्यों हैं, क्योंकि हमारे अन्दर सहनशीलता का अभाव है। हमारी असंतुष्टता का कारण जब हम किसी के वाणी, कर्म और संस्कार देखते हैं और अपने विवेक से अनुचित पाते हैं तब हमारा संकल्प बोल और कर्म भी प्रतिक्रियावादी हो जाता है। इस कारण दूसरा व्यक्ति भी हमसे अंसतुष्ट हो जाता है।

यदि किसी व्यक्ति में कोई कमी कमजोरी और संस्कार देखकर बुरा लगे तब उसी समय सहनशीलता को धारण करने के लिए सहनशक्ति विकसित करना होगा, हमारे सहन करने की शक्ति उस व्यक्ति को आटोमैटिकली उसके अयर्थात् चलन का अहसास करा देती है। लेकिन जब हम अपने वाणी, चाल-चलन से उसके गलती को महसूस कराने में लग जाते हैं तब हम अपने कमजोरी के संस्कार के बस में हो जाते हैं। इसके कारण हम न तो स्वयं सतुष्ट रहते हैं और न ही दूसरा हमसे संतुष्ट रहता है।

यदि ठीक इसी समय सहन करने और समाने की शक्ति से उस व्यक्ति के कमी, कमजोरी के संस्कार को थोड़े समय के लिए एवायड कर लें तब हमारी सहन करने और समाने की शक्ति से उस व्यक्ति के ऊपर संतुष्टता का वाण लगा सकती है।

भले ही उसी समय इसमें हमारी विजय न दिखायी दे बल्कि हार दिखाई दे लेकिन उस अल्पकाल की हार में बहुत काल की जीत समायी है। यह हार हमारे गले का हार बन जाती है। ऐसी हार को अपना जीत मानना चाहिए।

बुद्धि में नाॅलेज होते हुए भी उसे किस समय, किस रूप में और किस युक्ति से देना है इसकी समझ होना आवश्यक है। हम समझते हैं हमने तो अपने ज्ञान से उनको शिक्षा दे दी है लेकिन यदि ज्ञान देने का सही समय न हो और ज्ञान लेने वाले के पास ज्ञान लेने की शक्ति न हो तब हमारी शिक्षा व्यर्थ हो जाती है। जिस प्रकार धरती देखकर और समय देखकर बीज बोया जाता है, तभी फल निकलता है, अर्थात् यदि भूमि बंजर होगी और समय सटीक नहीं होगा तब बीज कितना भी क्वालिटी वाला हो फल नहीं देगा। धरती अर्थात उस व्यक्ति के समर्थी को देखकर शिक्षारूपी बीज डालने से फलरूपी सफलता मिलती है।

संतुष्ट को संतुष्ट करना महावीरता नहीं है और स्नेही का स्नेह देना और सहयोगी को सहयोग देना महावीर बनना नहीं है। अपकारी पर उपकार करना, अपने सहयोग की शक्ति से अहसयोगी को सहयोग देना महावीर बनने की निशानी है। हम ऐसा नहीं कह सकते है कि फला कारण से यह नहीं होता है, जब तक यह आगे नहीं बढ़ता है, तब तक यह नहीं होगा। वह आगे बढ़े या न बढे़ हमतो आगे बढ़ सकते हैं।

यदि कोई सगा सम्बन्धित किसी बात में कमजोर है तब कमजोर को कमजोर कह कर छोड़ देना मेरी मर्यादा नहीं है। ऐसे कमजोर को हाईजम्प देकार योग्य बनाना है। इस प्लान और प्रैक्टिकल की समानता से सफलता मिलती है। हमारी सफलता की आवाज और हमारे प्लान के हीरे की चमक लोगों को आकर्षित करती है। सहनशक्ति का आधार ईश्वरीय शक्ति है। इसके लिए जरूरी है, ईश्वरीय नशा और निशाना। यदि नशा ऊपर-नीचे होता है तब निशाना चुक जाता है।

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