राजनीति

‘वाया फुरसतगंज’(Via Fursatganj’) ’ के बहाने राजनीतिक चरित्र के दोगलेपन पर कटाक्ष

इलाहाबाद: बालेंदु द्विवेदी के उपन्यास ‘वाया फुरसतगंज’ का नाट्य मंचन इलाहाबाद स्थित बाबू बनारसी दास विश्वविद्यालय के डॉ. अखिलेश दास ऑडिटोरियम में हुआ. उपन्यास का नाट्य रूपांतरण और निर्देशन ‘दि थर्ड बेल’ संस्था के रंगकर्मी और निर्देशक आलोक नायर की टीम ने किया. ‘वाया फुरसतगंज’(Via Fursatganj’)  उपन्यास को “वाणी प्रकाशन” ने प्रकाशित किया है.

उपन्यासकार बालेंदु द्विवेदी ने बताया कि ‘वाया फुरसतगंज’ नामक उपन्यास इलाहाबाद की पृष्ठभुमि पर केंद्रित है. उपन्यास में इलाहाबाद की ठेठ संस्कृति को उकेरने की कोशिश की गई है.

नाटक का घटनाक्रम कुछ यूं है कि एक दिन फुरसतगंज नामक गांव में एक ऐसी घटना घटती है कि पलभर में ही यहां का सारा ताना-बाना छिन्न भिन्न होने लगता है और स्थानीय राजनीति व मुख्यधारा की राजनीति में गलबहियां शुरू हो जाती हैं. असल में यहां के जिन्नधारी महात्मा हलकान मियाँ का इकलौता बेरोज़गार पुत्र परेशान अली रात के अंधेरे में पास के ही कुएं में गिर जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है. सुबह पता चलता है कि उसके साथ उसकी इकलौती बकरी भी गिर कर मर गई. तमाम चैनलों पर खबर पसरने लगती है और सूबे के मुख्यमंत्री के आदेश पर जिले के नवागंतुक कलेक्टर ज़बर सिंह गांव का दौरा करने निकल पड़ते हैं.

नाटक आगे बढ़ता है और शुरुआती जांच में इसे दुर्घटना का मामला बताकर रिपोर्ट शासन को भेज दी जाती है. लेकिन बात इतने भर से खत्म नहीं होती. परेशान अली अपनी मौत के बावज़ूद सत्ता के गले की फाँस बन जाता है. इसी के इर्द गिर्द ये कहानी घूमती है.

लब्बोलुआब यह कि फुरसतगंज में घटने वाली एक छोटी-सी घटना कैसे सभी के कौतुक का विषय बनकर उभरती है और कैसे सभी चाहे-अनचाहे इसमें एक-एक कर शामिल होते जाते हैं. फिर यह भी कि यह आरंभिक कौतूहल कैसे शासन-प्रशासन के लिए चिंता का सबब बनता जाता है और कैसे न चाहते हुए भी सभी इस घटना के इर्द-गिर्द बुने अपने ही जाले में उलझते चले जाते हैं. इस जाल में उलझने के बाद सत्ता पाने के लिए आपस की होड़, इसकी जद्दोजहद और फिर गलाकाट-संघर्ष को पाठक के सामने ले आना ही इस नाटक का मूल मंतव्य है.

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