बोमडिला तेरे इश्क़ में कोई न होता यूं दीवाना – तारो सिंदिक

अरुणाचल प्रदेश के तारो सिंदिक हिंदी साहित्य जगत के युवा कवि हैं. 2017 में तारो को ‘साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था. तारो को उनके कविता संग्रह ‘अक्षरों की विनती’ के लिए यह पुरस्कार मिला. यह उनका पहला काव्य संग्रह था. तारो की रचनाएं तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं. पूर्वोत्तर में हिंदी साहित्य की अलख जगा रहे तारो सिंदिक को इस वर्ष भुवनेश्वर में सम्मन्न हुए कलिंग साहित्य महोत्सव में ‘कलिंग साहित्य सम्मान’ से भी अलंकृत किया गया.
डॉ० तारो सिंदिक वर्तमान में ईटानगर के शासकीय महाविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं. तारो को काव्य-रचना अतिरिक्त गीत-संगीत, चित्रकला, लोक-साहित्य एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में विशेष रुचि है. प्रस्तुत हैं उनकी चुनिंदा कविताएं-
घर बहुत याद आ रहा है
आह!
न जाने क्यूं
घर बहुत याद आ रहा है
जानते हुए
वो घर अब वैसा नहीं है;
उसकी ‘मरम’ में
जलती लपटों की गर्मी में
अब वो गर्माहट नहीं है
और
चूल्हें में पकते व्यंजनों में
अब कहीं ममता का स्वाद नहीं।
उस घर के
चारों कोनों में
चारों पहर गुंजित
बचपन का मधुर कोलाहल
मौन स्मृति में विचरती
किसी भी दिशा अब
ध्वनित होती नहीं।
वो घर
जहाँ अब नहीं हैं
एक जोड़ी बूढ़ी आंखें
जो नितान्त शून्यता में
अपने जिगर के टुकड़ों की इन्तज़ार में
तंग दरवाजे से बाहर ताकती रहती
और
जिसकी झुर्रियों की
अनगिनत रेखाओं में
बिम्बित जीवन की संघर्ष-गाथा
अब वो चेहरा वहां नहीं;
वो घर
हर छुट्टी में हमें बुलाता
अरसे बाद सबको मिलाता
उस नियमित मिलन का ‘हेतु’
अब वहां है नहीं
आह !
फिर भी,
न जाने क्यूं
घर बहुत याद आ रहा है।
सर्दी की दस्तक
अब लकड़ियों से
उठती लपटों से
चूल्हे होंगे आबाद
सुबह होते
शाम ढलते
खींच लाएगी
पास इसकी गर्माहट
सन्दूकों में कैद
गर्म लिबासे
आज़ाद हो
सांस लेगी
सूर्य की
ऊष्ण किरणों में
नहायेगी।
पहाड़ों में बसे
कृषक जन
तनिक सुस्तायेंगे अब
करेंगे मौज
फसलों की उपज से।
बोमडिला
बुद्ध की धरा पर
पहाड़ों पर
चट्टानों पर
संस्कृतियों का
ज़िन्दगियों का
यूं पलना-बढ़ना
कठिनाइयो में
सरलता को ढूंढना
जीने के सहीं तरीकों
से आत्मसात होना
बादलों की महीन चादरें
ओढ़े-लपेटे
सर्द हवाएं
भटके बंजारों सा
घाटी-घाटी
पहाड़ी जनपदों में
रश्मि रथियों को
परास्त कर जाना
बोमडिला तेरे इश्क़ में
कोई न होता
यूं दीवाना।
हिन्दी और मैं
महज एक भाषा नहीं
इसकी अक्षर-अक्षर
जैसे मेरे सहचर
भीतर का मेरा संसार
खुलता इनके द्वार
इनके ही शब्दों पे सवार
जाता हूं उर के हर ‘उस पार’
इतना मैं कृतज्ञ हूं
जब भी हिन्दी में लिखता हूं
मुझमें ‘मेरा’ जन्म होता है।