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हार और कलह… कांग्रेस की बीमारी; क्या राहुल के पास है कोई इलाज?

नई दिल्ली. साल 2021 का अंत होने वाला है. यह साल कांग्रेस, असमंजस, नेतृत्व की लड़ाई, भीतरी कलह और चुनावी हार के तौर पर याद रखेगा. भले ही राहुल खुद कांग्रेस के अध्यक्ष के पद के लिए अनिच्छुकता जाहिर करते रहे, लेकिन फिर भी चाहे मुख्यमंत्री का चुनाव हो, पार्टी की नीतियां हों या दूसरे अहम फैसले. ऐसा लगता है जैसे 10 जनपथ जहां कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी रहती हैं, वहां जाने का रास्ता 12 तुगलक लेन यानी राहुल गांधी के निवास से होकर ही गुजरता है.

कांग्रेस के लिए 2021 का पहला धमाका राहुल गांधी का केरल को अपना नया गढ़ बनाना था. इस साल की शुरुआत में राज्य के चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. पश्चिम बंगाल में जहां इन्होंने वाम दल का हाथ थामा था, इन्हें सिफर हासिल हुआ. साथ में तृणमूल कांग्रेस की दुश्मनी मुफ्त में मिल गई, जो अब कांग्रेस को हरियाणा, असम, गोआ, पंजाब और दूसरे राज्यों से साफ करने पर तुली हुई है. लेकिन सबसे ज्यादा नुकसान तो केरल में हुआ, जहां से राहुल गांधी सांसद हैं. वहां भी पार्टी की नीतियां और रणनीति दोषपूर्ण लग रही थी और नतीजतन वामदल फिर से सत्ता पर काबिज हुआ.

केवल तमिलनाडु ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस अपनी सत्ता को संभाले रखने में सफल रही. वह भी इसलिए क्योंकि वहां डीएमके खेवनहार बना था. ऐसे में अगर पार्टी राहुल गांधी की वापसी की तैयारी कर रही है तो उन्हें इस साल से सबक लेना चाहिए कि उनके फैसले कितने दोषपूर्ण और नुकसानदायक रहे हैं.

पहला गलत फैसला वाम दल का हाथ थामना था. जैसा कि विदित है कि वाम दल का वोटबैंक लगातार कम होता जा रहा है ऐसे में उसके साथ गठबंधन एक फिजूल का फैसला था. साथ ही इसका यह भी मतलब था कि टीएमसी के साथ अब कभी रिश्ता नहीं बनेगा. लेकिन इससे भी गलत फैसला था कट्टरपंथी फुरफुरा शरीफ के नेता अब्बास सिद्दीकी के साथ हाथ मिलाना.

कोलकाता के ब्रिगेड ग्राउंड में एक सार्वजनिक रैली में कांग्रेस के राज्य प्रमुख अधीर रंजन को अब्बास ने खुलेआम झिड़क दिया था. कांग्रेस की इस गठबंधन को लेकर बहुत आलोचना हुई थी और इसने उनके नए हिंदुत्व को नुकसान पहुंचाया है. कांग्रेस ने भले ही बाद में अब्बास से दूरी बना ली हो, लेकिन जो नुकसान होना था वह हो चुका था. इसी तरह ममता बनर्जी को लेकर हमलावर हों या नर्म रुख रखें इसे लेकर भी कांग्रेस कैडर में असमंजस बरकरार रहा, जिसका नतीजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा. इससे ज्यादा उलझाने वाला फैसला था चुनाव में ममता पर हमलावर रुख अपनाने के बाद उन्होंने भवानीपुर में होने वाले उपचुनाव में उनके विरुद्ध किसी प्रत्याशी को खड़ा नहीं करने का फैसला लिया. इसके बावजूद उन्हें ममता बनर्जी की दोस्ती हासिल नहीं हुई और जल्दी ही ममता ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया है. सुष्मिता देव इनका पहला बड़ा नुकसान था जिन्होंने टीएमसी में जाने का फैसला लिया.

असम में भी बदरूद्दीन अजमल के साथ इनकी साझेदारी ने कांग्रेस की छवि को राज्य में धूमिल किया और इसका नुकसान राज्य के चुनाव में देखने को मिला. यही कहानी केरल में भी दोहराई गई, जहां कांग्रेस ने परंपरागत क्रिश्चियन वोट को खो दिया और वाम दल के विकल्प के रूप में खुद को साबित करने में नाकाम रही थी.

सूत्र बताते हैं कि गांधी कमजोर नेतृत्व की बात सुन सुनकर तंग आ चुके हैं और बताना चाहते थे कि कांग्रेस में असली बॉस कौन है और इसके लिए पंजाब को एक प्रयोग के तौर पर चुना गया. यहां पार्टी औऱ अमरिंदर सिंह के बीच खटास चल रही है. गांधी परिवार ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने का मन बना लिया था. लेकिन वह इस काम को नजाकत और चतुराई के साथ करना चाहते थे. हालांकि कुछ भी हो, लेकिन अमरिंदर की नाराजगी जाहिर है और उनका भाजपा के साथ हाथ मिलाना कांग्रेस को भारी पड़ सकता है.

कुल मिलाकर राहुल गांधी का यह मकसद कि पार्टी और सरकार का आपसी समझ बूझ के साथ काम करना सुनिश्चित हो सके पूरी तरह से नाकाम हो चुका है. चरणजीत चन्नी बनाम नवजोत सिद्धू इस भीतरी कलह का सबसे हालिया उदाहरण है. छत्तीसगढ़ में भी टीएस सिंह देव को मुख्यममंत्री बनाने का राहुल गांधी का वादा पूरा नहीं हो सका क्योंकि बघेल ने खुद को ओबीसी के नेता के तौर पर स्थापित करके दबदबा कायम कर लिया था, जिसने गांधी परिवार के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं.

यही हाल अब उत्तराखंड में भी दिख रहे हैं, जहां गांधी परिवार यशपाल आर्य को आगे करना चाहते हैं और हरीश रावत को बाहर करने का उनका मन चुनाव में उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है. इसी तरह राजस्थान में सचिन पायलट भले ही अभी शांत हों, लेकिन वह लंबे समय तक रहते हैं इसे लेकर शक है. ऐसे में गांधी परिवार को यह जाहिर करना की वह बॉस हैं, बेहद मुश्किल और चुनौती भरा है. बहुत से लोग ऐसे हैं जो हाइ कमांड संस्कृति से उकता गये हैं.

राहुल गांधी की कांग्रेस की बागडोर संभालना तब और मुश्किल लगने लगता है जब वह अपने बयानों से पार्टी को मुश्किलों में ला देते हैं. मसलन उनके हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व का बयान और लिंचिग के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दोष देना. ये ऐसे बयान थे जिसने कांग्रेस को असहज कर दिया है. पार्टी में ही कई लोगों का मानना है कि इस बयान की कोई ज़रूरत नहीं थी, यह केवल हमें नुकसान ही पहुंचा सकता है.

राहुल के सामने सबसे बड़ी बाधा विपक्षी दलों की स्वीकार्यता है. शिवसेना नेता संजय राउत भले ही उनका बचाव करते हों, लेकिन ममता, शरद पवार जैसे धाकड़ नेता उनके साथ काम करने को लेकर असहज ही हैं. इसी तरह पार्टी में भी कई लोग उनकी कार्यशैली से असहज हैं. वहीं सोनिया गांधी के मिलनसार होने का उन्हें फायदा मिलता है. उनकी अगली बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना होगी कि अब पार्टी से कोई पलायन ना करे. इसके लिए उन्हें माई वे या हाइ वे वाले बर्ताव से बचना होगा. कांग्रेस आगामी विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है, ऐसे में सभी की निगाह राहुल गांधी के नेतृत्व वाले चुनाव प्रचार पर होंगी.

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