जोधपुर के महाराजा की नायाब बंदूकें

जोधपुर में प्राचीन राजवंश की स्थापना आठवीं सदी में हुई थी. इस राजवंश की गद्दी में बैठने वाले महाराज जोधपुर कहे जाते थे. महाराज जोधपुर की नायाब बंदूकों की चर्चा मुगलों से लेकर अंग्रेजी जमाने में भी खूब होती थी. आइए यहां देखते हैं महाराज जोधपुर की बंदूकों की एक झलक और उनके बारे में कि क्या है इन बंदूकों की खासियत…
कहते हैं जान है तो जहान है, सुरक्षा है तो इत्मीनान है. शायद इसीलिए मनुष्य की रक्षा के लिए शस्त्रों के बाद बंदूकों को जगह मिली.
बीती सदियों में जब मुगलों ने राजपूतों पर हमला बोल दिया और सुरक्षात्मक हथियारों के अभाव में राजपूतों को मुंह की खानी पड़ी, तो बंदूकों की ज़रूरत को महसूस किया गया.
फिर यहां के महाराजाओं द्वारा शुरू हुआ एक से एक बढ़कर एक काबिल, तीसमारखां बंदूकों को ख़रीदने, बनाने व संग्रह का सिलसिला, जो पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहा.
इन्हीं बंदूकों का इतिहास बयां करती एक पहली और एकमात्र किताब द महाराजा ऑफ जोधपुर्स गन्स, जो ब्रिटिश लेखक रॉबर्ट एलगुड द्वारा लिखी और नियोगी बुक्स एवं मेहरानगढ़ म्यूजियम ट्रस्ट के संयुक्त तत्वाधान में प्रकाशित की गई है.
बेशक़ीमती बंदूकों से सजी इस अद्भुत किताब में इनके बारे में भरपूर जानकारी, तीन सौ से भी अधिक चित्रों एवं ज्ञान का विस्तृत भंडार है, जिससे यह हर किसी को विस्मित कर देती है.
ये था रायपुर जोधपुर के कुमार फतेह सिंह केसरी सिंहोत (शासन काल 1750-1760 ईस्वी) का सुअर मारने का हथियार. हालांकि उनके पास एक बंदूक उपलब्ध थी, लेकिन वह अपने धनुष से सूअर को मारना पसंद करते थे.
तस्वीर में चंडावल के राजा हरि सिंह और पाटीकोट के हिंदू सिंह दरबारियों के साथ हैं. इनका जोधपुर में 1760-1770 ईसवी में शासनकाल रहा. इनके पास विशिष्ट ज्वलंत हाथीदांत पर बने हथियार थे.
ये है अठारहवीं सदी की मल्टी बैरल पिस्टल. इस नायाब बंदूक को अलग ही अंदाज में डिजाइन किया गया है. बंदूक से शॉट लगाने पर एक तेज धमाका होता है.
सत्रहवीं सदी के गुजराती मछली के आकार की मदर-ऑफ-पर्ल प्राइमिंग फ्लास्क को पीतल के नाखूनों के साथ लकड़ी के कोर पर सेट करके बनाया गया है. इसकी कुल लंबाई: 25 सेमी है.