सोचे विचारें

बज उठी चुनावी रण भेरी फड़कने लगीं छुटभइयों की भुजायें!स संपादक शिवाकांत पाठक ! ( हास्य व्यंग )

नगर निकाय चुनावों के इस सुहाने मौसम में अभी हाल ही में एक चुनावी सभा के बाद एक  कार्यकर्ता ने नेताजी को घेर लिया। नेताजी दयालु थे। द्रवित होकर बोले, ‘क्या कष्ट है बोलो बेटे,,,टिकट-विकट चाहिए तो अध्यक्ष जी से मिल लो काम हो जायेगा ।’ कार्यकर्ता संवेदनशील था,भावुक था कर्मठ था सुबक पड़ा, बोला ‘यही तो दिक्कत है! मुझे इस बार फिर टिकट मिल गया है, जबकि मैं पार्टी-सेवा करना चाहता हूं तन मन से ।’मुझे चुनाव नहीं लड़ना सिर्फ जनता की सेवा करना है,,,
यह सुनते ही नेताजी आश्चर्य चकित होकर उसे देखने लगे। थोड़ा रुककर बोले, ‘दूसरी पार्टी बड़ा आफर दे रही है या जीतने की उम्मीद नहीं है बबुआ ? हमारे रहते काहे का डर?’ नेताजी ने एक साथ कई सवाल पूछ लिए। कार्यकर्ता  बेचारा हड़बड़ा गया। ‘नहीं-नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है।
                   हमें डर लग रहा है कि कहीं जीत गया तो फिर,,,,,? चुनाव जीतने के बाद काम न करने पर जनता द्वारा लात मारने की जिस स्कीम को आपने कुछ दिन पहले ही लांच किया है, डर तो उसी से लग रहा है साहब,,,जीतने के पहले हमसे आप वायदे कराएंगे बाद में बिकास आपका ही होना है,,,
कहीं जनता हमारा प्रदर्शन देखकर सचमुच हमें लतियाने पर उतारू न हो जाए या लात मारने की गरज से ही मुझे जिता दे  कि यह अच्छा मौका मिल रहा है स्कीम का मजा लो इसे जिताओ फिर लाते मारते हैँ,, ऐसा पहले भी हो चुका है !’,,, कार्यकर्ता घुटनों के बल बैठे-बैठे बोला।    हा,हा,हा, नेताजी ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘या तो तुम मुझे ठीक से नहीं जानते या फिर जनता को तुम समझ नहीं पाए,,,राजनीति में आए हो तो अंदर से डर को निकालो,,। तुम अब जनता के हो चुके, इसलिए तुम्हारा जो भी है, वह जनता का है।
डर भी जीत भी हार भी । तुम जनता से नहीं, जनता तुमसे डरे कुछ ऐसा करना होगा,,,वह डरने लगे तो और डराओ यही राजनीति है । उसे बताओ कि अगर उसने तुम्हें नहीं चुना तो खतरे बढ़ जाएंगे तुम्हारा जीना दुशवार हो जायेगा । इससे तुम्हारा सारा डर जनता की ओर शिफ्ट हो जाएगा। वह डरेगी तभी तो वोट देगी। डर   होने पर कोई घर से भी नहीं निकलेगा। रही बात, चुनाव जीतने के बाद काम न करने पर लात मारने की, हम इसका मौका ही नहीं आने देंगे। हम चैनलों पर नया विमर्श शुरू करवा देंगे  आज से ही । जनता आपस में वहीं अपने चरणों का सदुपयोग कर लेगी।’ ‘फिर भी मैं पार्टी-सेवा में ही तन समर्पित करना चाहता हूं।
                               कृपया मुझे चुनाव लड़ने से बचा लीजिए।’ कार्यकर्ता की गुहार बड़ी मौलिक सटीक लग रही थी। उसके इस राग से नेताजी का मूड बिगड़ गया वे  भी अपने मौलिक रूप में शुरू हो गए, ‘ ओये,,कौन है यह आदमी? पता करो कि यह अपना कार्यकर्ता है भी या नहीं सारा मूड ही ख़राब कर दिया ? इसे यह भी नहीं पता कि पार्टी को तन से ज्यादा धन चाहिए। और उसके लिए चुनाव में जीतना होगा तभी तो धन आएगा । इस आदमी को हमारे ‘मिशन’ की बुनियादी जानकारी तक नहीं है।’ चुनाव प्रभारी नेताजी के साथ में ही थे लेकिन शांत

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