अंतराष्ट्रीय

दुनिया में तेजी से ‘इस्लाम’ छोड़ रहे लोग?

ब्रिटेन: अगर आप दीन-दुनिया की ख़बर रखते हैं तो आपने Ex मुस्लिम मूवमेंट के बारे में ज़रूर सुना होगा. यहां Ex का मतलब पूर्व है. दुनियाभर में मुसलमानों के परंपरागत इस्लाम से दूरी बनाने और ‘पूर्व मुसलमान’ बन जाने का मूवमेंट है ये Ex मुस्लिम मूवमेंट. कुछ वर्षों में अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपियन देशों में इस Ex मुस्लिम मूवमेंट ने काफ़ी ज़ोर पकड़ा है.

बहुत तेज़ी से मुसलमान इस्लाम से दूरी बना रहे हैं. 2017 में प्यू रिसर्च सेंटर की रिपोर्ट थी कि 2035 में दुनिया में मुसलमानों की जनसंख्या सबसे ज़्यादा होगी. लेकिन Ex मुस्लिम मूवमेंट का विस्तार अब इस दावे पर सवाल खड़े कर रहा है. हम आंकड़ों में ना पड़ते हुए इसके कारणों को आज हाईलाइट करेंगे.

अपनी एक्स-मुस्लिम सोसायटी बना रहे लोग

आप पूछेंगे तो क्या ये Ex मुस्लिम. अब ईसाई या हिन्दू या फिर बौद्ध धर्म अपना रहे हैं? छिटपुट मामले छोड़ दें तो ऐसा नहीं है. इनमें से अधिकांश मुसलमान अपनी ‘Ex मुस्लिम सोसायटी’ डेवलप कर रहे हैं. यानी वो दूसरे धर्म में जाने की बजाए खुद को ‘पूर्व मुसलमान’ बताना पसंद कर रहे हैं.

तब ये सवाल आता है कि अगर इन्हें इस्लाम पसंद नहीं आ रहा, तो फिर Ex मुस्लिम ही क्यों? कोई दूसरा धर्म क्यों नहीं अपनाते? तो इसका जवाब ये है कि इन लोगों को इस्लाम से नहीं, बल्कि इस्लाम के अंदर बनाए गये कुछ उसूलों से, कुछ बंदिशों से, कुछ रोक-टोक, कुछ बहुत ही कट्टर विचारों से और गैर-बराबरी की कई प्रथाओं से परेशानी है.

केरल की साफिया ने दायर की याचिका

मिसाल के तौर पर हम भारत का ही एक मामला आपके सामने रख रहे हैं, जिससे आप Ex मुस्लिम मूवमेंट की कम से कम एक वजह तो जान सकेंगे. केरल की साफ़िया पीएम जन्म से मुसलमान थीं, लेकिन अब उनका इस्लाम में विश्वास नहीं रहा है. साफ़िया खुद को EX मुसलमान कहती हैं और EX मुस्लिम्स ऑफ केरल संगठन की कर्ताधर्ता भी हैं.

साफ़िया ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है. इस याचिका में उन्होंने अपने पिता की संपत्ति में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 के तहत हिस्सा मांगा है. साफ़िया की मांग है कि उनका- उत्तराधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लिकेशन एक्ट 1937 से नहीं तय हो. साफ़िया की दलील है कि उनके पिता भी नॉन-प्रैक्टिसिंग मुसलमान हैं, इसलिये उनका उत्तराधिकार भारत के क़ानून से तय हो.

सुप्रीम कोर्ट ने मंजूर की याचिका

चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की 3 सदस्यों वाली सुप्रीम बेंच ने साफ़िया की याचिका मंज़ूर कर ली है. सुनवाई की तारीख भी दे दी है. अब इस मामले में जिन सवालों को सुलझाया जाना है, वो ये हैं कि –
– जो Ex मुस्लिम हैं, उनपर शरिया क़ानून लागू होगा या नहीं?- Ex मुस्लिम को सेक्यूलर लॉ का लाभ किस आधार से मिले?

साफिया के पिता के दो वारिस

साफ़िया के पिता के दो ही वारिस हैं. एक साफ़िया, दूसरा उनका भाई, जो कि एक बीमारी से ग्रसित है. भाई की ज़िम्मेदारी भी साफ़िया के ऊपर ही है. साफ़िया की 2 आपत्तियां हैं. पहली- मुस्लिम पर्सनल लॉ में बेटियों से गैर-बराबरी और भेदभाव है. दूसरी- मुस्लिम पिता चाहकर भी बेटी को बराबर हक़ नहीं दे सकते हैं.
साफ़िया से पहले भी ऐसे मामले अदालतों में पहुंचे हैं और इसी दुविधा में झूलते रहे कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के होते हुए किसी मुस्लिम को भारतीय उत्तराधिकार क़ानून का लाभ कैसे दिया जाए? वर्ष 2023 में बुशरा अली मामले में केरल हाईकोर्ट ने भी मुस्लिम पर्सनल लॉ के पक्ष में फ़ैसला सुनाया था.

भाई के न रहने पर भी नहीं मिलेगा हिस्सा

मुस्लिम पर्सनल लॉ पर अमल करें तो इस केस में अपने पिता की वसीयत में साफ़िया का भाई 66% का हिस्सेदार है, जबकि साफ़िया सिर्फ़ 33% की हक़दार हैं. शरीयत लॉ के मुताबिक़ बेटी का हिस्सा बेटे से आधा ही होगा. किसी कारणवश भाई के ना रहने पर उसका 66% भी साफ़िया को हर्गिज़ नहीं मिल सकता. ऐसी सूरत में पिता के रिश्तेदारों का इस हिस्से पर हक़ होगा.

इस्लाम छोड़ने की बन रहे बड़ी वजह

वैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ एप्लिकेशन एक्ट 1937 में परिवार के कई सदस्यों के लिये वसीयत या संपत्ति में हिस्सेदारी तय की गई है. इसमें माता-पिता का भी हिस्सा है. लेकिन इसमें बेटियों के साथ पत्नी से भी गैरबराबरी है. महिलाओं से भेदभाव को लेकर सवाल पहले भी उठते रहे हैं. स्पष्ट नहीं कहा जा सकता कि मुस्लिमों के EX मुस्लिम मूवमेंट से जुड़ने का यही एक कारण है. लेकिन हाल के मामले देखें तो साफ़ दिखता है कि सारे कारणों में ये गैर-बराबरी भी बड़ा कारण है.

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