सोचे विचारें

जीते कोई भी, नीतीश की हार पक्की

राजेन्द्र शर्मा
बिहार के विधानसभाई चुनाव में, तीसरे चरण का मतदान आज जारी है। उसके बाद मतगणना के लिए तीन दिन और इंतजार करना होगा। फिर भी, मतदान के पहले दो चरणों में ही कम से कम दो नतीजे तो आ भी चुके हैं। पहला तो यही कि इस चुनाव के नतीजों के लिए, वाकई 10 नवंबर को दोपहर-बाद तक इंतजार करना पड़ेगा। यानी चुनाव प्रचार के जोर पकडऩे से पहले तक, अगर यह चुनाव बहुत हद तक इकतरफा लग रहा था और मीडिया द्वारा बताया भी जा रहा था, तो अब उसमें मुकाबले का इतना तत्व जरूर आ गया है कि सभी यह मान रहे हैं कि नतीजों का तो, गिनती के बाद ही पता चलेगा। आम तौर पर सत्ता-पक्ष के पक्षधर माने जाने मीडिया घरानों द्वारा कराए गए चुनाव-पूर्व सर्वे तक, कम से कम इकतरफा चुनाव दिखाने से तो बच ही रहे हैं। दूसरी ओर, महागठबंधन की चुनावी सभाओं में उमड़ रही भारी भीड़ों और उससे बढ़कर इन भीड़ों की देहभाषा तथा उनमें बड़ी संख्या में जुट रहे युवाओं द्वारा उठाए जा रहे मुद्दे, उनकी बोली देखकर, आम तौर पर राजनीतिक प्रेक्षकों ने अब यह मान लिया है कि इस बार महागठबंधन, सत्ताधारी जदयू-भाजपा गठजोड़ के लिए वास्तविक चुनौती पेश कर रहा है। दूसरा नतीजा यह है कि आखिरकार, इस चुनाव में जीत किसी की भी हो, नीतीश कुमार की हार तय है। चुनाव प्रचार के आखिरी दिन, अपनी आखिरी सभा में, इस चुनाव को अपना आखिरी चुनाव घोषित कर, श्रोताओं से अपने नाम पर वोट डालने का वचन भरवाने के नीतीश कुमार के पैंतरे ने, उनके हार स्वीकार कर लेने दावों को हवा जरूर दी है, लेकिन हमारा उक्त नतीजा सिर्फ इसी पर आधारित नहीं है।

वास्तव में यह नतीजा सिर्फ या मुख्यतरू इस तथ्य पर भी आधारित नहीं है कि लोक जनशक्ति पार्टी न सिर्फ नीतीश कुमार के नेतृत्ववाले गठजोड़ से अलग होकर चुनाव लड़ रही है बल्कि नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री नहीं बनने देने और इसलिए उन्हें हराने पर ही फोकस कर के चुनाव लड़ रही है। लोजपा, वास्तव में इस चुनाव में भाजपा की अधिकांश सीटों पर उसे समर्थन दे रही है और उसके नये सुप्रीमो चिराग पासवान खुले आम श्नीतीश-मुक्त भाजपा सरकारश् बनवाने के लक्ष्य का ऐलान कर चुके हैं। वास्तव में नीतीश कुमार की हार का तय होना तो इस तक भी सीमित नहीं है कि लोजपा के इस रुख को देखते हुए और जाहिर है कि चुनाव के बाद सभी संभावनाओं के लिए दरवाजा खुला रखने के लिए, नीतीश कुमार तथा जदयू के सारे दबाव तथा तमाम अपेक्षाओं के बावजूद, प्रधानमंत्री ने चार दिन और बारह रैलियों के अपने इतने सघन प्रचार के बावजूद, लोजपा या चिराग पासवान के खिलाफ एक शब्द कहना तक मंजूर नहीं किया है। यानी महागठबंधन को स्पष्टड्ढ बहुमत न मिलने की सूरत में भी, नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बना रहना तय नहीं है। लेकिन, नीतीश कुमार की हार, उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी के रहने या जाने तक सीमित नहीं है। उसका फैसला तो वोटों की गिनती के दिन या शायद उसके भी कुछ आगे हो। पर नीतीश कुमार की हार तो पहले हो चुकी है और इसका संबंध जदयू-भाजपा गठजोड़ में ताकतों का संतुलन स्पष्टड्ढ और प्रकट रूप से, भाजपा के पक्ष में बदल चुका होने से है। इसी का नतीजा है कि हालांकि सत्ताधारी गठजोड़ की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा तो अब भी नीतीश कुमार ही हैं, पर चुनाव प्रचार का नेतृत्व नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के हाथों में पहुंच चुका है।

कम से कम औपचारिक रूप से नेतृत्व की हैसियत के मामले में जैसी बराबरी का दावा नीतीश कुमार चुनाव से पहले तक कर रहे थे, वास्तव में चुनाव प्रचार के जोर पकडऩे के साथ ही उसे भुला देने में ही, खुद नीतीश कुमार को भी भलाई नजर आई। नरेंद्र मोदी के चुनाव मैदान में उतरने तक तो, सत्ताधारी मोर्चे का राजनीतिक-वैचारिक नेतृत्व मजबूती से संघ-भाजपा के हाथों में पहुंच चुका था। इसके बाद, नीतीश कुमार येन-केन-प्रकारेण अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने भी रहते हैं, तब भी वह भाजपा की कृपा के ही मोहताज होंगे। उनके गठजोड़ में अब भाजपा की ही चलेगी, उनकी नहीं। चूंकि यह सिर्फ प्रधानमंत्री के पद या नरेंद्र मोदी के ज्यादा लोकप्रिय होने का ही मामला नहीं है, इसीलिए संतुलन में उलट-पुलट टिकाऊ है न कि सिर्फ प्रचार में प्रधानमंत्री की सीधी उपस्थिति तक के लिए।और संतुलन में इस बदलाव का श्रेय अकेले भाजपा के पैंतरों को देना सही नहीं होगा। वास्तव मेें सत्ताधारी गठजोड़ में ताकतों के संतुलन में यह बदलाव सबसे बढ़कर, महागठबंधन की चोटों से हुआ है, जिसने नीतीश कुमार और उनके गठबंधन के लिए, सरकार में अपने प्रदर्शन के ही आधार पर वोट मांगना लगभग असंभव बना दिया है। वास्तव में एक हद तक इसका एहसास, जदयू और भाजपा दोनों को ही था और इसलिए शुरू से ही दोनों की ओर से चुनाव प्रचार में उतना जोर नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की बड़ी मेहनत से पंद्रह साल में गढ़ी गई छवि पर नहीं था, जितना कि उससे भी पहले के पंद्रह साल के लालू-राबड़ी के कथित जंगल राज की याद दिलाने पर था। प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पहली चुनावी सभा से लेकर अपने प्रचार के चौथे चरण की आखिरी चुनाव सभा तक, इसी पर सबसे ज्यादा जोर रखा। फिर भी, नीतीश कुमार ने प्रचार की शुरूआत में अपने राज में विकास के दावों का सहारा लेने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसकी हवा विपक्ष द्वारा उठाए गए रोजगार के मुद्दे के खास तौर पर युवाओं को बहुत बड़ी संख्या में आकर्षित करने ने निकाल दी। इसी का नतीजा था कि दस लाख नौकरियां देने के महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव के वादे का नीतीश कुमार ने हंसी उड़ाने के जरिए जवाब देने की कोशिश की, तो उनकी इस कोशिश की हंसी खुद उनकी सहयोगी भाजपा ने, अपने चुनाव घोषणापत्र में तेजस्वी से दोगुने रोजगार देने का वादा कर के उड़ाई। इसके साथ ही नीतीश कुमार को समझा दिया गया कि रोजगार के मुद्दे पर उलझने की कोशिश नहीं करें। बहरहाल, बेरोजगारी के मामले में नीतीश सरकार की और वास्तव में एनडीए गठजोड़ की विफलता के अलावा, जो कि इस चुनाव में ऐसे बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे आ गए हैं, जिसने सारे समीकरणों को उलट-पुलट कर दिया है, कोविड संकट के बीच जनता को राहत पहुंचाने के मामले में नीतीश सरकार का रिकार्ड दूसरा सबसे बड़ा मुद्दा है, जो इस चुनाव में नीतीश राज के खिलाफ जनता की आम नाराजगी का सबसे बड़ा कारण बना है। सभी जानते हैं कि बिहार देश के उन राज्यों में से है, जहां से सबसे ज्यादा ग्रामीण गरीब स्त्री-पुरुष कमाई के लिए दूसरे राज्यों में पलायन करने के लिए मजबूर होते हैं।

लॉकडाउन के चलते, इनके मेहनत-मजदूरी की अपनी कमाई घर भेजने का यह सिलसिला ठप्प होने से, राज्य में पीछे रह गए उनके पचासों लाख परिवारों पर ही भारी मार नहीं पड़ी, लंबे और अनंतकाल तक चलते नजर आ रहे लॉकडाउन मेें इन मजदूरों की श्घर वापसीश् भी, उससे कम त्रासद नहीं थी। इस त्रासदी की तस्वीरों ने नीतीश कुमार की सुशासन बाबू की छवि को इस कदर तार-तार कर दिया है कि भाजपा तक ने उनसे यह खिताब वापस ले लिया लगता है। इसी का नतीजा था कि चुनाव प्रचार के दौरान कितनी ही जगहों पर, भाजपा कार्यकर्ता, समर्थक, नीतीश से मतलब नहीं है नरेंद्र मोदी को वोट दोश् की अपीलें करते नजर आए हैं। इसी के पूरक के तौर पर प्रधानमंत्री समेत तमाम महत्वपूर्ण भाजपा नेता, सत्ताधारी गठजोड़ के चुनाव अभियान को अपने जाने-पहचाने बहुसंख्यकवादी सांप्रदायिकता तथा धु्रवीकरण के मैदान में खींच ले गए हैं। सत्ताधारी जदयू-भाजपा गठजोड़ के राजनीतिक विरोधियों को जिन्ना, पाकिस्तान का विस्तार बताने की शुरूआत तो भाजपा ने चुनाव प्रचार शुरू होते ही कर दी थी। आगे चलकर, भाजपा अध्यक्ष ने धारा-370 को खत्म करने के विरोध को, कश्मीर में आतंकवादध् पाकिस्तान को सबक सिखाने का विरोध बनाने से आगे नागरिकता का कानून संशोधन,एनआरसी का मुद्दा और छेड़ दिया तथा इसके तहत हिंदू प्रवासियों को नागरिकता दिलाने का भरोसा दिलाया।

इसी को, भाजपा की ओर से बड़े पैमाने पर चुनाव सभाओं में उतारे गए, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ ने अपने चुनाव प्रचार की आखिरी सभाओं में, घुसपैठियों (मुसलमानों) को चुन-चुनकर बाहर निकालने के संघ-भाजपा के जाने-पहचाने दावों को भी दोहराना जरूरी समझा। जिसका सीमांचल की अपनी सभाओं में खुद नीतीश कुमार को बिना नाम लिए, यह कहकर गोल-मोल तरीके से खंडन भी करना पड़ा कि कोई कुछ भी बोलता है, कोई किसी को देश से बाहर नहीं निकाल सकता है! और खुद प्रधानमंत्री ने अपनी आखिरी चुनावी सभाओं तक, हिंदुत्ववादी दुहाई पर बढ़ते जोर के इस सिलसिले को, श्भारत माता की जय और जय श्रीरामश् को सीधे-सीधे चुनावी हथियार बनाने तक ही पहुंचा दिया। नीतीश कुमार ने उसके आगे पूरी तरह से समर्पण कर दिया है। यहां से आगे जीते कोई भी, नीतीश की हार पक्की है!

Show More

यह भी जरुर पढ़ें !

Back to top button